पृष्ठम्:धम्मपद (पाली-संस्कृतम्-हिन्दी).djvu/९४

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| } सुबघा [ ८३ अनुवाद–जिसका बीता वैजीता नहीं किया जा सक़ता, जिसके जीते ( राग, कप, मह फिर ) नहीं लौटने, उस अषद (=स्थान रहित ), अनन्तगोचर (=अनन्तक देवनैवारें ) शुद्धको किस पथसे आप्त करोगे १ जिसकी जाल फैशनेवाली विष रूपीदृष्ण कहीं भी ठेने कायक नहीं रही; बस अषट् ० संकाय नगर देव, मनुष्य १८१ध्ये माणसुता वीरा नेवखम्सूपसमे रता । देवापि तेसं पियन्ति सम्बुद्धानं सतीमतं ॥३॥ (ये ध्यानमसिता धीरा नैष्कम्यंपशसे रताः। देवा अपि तेषां स्थूयन्ति स्मंसुद्धानां स्मृतिमताम् ॥३) अनुवाद—जो धीर ध्यानमै छ, विंष्कर्मता और उपशमने त हैं, इन स्थतिभान् (=सबैन ) छबी ठेवता भी स्पृहा (होड ) करते हैं। परकपा ( नागराज ) १८९/किच्चो मनुस्सपटिकाभो किच्चें मानं जीवितं । / किब्जं सद्धम्मसवर्ण किच्छ क्षुद्धनं उपावे ॥४॥ (छब्यूमनुष्यप्रतिलाभः कृष्छु' भयनां जीवितम्। अनुवाद--अनुष्य( योनि )का आस कठिन है, मनुष्यका जीवन ( मिलना ) कठिन , मुख धर्म सुननेको सिकना कठिन है युद्ध (=परम शाबियों )का जन्म कन है ।