भाषाटीका समेता । (९३ ) रोगसहमेश आप पापग्रह हो तथा पापग्रहोंसे युक्त वा दृष्ट हो तो वह रोगकर्ता जानना पुनः लग्नसे अष्टमभावेशसे इत्थशालीभी हो तो मृत्युकरे गा, इसमें हीनबल हो तो मृत्यु भी अतिकष्टसे होगी बलवान् होने में अल्प- से मृत्यु होगी, इसप्रकार कष्टाधिक्य की प्राप्ति होने में धर्मशास्त्रोक्त शांति करनी चाहिये जैसे उक्तभीहै कि "केशेषु शांविरुक्का ज्ञातव्या तत्र शास्त्रज्ञैः” इति ॥ ४३.॥ १८ ॥ उपजाः–स्वस्वामिसौम्येक्षणभाजिमांद्येनाथेस वीय्यैष्टपडेत्यवर्ज्यः ॥ रोगस्तदानैव भवेद्विमिश्रंयुतेक्षितेरुग्भयमस्तिकिंचित् ॥ ४४ ।। १९ ।। मांयसहम अपने स्वामी वा शुभग्रहों से युक्त वा दृष्ट पूर्वोक्त रीविसे हो और छठा आठवां बारहवां न हो तो रोग नहीं होगा सुखी रहेगा जो सौम्य पाप दोनहूंसे युक्त दृष्ट होतों स्वल्परोगभय होगा जो वह सहमेश वली होकर शुभ ग्रहंसे मुथशिलकारी होतो वाहनादिप्राप्ति भी होगी उपलक्षणसे रोग सहमेश का शुभग्रह मुथशिली भी ऐसाही होता है, यह रोग न होनेका योग सिद्ध होजावे तो समझना कि, पूरेतौर से रोग होगा क्योंकि पूर्व में लिख दिया है आचा- ने कि, “मान्यारिकलिमृत्यूनां व्यत्ययादादिशत्फ़लम्” ॥ ४४॥ १९ ॥ - शार्दूलवि० - अर्थाख्यंशुभनाथदृष्टिसहितंद्रव्यागमात्सौख्यदं पापैरृष्ट्युतंच वित्तविलयंकुर्य्यादथोपापयुक् ॥ संहृष्टंचशुभे- त्थशालियदितत्पूर्वधनंनाशयेत्पश्चादर्थसमुद्भवःचससुखंव्य- त्यासतोव्यत्ययः ॥ ४५ ॥ २० ॥ अर्थाख्यस हम स्वस्वामी वा शुभग्रहसे युक्त दृष्ट हो तो द्रव्यकी प्रति करके सुख देता है, जो पापग्रहों से युक्त दृष्ट हो तो द्रव्यका नाश करता है, शत्रुमहसे युक्त दृष्ट हो तो शत्रुसंबंधी कर्मसे धननाश होता है, जो पापयुक्त और शुभद्दष्ट भी हो और शुभग्रह के साथ इत्थशाली भी हो तो पूर्वसंचितद्रव्यका नाश करके पुनः अपने पुरुषार्थ से द्रव्यसंचय सुखसहित करता है, केवल पापयोग दृष्टि से सर्वथा धननाश करता है ॥ ४५ ॥ २० ॥