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पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/२५

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प्रकरण १ श्लो० १० [ १७ ज्ञान और कर्म को समकाल में ही मिल करके मुक्ति की कारणता नहीं है, क्योंकि कर्म का अधिकारी अन्य है और ज्ञान का अधिकारी अन्य है। इस बात को भी पूर्व उक्त उपहास जनक दृष्टांतकी तरह अब भी उपहासके साथ ही बतलाया जाता है । अर्थी दक्षो द्विजोहं बुध इति मति मान् कर्म सूक्तोऽधिकारी शान्तो दान्तः परित्राडुपरम परमो ब्रह्मविद्ययाऽधिकारी । इत्थं भेदे विवक्ष न्समुदितमुभयं मुक्ति हेतुं सुशीतं नीरं वैश्वा नरं चोभयमह तृषोच्छेद कामः पिबेत्सः ॥१०॥ धनकी इच्छा वाला, चतुर, ब्राह्मण आदि में हूं, पंडित मैं हूं, ऐसे अभिमान वाला कर्म करने का अधिकारी है और शमदमवाला तथा परम उपरामको प्राप्त हुआ संन्यासी ब्रह्मविद्या का अधिकारी है। इस प्रकार भेद होने पर भी जो ज्ञान कर्म दोनों को साथ २ मुक्ति का कारण माता है, हाय ! वह वैसा है जैसे प्यासा मनुष्य प्यास बुझाने के लिये शीतल जल के साथ अग्नि का एक साथ पान करता है ॥१०॥ (अर्थ ) गो सुवर्ण आदिक धन वाला और (दक्ष: ) सवः अंगों के सहित होने से तथा चतुर होने से किया में समथर द्विजोऽहम् ) में ब्राह्मण हूं, वा क्षत्रिय हूं, वा वेश्य हूं, २. स्वा. सि.