प्रकरण २ श्लो० २१ [ १४१
देखता है और बोधरूप जाग्रत की प्राप्ति में अपने स्वरूप
से सब कामनाओं को प्राप्त हुआ मरण से रहित
होता है।॥२१॥
(एक एव पुरा बभूव ) सृष्टि की उत्पत्ति के पहिले सजा
तीय विजातीय वर्जित एक आत्मा ही था (न चापरं) और
कुछ भी न था अर्थात् प्रकृत आत्मासे विलक्षण कुछ भी और न
था इतने कहने से ‘आत्मा वा इदमेक एवाग्र आसीत् नान्यत्
किंचन मिषत्’ इस श्रुति वचनके अर्थ का संग्रह किया गया जान
लेना । (स किलाखिलं वीक्ष्य विश्वमिदं ससर्ज ) ‘यचाप्नोति
यदादते यचाचिविषयानिह । य चास्य संततो भावस्तस्मादात्मेति
कीत्र्यते ।।' इस स्मृति के अनुसार श्रात्मा ने सर्व जगत् को देख
करक ट्प्रथात् इस प्रकार इस जगत् का रचना चाहय इस प्रकार
माया से चिन्तन करके जगत् की रचना की । इतने कहने
से सृष्टिकर्ता आत्मा को चेतनरूपता दृढ़ की गई, क्योंकि ईक्षण
जड़ में असंभव है । उस रचना के पश्चात् (तनु प्रविश्य )
प्रत्यक् आत्मरूप से शरीर में प्रवेश करके वह ब्रह्मात्मा ही
( अवस्थात्रयं ) नेत्र कंठ हृद्य रूप तीनों स्थानरूप अर्थात् तीनों
जाप्रत् श्रादिक अवस्थारूप (स्वप्नम्) स्वप्न को (निरीक्षते)
देखता है । भाव यह है कि स्वप्न के सदृश ही उसकी तीनों
ऋअवस्था मिथ्या हैं । (सविचारतः) यह शरीरोपाधि वाला
आत्मा दैवगति से गुरु उपदिष्ट विचार द्वारा (प्रतिबुद्धवान् )
चिन्मात्र आत्म स्वरूप मैं हूँ, इस प्रकार के ज्ञान से जाग्रत्
अवस्था को प्राप्त होकर (आत्मनैव ) सब सुख को ब्रह्मानंद के
अन्तर्गत होने से स्वस्वरूप से ही (समस्तकामम्) सर्व काम
नाओं को अर्थात् सर्व ही सुखों को (प्राप्नुवन्) प्राप्त होता