पृष्ठम्:बीजगणितम्.pdf/१९९

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

१६२ बाजगाणत- जो 'गुणवर्गे प्रकृत्योऽथ वाल्पशेषकं' यह कहा है सो क्षेपकी ल घुता के लिये । अब यों भी ज्येष्ठवर्ग में इतना अधिक है इ. क. ज्ये. प्र २ कर, प्रव १ क्षेत्र १ ज्येष्ठ इ. ज्ये १ _इव, ज्येव १ क्षेत्र १ ज्येष्ठवर्ग= इसमें अधिक जोड़ने से हुआ इच. ज्येव १ इ.क. ज्ये. प्र २ कव. प्रव १ क्षेव १ के यो अधिक होनेपर भी ' कृतिभ्य आदाय पदानि --' इस सूत्र अनुसार मूल आता है इसलिये यह भी ज्येष्ठ वर्ग है । यहां इतना विशेष है कि यदि इष्टगुणित क्षेपभक्त कनिष्ठ, कनिष्ठ कल्पना कियाजावे तो क्षेप से भागा हुआ इष्टवर्ग क्षेप होगा और इष्टसे गुणा क्षेत्र से भागा ज्येष्ठ ज्येष्ठ होगा । यदि इष्ट से गुणित ज्येष्ठ से युक्त और क्षेप से भागा हुआ कनिष्ठ, कनिष्ठ कल्पना किया जावे तो क्षेप से भागा गुणवर्ग और प्रकृति इनका अन्तर क्षेप होगा और इष्ट से गुणित, प्रकृति से गुरो हुए कनिष्ठ से सहित क्षेपसे भक्त ज्येष्ठ, ज्येष्ठ होगा । यहां पर यद्यपि इष्टवश से पदसिद्धि होती है इसलिये कुक की अपेक्षा नहीं है तो भी अभिन्नता के लिये कुट्टक किया है इससे 'इस्वज्येष्टपदक्षेपान्-' इत्यादि उपपन्न दुप्रा । यहां पूर्वरीति के अनुसार कनिष्ठ पर से ज्येष्ठ का साधन कहा है | गुरपक से गुणित, प्रकृति से गुणे हुए कनिष्ट से सहित और क्षेप से भगा हुआ ज्येष्ठ ज्येष्ठ होता है, यह बीजनवाकुरकार का परामर्श है । अब प्रतिपादित वासना के किंचित् अंशको भङ्गयन्तर से निरूपण करते हैं----