[ २५९ ब्रहौष इन्द्रः । स ब्रह्मा स शिवः सेन्द्रः सोऽक्षरः परमः स्वराट् । स एष विष्णुः स प्राणः स कालाग्निः स चंद्रमाः ।' इत्यादि वेद वाक्य विद्वान् ब्रह्मात्मा की हिरण्यगर्भरूपता को कहते हैं। हिरण्यगर्भ का ब्रह्मलोक है और कमल घर है। वह रजः प्रधान है और विधि उसका नाम है । सरस्वती के साथ उसका संसर्ग है और अनेक प्रकार के चित्र विचित्र जगत् के उत्पादन में वह तत्पर रहता है । मुभूमें यह कुछ भी नहीं फिर भी मैं हिरण्यगर्भ हूं यह बड़ा आश्चय है।॥३७॥ अब ब्रह्मवेत्ता अपनी विष्णुरूपता के भाव से गाता है उपेन्द्रवज्रा छन्द । अहं न मायी नच भोगिशायी न चक्रधारी न दशावतारी । न मे प्रपंचवः परि पालनीयस्तथापि विष्णुः प्रभविष्णुरस्मि ॥३८॥ मैं मायावाला नहीं हूं और न मैं शेष की शय्या करता हूं, मैं चक्र धारण करने वाला नही हूं, दश अवतार मैंने कभी भी धारण नहीं किये, मेरे लिये कोई प्रपंच पालन करने को नहीं है तो भी प्रसिद्ध जगदीश्वर विष्णु मैं हूं ॥३८॥ (श्रहमिति अहं न मायी) मैं शुद्ध चेतन रूप हूं माया वाला नहीं हूं (न च भोगिशायी) और न मैं शेषनाग की शय्या रखता हूँ अथवा अंत:करण शायी भी नहीं हूं (न चक्र धारी) मैं संसार चक्र को धारण करने वाला भी नहीं हूं (नच
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