पृष्ठम्:धम्मपद (पाली-संस्कृतम्-हिन्दी).djvu/२९

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१८] धनपढ [ ३७ (पुरंगमं एकबरं ’ अशरीरं युइशयम्। ये चित्तं संयंस्यन्ति मुच्यन्ते मारबन्धनात् ॥५॥ अनुवाद-दूरगामी, अछा विचरनेवालेनिराफ़र , 'शुदायी ( इख ) चित्सक, जो संयम करेंगे, वही मारके यन्घनसे । शुरू होगे । आवली चिराइत्थ (गैर) ३८-श्रनवठितचित्तस्स सङ्गम्यं अविजानतो । पद्विषसादस्स पल्ला न परिपूरति ॥६॥ (अनवस्थितचितस्य सद्धर्मे अविजानतः। पश्विमदस्य प्रशा न परिपूर्यते ॥ ६ ॥ अनुवाद-जिसका चित्रा अवस्थित नहीं, जो खबै धर्मको नहीं जानता जिसका (बिल) प्रखताहीन है, ठ प्रश (=परम ज्ञान ) गहीं मिछ सकता। ३६-अनवस्सुतचित्तस्स अनन्वाहतचेतसो । पुब्लपापपहीणस्स नयि जागरतो भयं ॥७॥ (अनधनृतचित्तस्य अनन्वाहतचेतसः। पुण्यपापप्रहीणस्य नास्ति जाग्रतो भयम् ॥७॥ अनुवाद-कॅलिसका विल मछहित है, जिसका मन आक्रम्य है, जो पापघुष्यमबिहीन है, उस खतरा रहनेवाळे (पुरुष) कैछिये ! अय नहीं।