4}} सामध्वनिं यज्ञमूर्ति सृक्तुण्ड सृवनासिकम् । क्षीरसागरसङ्काशं किरीटोज्ज्वलिताननम् ।। १५ । श्रीवत्सवक्षसं शुभ्र यज्ञसूत्रविराजितम् । कौस्तुभश्रीसमुद्योतं समुन्नतमहोरसम् ।। १६ ।। जाम्बूनदमयैर्दिव्यैः सुरत्नाभरणैर्युतम् विद्युन्मालापरिक्षिप्तशरन्मेषमिवोज्वलम् ।। १७ ।। वामपादतलाक्रान्तपादपीठविराजितम । कटकाङ्गदकेयूरकुण्डलोज्ज्वलितं सदा ।। १८ ।। चतुमुखवासष्ठात्रमाकण्डयमुनाश्वरः । भृग्वादिभिरनेकैश्च सेव्यमानमहर्निशम् ।। १९ ।। इन्द्रादिलोकपालैश्च गन्धर्वाप्सरसां गणैः । सावत देवदत्रश प्रणिपत्याभिगम्य च ।। २० ।। दिव्यैरुपनिषद्भागैराभिष्ट्रय धराधरम् । नारदः परमप्रीतः स्थितो देवस्य सन्निधौ ।। २१ ।। उस (वेदी) के बीच में बहुत ऊँचे आठ पादों से सुशीभित, मुक्तामाला से समाकीर्ण, दिन को शोभा देनेवाला दिटय सिंहासन के बीच में सहस्रदल कमलों से सुशोभित, दिव्य कमलों एवं हजारों चन्द्रमा की प्रभासदृण् उज्वल, कर्णिका के केसर के समान उज्वल, दिव्य श्वेतपुष्कर के तथा उसके मध्य करोडों पूर्णचन्द्र की प्रभावाले कैलासपर्वताकर, सुन्दर, पुरुषाकृति, परमपुरुषोत्तम, शंख चक्र अभय तथा वर आदि धारण किये, पीताम्बर पहने पुण्डरीक के समान बड़े-बड़े आंखवाले पूर्णेन्दु के समान सुन्दर वदनवाले तथा क्या (अर्तडी) की सुगन्धि से सुगन्धित मुखारविन्दयुक्त सामध्वनि से युक्त, यज्ञ मूर्ति, सृक् के समान मुखवाले, सूव के समान सुन्दर नासिकायुक्त क्षीरसागर के समान किरीट की प्रभाव से प्रकाशित उज्वल सुखवाले, वक्षस्थल पर श्रीवत्स से शोभित, परमपवित्र, यज्ञ सत्रविराजित