धम्मपदं [ १४८ कुंभः पुरुषाजानेय न स सर्बत्र जायते। यत्र स जायते धीरः तत् कुलं सुखमेधते ॥ १५॥ अनुवाद-कंठचम पुरुष दुर्रम है, वह सर्वत्र उत्पन्न नहीं होता, वह । धीर (पुरुष) जहाँ उपत्र होता है, उस कुछमें सुबकी वृद्धि होती है। जतवन बहुत मिश्र १६४-मुखो बुद्धानं उपपादौ सुख सद्धम्मदेसना । सुखा संघस्स सामगी समगानं तपो मुखो ॥११॥ (सुस्रो ख़ुदानां उत्पादः सुखा सद्धर्मवेशना । सुखा संघस्य सामनी समग्राणां तपः सुखम् ॥ १६ ॥ अनुवादसुखदायक है बुद्धोंका जन्म, सुखदायक है सचे धर्मका उपदेश, संघमें एकता सुखदायक है, और सुखदायक है, एकतायुक्क हो तप करना। चार्कािकै समय करसुप इंका सुबर्थे चैस्य १६१-पूज़रहे पृजयतो बुद्धे यदि व सावके । पपञ्चसमतिक्रन्ते तिण्णसोकपरिद्दवे ॥ १७॥ (पुज़ाइन पूजयतो बुझान यदि घा भ्रावकान् । प्रपंचसमतिक्रान्तान् हौर्णशोकपढिवान् ॥ १७ ॥ ६६-ते तादिसे पूनथतो निवृते अकुतोभये । न स पुल्लं संखातुं इमेत्तम्पि केनचि ॥ १८ .
पृष्ठम्:धम्मपद (पाली-संस्कृतम्-हिन्दी).djvu/९९
दिखावट