पृष्ठम्:धम्मपद (पाली-संस्कृतम्-हिन्दी).djvu/४३

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३३२ ] धम्मपदं [५१२ (मष्विव मन्यते बाळ यावत् पापं न पश्यते । यदा च पच्यते पापं अथ दुश्खं निगच्छति ॥१०॥ अनुवाद –अझ ( जन ) जब तक पापका परिपाक नहीं होता, तय तक उसे मधुके समान जानता है। जय पापका परिपाक होता है, तो डूबी होता है। रावणंड (वेणुवन ) जम्मूक ( आजीवक साश्च ) ७०-मासे मासे कुसग्गेन वालो सुब्नेय भोजनं । न सो संतधम्मानं कर्ते अग्घति सोलसि ॥११॥ (मासे मासे कुशानेण बालको सुंजीत भोजनम् । न स संख्यातधर्माणं कलामति षोडशीम् ॥११) अनुवाद—यदि अश ( पुरुष ) कुली नौकसे महीने महीनेपर खाना , तो भी धर्मके जानकारीके सोलहवें भागके भी धराधर ( वह कुछ ) नहीं हो खकता। राजगृह ( वेणुवन ) अर्पित ७१–न हि पापं कतं कम्मं सन्तु ख 'व मुच्यति । डहन्तं बालमन्वेति भस्माच्चनो ‘व पावको ॥१२॥ (नहि पापं कृतं कर्म सद्यः क्षीरमिव मुंचति । दइल् बालमन्वेति भस्माच्छन्न इव पावकः ॥१श) अनुवाद--वै दृषकी भाँति क्रिया पाप कर्म( तुरन्त ) विकार गहीं आता, वह भस्मने ॐकी आगी भाँति दग्ध करता अञ्जनका पीछा करता है।