१४] धम्मपदं [ १५७२ ( साधु दर्शनमार्याणां सन्निवासः सदा सुखः । अनेन बालानां नियमेघ सुखी स्यात् ॥१०) २०७बालसंगतिवारी हि दोघमज्ञानं सोचति । दुक्खो बालेहि संवासो अमित्तेनेव सर्वदा। ' घोरे च मुखसंवासो मातीनं 'ध समागमो ॥११॥ (बाळसंगतिचारी हि दीर्घमध्वानं शोचति। दुखो थालैः संवासोऽमित्रेणैव सर्वदा। घाश्व सुखसंवासो ज्ञातीनामिव स्समागमः ॥११) अनुवादश्चय (=शब्दुज्यो )का खर्शन सुन्दर है, सन्तोंके साथ निवास सदा सुखदायक होता है, के न दुर्लन होनैले ( मनुष्य ) सदा सुखी रहता है। सूखेकी सगतिमें रहने वाला दीर्घ काल तक शोक करता है, खोंका सद्वास शत्रुकी सरह सवा दुःखदायक होता है, पन्धुओके समागम की भाँति धी”का सहवास सुखद होता है । वैल्बणाम सक (देवराज ) २०८-तस्मा हि धीरं चपब्बञ्च बृहु-सुतं च घोरय्हीतं चतवन्तमरियं । तं तादिसं सप्पुरिसं सुमेधं भय नक्खत्तपथं 'व चन्दिमा ॥११॥ निर्वाणके पथपर अधिवळ रूपठे आरूढ़ स्रौघआप, सशुदागामी, अनागामी तथा निर्माण प्राप्त=अइंट बन चार प्रकारको धुर्को आर्य कहते हैं।
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