पृष्ठम्:धम्मपद (पाली-संस्कृतम्-हिन्दी).djvu/१७२

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२५५ } भिक्खुवगो [ १६१ अनुद्माद-कायाका संवर (=सँयम ) ठीक , ठीक है वचनका संवर मनका संवर ठीक है, ठीक है सचैत्र ( इन्द्रियों)का संवर; सर्वत्र संवरभ्युक भिक्षु सारे ङ खोसे छूट जाता है । ईसधातक (भिश्च ) ३६२-हत्यसब्बतो पावसज्जतो वाचाय सज्जतो सध्यतुत्तमो । अक्फतरते समाहितो एक सन्तुसितो तमाहु भिक्खू ॥३॥ (हस्तसंयतः पावसंयतो वाचा संयतः संयतोत्तमः । अध्यात्मरताः समाहित एका सन्तुष्टस्तमाहुभिक्षुम् ॥३) अनुवाद--जिसके हाथ, पैर और वचनमें संयम है, (जो) उत्तम संयमी है, जो घटके भीतर (=अप्यात्स ) रत, समाधियुत अशा (और ) सन्तुष्ट है, उले भिक्षु कहते हैं। जैतवन ३१३-यो भुखसंमतो मिक्खू मन्तभागी अनुद्धतो। अत्यं धम्मच दीपेति मधुरं तस्स मासितं ॥ ४॥ (यो भुखसंयतो भिऋमैत्रमाणी, अनुद्धतः । अर्थ धर्म व दीपयति मधुरं तस्य भाषितम् ॥७॥ ) अनुवाद-च्छ सुबमें संयम रखता है, मनन करने योकता है, उखत नहीं है, अर्थ और धर्मको प्रकट करता है, उसका भाषण मधुर होता है । अम्माराम (घेर) ३६ ४-थम्मारामो धर्मरतो धम्मं अनुविचिन्तयं । धर्मं अनुस्सरं मिक्खू सद्धम्मा न परिहयति ॥१॥ ११