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जगत् की सृष्टी से फिर शरीर आदिकों की सिद्धि होगी, शरीर
आदिकों की सिद्धि से फिर कर्म होंगे और कम से फिर ईश्वर
की प्रवृत्ति होगी। इस प्रकार चक्रवत् प्रावृत्ति होती रहेगी । यह
चक्रक दोष ईश्वर में आवेगा। इस दोष के दूर करने के लिये
यदि पूर्व २ सृष्टि में किये हुए कर्मो को मानोगे तो अनवस्था
दोष प्राप्त होगा । वहां प्रत्यक्ष सिद्ध बीज अंकुर की तरह यह
अनवस्था प्रमाण की नहीं है क्योंकि वहां कर्मो को ईश्वर की
प्रवृत्ति में हेतु मानकर फिर प्रधान की प्रवृत्ति में ईश्वर को हेतु
मानने से गौरव दोष प्राप्त होता है। इसलिये प्रधान और
परमाणुश्रों की प्रवृत्ति कम से ही है, ऐसा माने तो ईश्वर का
अंगीकार करना निष्फल है, इतनाही नहीं,ईश्वरको कम की अपेक्षा
स्वीकार करने पर माया शबलता भी तिन उक्तवादिश्रों के गले में
बलात्कार से आ गिरती है। क्योंकि अन्यथा अर्थात् पृथक् निमित्त
रूप ईश्वरकी कल्पना से विना ही, उपादान भूत माया शबल ब्रह्म
से ही जगत् की सिद्धि हो सकेगी, यह इसका भाव है।॥१९॥
सर्वज्ञः सर्वालिप्सुः सकलकृतियुतो नित्य
मीशो यदि स्यात् सर्वा' काय सदा स्यादुदंय
भृतिलया यौगपद्येन च स्युः । बाह्योपादान
वत्स्यात्तनुकरणधियां विश्व सलग व्यपेक्षा
निस्तर्क चानुमानं कृति रपि हि यतश्चेष्टयार्थ
विधत्ते ।॥२८।।
ईश्वर यादि नित्य, सर्वज्ञ, सृष्टि रचना करने की इच्छा
वाला तथा सब प्रयत्र साहित होगा तो सब कार्य सर्वदा होते