१८२] धम्मपदं [ २६३० अनुवाद—इस लोक और परछोकने विषयमें लिखी आभायें (=) महीं रहगई , जो आधारहित और आसक्रिरहित है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हैं । चतवन महामोग्गछन (येर) ४११-यालया न विजन्ति अध्याय अकथंकथा । अमतोगधं अनुप्पत्त तमहं कूमि ब्राह्मणं ॥२६॥ (यस्याऽऽळया न विद्यन्त आशयाऽकथंकथा । अमृतावगाधमनुप्तं तमहं ब्रवीमि ब्राह्मणम् ॥२९) अनुवाद–जिलको आछय (=तृण) नहीं है, जो भली प्रकार बामकर • अकथ(-षट् ) का कहनेवाला है, जिसने गाढे अछूतको पाकिया) उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ। आवस्ती ( पूवराम ) रैवत (थर) ११२-यो'ध पुब्मच पापश्च उभो सर्गे उपचगा। असोकं विरजं शुद्धं तमहं भूमि ब्राह्मणं ॥३० (य इह पुष्यं च पापं चोभयोः संगै उपात्यगात् । आशोकं विरजं शुद्धं तमहं ब्रवीमि भ्राह्मणम् ॥३०) अनुवाद-जिसने यहाँ पुण्य और पाप दोनोंकी आपूकिको छोड खिया, जो शोकरहित, निर्मल(और ) शुद्ध , ग्से मैं आक्षण कहता हूँ।
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