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पृष्ठम्:ताजिकनीलकण्ठी (महीधरकृतभाषाटीकासहिता).pdf/२३५

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भाषाटीकासमेता । (२२७ ) लग्नाधिपतिः सूर्य्यश्चंद्रः सप्तेशमुथशिलविधायी || सप्तेशे षष्ठस्थे तन्मरणं रोगिणो वाच्यम् ॥ ६ ॥ लग्नेश चतुर्थ हो तथा चन्द्रमा सप्तमसे मुथशिली हो वा सप्तमेश [ हो तो रोगीकी मृत्यु होगी ऐसा कहना ॥ ६ ॥ रंध्रेशे न विनष्टे नास्तमिते नापिकेन्द्रस्थे ॥ लग्नेशस्यमुथशिलेमृत्युःस्याद्रोगपृच्छायाम् ॥ ७ ॥ अष्टमेरा अस्त वा नष्ट बली होकर केंद्र में हो लग्नेशसे मुथंशिल करता हो तो रोगप्रश्नमें मृत्यु होगी कहना ॥ ७ ॥ अथवातयोञ्चकेन्द्रे सुथशिलतःक्रूरपीडितेमरणम् || यदिकेन्द्रे क्रूरग्रहस्तदापिपीडाष्टमेशेपि ॥ ८ ॥ जो लग्नेश अष्टमेशका केंद्र में मुथशिल हो क्रूर पीडितभी हो तो मृत्यु होवे जो केंद्र में पापग्रह वा अष्टमेश हो तो रोगपीडा होवे ॥ ८ ॥ सूर्य्यद्वादशभागे प्रविष्टेलग्नेश्वरेप्येवम् ॥ तनुमृत्युभावनाथावन्योन्याश्रयगतौमरणम् ॥ ९ ॥ लग्नेश सूर्ग्यके द्वादशांशमें हो तो मृत्यु होने वा लश्नेश अष्टम अष्टमेश लग्न वा परस्पर दृष्ट हों तौभी मृत्यु होवे ॥ ९ ॥ लग्नेचरेचरोगीक्षणेक्षणेस्यादरुक् सरुक्चापि ॥ द्विशरीरे पररोगः स्थिरैर्गदस्यैकरूपत्वम् ॥ १० ॥ लग्न चरराशि हो तो क्षणमें सुखा क्षणमें दुःखी होतारहै, द्विस्वभाव हो तो एकरोगसे दूसरा रोग होवे, स्थिर हो तो आद्य अंतमें एकही रोग रहै ॥ १० ॥ शशिनो वक्रमुथशिले स्थिररोगोमंदमुथशिलेपूर्वम् || मूत्रनिरोधाद्रोगोत्पत्तिज्ञेयाकृते ॥ ११ ॥ चन्द्रमा वक्री ग्रहसे मुथशिली हो तो रोग स्थिर रहै, शनिसे मुशिली हो तो अपूर्व रोग होने तथा मूत्रके बंद होनेसे रोगोत्पत्ति होवे ॥ ११ ॥ अथ पृच्छायाः पूर्वे सप्ताहानिच विलोक्यचत्वारि ॥ यदितेषुशशांकरवी भयुतदृष्टौसदाशस्तम् ॥ १२ ॥