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पृष्ठम्:धम्मपद (पाली-संस्कृतम्-हिन्दी).djvu/२१०

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( ३९९ ) (=परम ज्ञानको प्राहिके लिये प्रयत्न न करके, याह्य आचार और अलोंसे कृतकृत्यता मानना ), 'मराग (=स्थूलशरीर धारियों के भोगेकी तृष्णा ), रुपराग (=प्रकाशमय शरीर धारिपोके भोगी तृष्णा ), अरूपराग (रूपरहित दैवताओंके भोगी तृष्ण), प्रतिध (=प्रतिहिंसा ), मान (=अभि मान ), औदश्य (=टबतपना ), और अविद्या । सम्बोजङ्ग (=सयोध्यंग )--स्मृति, घर्मोविचय ॥=धर्मपरीक्षा ), चीटी (टद्योग ), फीति, प्रधविध (=शाम्ति ), खसाधि, उपेक्षा । साभणेर (=आभोर -भिक्षु होनेक उम्मेद्वार बौद्ध साङजिसे सिञ्चसधने अभी उपसम्पद्य (=मिसुदीक्षासे वीक्षित ) गर्दा किया । सील (= )-इंखबिरति, सिध्यभापणचिरति, 'घोरीसे विरति व्यभिचारविशति, मादक द्रव्य सेवनविरति—यह पाँच शीळ (=सदाचार ) गृहस्थ और मिझ लोके समान हैं। अपराह्नभोजन त्या, नृत्य गीत त्याम, माका आदिके श्रृंगार का त्यागमहार्घ शय्याका त्याग, सथा सोने चाँदीका त्याग, यह पाँच कैवल भिक्षुओंके शक हैं । सेख (=शैौय )-अर्हव (=शुक) पढ़को नहीं प्राप्ती हुए, आर्य (=वषय, सकृदागासी, अनागामी ) भैक्ष्य कहे जाते हैं, क्योंकि वह क्षमी शिक्षणीय हैं । सोतापल (==स्रोतआपत्र )—आध्यात्मिक विकास करते जय प्राणी इस प्रकार मानसिक स्थितिमें पहुँच जाता है, कि, फिर वह नीचे नहीं गिर सकता और निरन्तर आगे ही बढ़ता