पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः (भागः ४).djvu/३३

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( २४ ) केचित् प्रत्यक्षसूर्याच्च भिन्नोऽयमिति यद्वलात् । वदन्ति मूढवादस्याप्रामाण्यात्तदसद्ध्रुवम् ।। कमलाकर की इस उक्ति से स्वयं भगवान् सूर्य ही इस के रचयिता सिद्ध होते हैं । आश्चर्य तो इस बात का है कि ‘सूर्यसिद्धान्त में त्रिंशत्कृत्यो युगे भानां चक्र प्राक् परिलम्बते । तद्गुणाद्भूदिनैर्भक्ताद् द्युगणाद्यदवाप्यते । तद्दोस्त्रिध्ना दशाप्तांशा विज्ञेया अयनाभिधाः । तत्संस्कृताद् ग्रहात् क्रान्तिच्छायाचरदलादिकम् ।। आदि से अयांशानय किया गया है, परन्तु सूर्य सिद्धान्त के पश्चात् ब्रह्मस्फुट सिद्धान्त के रचयिता आचायं ब्रह्मगुप्त ने उसकी कोई चर्चा ही नहीं की । इस चर्चा न करने का कोई कारण भी समझ में नहीं आता है। सूर्यसिद्धान्त के उदयास्ताधिकार में “अभिजिद् ब्रह्म हृदयं स्वाती वैष्णव वासवाः ” इत्यादि से भगवान् सूर्य को सदोदित नक्षत्र बतलाया गया हैं। इस श्लोक की सुधार्वार्षिणीं टीका में जी देशज्ञानं बिना सदोदितनक्षत्राणां ज्ञानं न भवति, निरक्षे च सौम्य श्रवोऽप्य दृश्योऽतः केनचिदू गोलानभिज्ञेनायं श्लोक प्रक्षिप्त इति लिखा गया है, सो ठीक नहीं है । श्राद्यन्तकालयोर्मध्यः कालोज्ञ योऽतिदारुणः । प्रज्वलज्ज्वलनाकारः सर्वकर्मसु गर्हितः ।। यावदर्केन्द्वोर्मण्डलान्तरम् । सम्भवस्तावदेवास्य सर्वकर्म विनाशकृत् स्नानदानजपश्राद्धव्रतहोमादिकर्मभि प्राप्यते सुमहच्छयस्तत्कालज्ञानतस्तथा । इत्यादि से पातस्थितिकाल सब कमों का विनाशकारक कहा गया है। प्रातकाल में स्नान, दान, जप,श्राद्ध, ब्रत, होम आदि कायों से लोग कल्याण लाभ करते हैं। तथा-- रवीन्द्वोस्तुल्यता कान्त्योर्विषुवत्सन्निधौ यदा । द्विर्भवेद्धि तदा पातः स्यादभावो विपर्ययात् ।। से अपूर्व विषयों का प्रति पादन हुआ है । अर्थात् रविगोल-संधि सभीप में जब रवि और चन्द्र का क्रान्तिसाम्य हो तब अल्प समय में ही दो बार पात होता है । जब रवि की अयनसन्धि समीप में क्रान्ति साम्याभाव होता तब बहुत कालपर्यन्त क्रान्ति साभ्याभाव होता है, ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त में भी पालस्थिति काल फल सूर्य सिद्धान्त में कथित के अनु