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पृष्ठम्:धम्मपद (पाली-संस्कृतम्-हिन्दी).djvu/१८२

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२६७ ॥ आवृणबगो [ १७१ अनुवादञ्जय श्रावण यो धर्मा (-चिरसंयम और भावना)में पारंगत

  • हो जाता है, तय उस जानकारले सभी संयोग (=बंधन )

अस्त हो जाते हैं। जतवन ३८५-यस पारं अपारं वा पारापारं न विन्जति । वीतहरं विससृतं तमहं बूमि ब्राह्मणम् ॥३॥ (यस्य पारं अपारं वा पारापारं न विद्यते । वीतदरं विसंयुकं तमहं ब्रवीमि ब्राह्मणम् ॥३॥ अनुवाद--जिसके पार (आँख, कान, नाक, जीभकथा, सन ), अपार (=रूप, शद, रस, रूपों, धर्म ) और पारापार (=वें और मेरा ) नहीं हैं, ( क ) निर्भय और अगस है, उसे मैं ग्रहण कहता हैं। बहबद ( कोई शाखण ) ३८६-फाणिं विरलमासीनं कतकिळवं अनासवं । उत्तमयं अनुप्पत्तं तमहं भूमि ब्राह्मणं ॥४॥ ( ध्यायिनं विरजसमासीनै कृतकृन्यं अनास्रवम् । उसमार्थमनुप्राप्त ‘ तमहं ब्रवीमि ब्राह्मणम् ॥em) अनुवाद-( जो ) ध्यानी, निर्भालआसमयङ (=स्थिर ), कृतकृदय आस्रव (=चित्तमछ)रहित है, जिसने उसक्ष अथै (=शव्य) को पा लिया है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हैं।