( ११ ) यतो मितिः’ से भूव्यांस=१५८१, भू परिधि=४९६७ । यही बात ‘प्रोक्तो योजनसंख्या कुपरिधिः सप्ताङ्गनन्दाब्धयस्तद्व्यासः कुभुजङ्गसायकभुवः’ से भास्कराचार्य ने कही है । भास्कराचार्य ने बहुत से स्थलों में ब्रह्मगुप्त के मत का ही अनुसरण किया है । परन्तु ब्रह्मगुप्तोक्त त्रिज्या से भिन्न त्रिज्या स्वीकार करने में उनका क्या अभिप्राय है सो नहीं कह सकते हैं । ब्रह्मगुप्तोक्त भुजान्तर कर्म के अनुसार ही सिद्धान्तशेखर और सिद्धान्त शिरोमणि में भी कहा गया है। इसके अतिरिक्त ब्राह्मस्फुट सिद्धान्त के स्फुटगत्यध्याय में और भी अनेक विषय वणित हैं जो दर्शनीय और पढ़ने के योग्य हैं । त्रिप्रश्नाधिकार में रवि के मध्याह्न कालिक नतांश जान कर, उसके आधार पर रवि के आनयन के लिए पहले क्रान्तिज्या का ज्ञान होता है। तव त्रिप्रश्नाधिकार अनुपात से रवि के भुजांश का ज्ञान होता हैं । भुजांश से राश्यादि रवि का ज्ञान पदाधीन है। किसी भी प्राचीनाचार्य ने पदज्ञान के लिए विधि नहीं लिखी है । यहाँ प्राचार्य ने क्रान्तिव्यसार्धगुणा जिनभागज्याहृता धनुरजादौ कक्र्यादौ चक्राधत्प्रोह्य तुलादौ स चक्रार्धम् । चक्रार्धात् प्रोह्य मृगादौ स्फुटो सकृत् व्यस्तमृष्णं धन मध्यम् । अर्कोऽस्मात्’ इत्यादि से रवि का आनयन किया है । लेकिन यह सावित रवि किस पद का है इसके ज्ञान के लिए कोई युक्ति नहीं लिखी है। सिद्धान्तशेखर में श्रीपति ने ‘अजतुलादिगतस्य विवस्वतो दिनदल प्रभयोयुतिरधिता । भवति वैषुती निजदेशजेति से पलभा के मान का पता लगाकर आद्ये पदेऽपचयिनी पलभाऽल्पिका स्यात् छायाल्पिका भवति वृद्धिमती द्वितीये । छायादिका भवति वृद्धिमती ततीये तुर्ये पुनः क्षयवती तदनल्पिका च । वृद्धि प्रयान्ती यदि दक्षिणाग्रच्छाया तथापि प्रथमं पदं स्यात् । हासं ब्रजन्तीमथ तां विलोक्य रचेविजानीहि पदं द्वितीयम् ।। से गोल युक्ति िसद्ध पद का ज्ञान किया है यहाँ भास्कराचार्य ने कान्तिज्या त्रिज्याघ्नी जिनभागज्योद्धृता दोज्य । तद्धनुराद्ये चरणे वर्षस्यार्कः प्रजायतेऽन्येषु । भार्धाच्युतः सभाध भगणात्पतैितोऽब्द चरणानाम् । ऋतुचिह्नज्ञानं स्याहतु चिह्नान्यग्रतो वक्ष्ये ।
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