पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः (भागः ४).djvu/७३

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११६४ हृताद्यच्छेषं स द्युगणोऽहर्गणो भवति स गत निरपवर्त्तगुणभागहारयुतोऽनेकधा भवति । गतः प्राप्तो निरपवत्र्तेन येनापवत्र्तेन गुणसम्बन्धी यो भागहारस्तेनार्थाद् दृढभागहारेण युतोऽनेकधा भवतीति । अत्रोपपत्तिः । ‘क्षेपं विशुद्धि परिकल्प्य रूपं पृथक् तयोर्ये गुणकारलब्धी' इति भास्करविधिना स्फुटा ।। १२ ।। वि. भा.--यदि भगणशेषमिष्टं तदा कल्प भगणा गुणकारः । यदि च राशि शेषमिष्ट तदा द्वादशगुणाः कल्पभगणा गुणकारः । भागहरस्तु सदैव कल्पकुदिनानि ज्ञातव्यानि । एवं गुणकहाराभ्यां स्थिरं स्वकुट्टक विधाय स्वकुट्टकगुणात्-स्वभाग हारभक्तादिष्टभगणाद्विशेषाद्यच्छेषं सोऽहर्गणो भवति । निरपवत्र्तन गुणसम्बन्धी गतः (प्राप्तः) यो भागहारस्तेनार्थाद् दृढ़भागहारेण युतोऽनेकधा भवतीति ॥ भाज्य. गु-१ ल अत्र कुट्टकयुक्तया ये गुणलब्धी ते ऋणात्मकक्षेपे । ततः ऋणात्मकरूपक्षेपे यदि समागतगुणलब्धी तदेष्ट ऋणात्मकक्षेपे किं ये गुणलब्धी ते स्वहारभक्त तदा वास्तवगुणलब्धी भवेताम् । लीलावत्यां ‘क्षेपं विशुद्धि परिकल्प्य रूपं पृथक् तयोर्ये गुणकारलब्धी' इत्यादि भास्करोक्तमप्येतादृशमेव सर्वत्रैव भास्करोक्तौ यादृशीं विषयप्रतिपादने स्पष्टता न तादृशी-श्राचार्योक्ताविति अब स्थिर कुट्टक के लिये अहर्गण को कहते हैं । हेि. भा.-यदि भगण शेष इष्ट है तो कल्प भगण गुणकार होता है। यदि राशि शेष इष्ट है तो बारह गुणित कल्प भगण गुणकार होता है। भाग हार सदा कल्प कुदिन होता है। इस तरह गुणकार और भाग हार से स्थिर स्वकुट्टक करके स्वकुट्टक गुणित और स्वभाग हार से भक्त इष्ट भगणादि शेष से जो शेष हो वह अहर्गण होता है दृढ़ भाग हार को जोड़ने से अनेकधा होता है इति । भाज्य-*=ल । यहाँ कुट्टक नियम से जो गुणक और लब्धी आती है वे गु ऋणात्मक रूपक्षेप में । तब अनुपात करते हैं यदि ऋणात्मक रूपक्षेप में ये गुणक और लब्धि तौ इष्ट ऋणात्मक क्षेप में क्या इससे जो गुणक और लब्धी ही उन्हें अपने हर से भाग देने से वास्तव गुणक और लब्धि होती हैं। लीलावती में 'क्षेपं विशुद्धिं परिकल्प्य रूपं’ इत्यादि भास्करौक्त भी इसी तरह है इति ॥१२॥