पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/२६६

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248 कौस्तुभ की रमणीय सौन्दर्य से उद्दिप्त एवं उन्नत छातीवाले स्वर्णमय दिव्य सद्रत्नों के आभरण युक्त विद्युन्माला से परिक्षिप्त, शरत्कालीन मेध के समान उज्ज्वल, बायें पैर के नीचे स्वर्ण पीढ (पीढा) से िवराजित, कडा, वलवा, वीजायाष्ठ तथा कुण्डल आदि से सुशोभित एवं चतुर्मुख, वशिष्ठ, अत्रि, मार्कण्डेय, भृगु आदि अनेकों मुनीश्वरों इन्द्रादि लोकपाल, गन्धर्व एवं अप्सरागण से अनिश सेवित देवाधिदेव भगवान के अत्यन्त निकट जाकर, प्रणिपात कर, पृथ्वी को धारण करनेवाले वराह परमात्मा की दिव्य उपनिषदों से स्तुति कर, परम प्रसन्न होकर भगवान के निकट ही नारद जी खड़े हो गये । (१०-२१) वराहसन्निधि प्रति धरण्यागमनम् एतस्मिन्नन्तरे चाभूद्दिव्यदुन्दुभिनिस्वनः । ततस्समागता देवी धरणी सखिसंयुता ।। २२ ।। सरत्नसागराकारदिव्याम्बरसमुज्ज्वल सुमेरुमन्दराकारस्तनभारावनामिता ।। २३ ।। नवदूर्वादलश्यामा सर्वाभरणभूषिता इलया वै पिंगलया सखीभ्यां च समन्विता ।। २४ ।। ततस्ताभ्यां समानीतं पुष्पाणां निचयं मही । श्रीमद्वराहदेवस्य पादमूले विकीर्य च ।। २५ ।। प्रणम्य देवदेवेशं कृताञ्जलिपुटा स्थिता । तां देवीं श्रीवराहोऽपि ह्यालिग्याङ्के निधाय च । पप्रच्छ कुशलं पृथ्वीं प्रीतिप्रवणमानसः ।। २६ ।। इसी समय देवताओं के नगडि का शब्द सुनायी पडा और उसी समय रत्न सागराकर दिव्य कपड़ों से सुशोभित, सुमेरु तथा मन्द्रायल पर्वत के समान स्तर भार से झुकी हुई, नवचूर्वदल के समान श्यामवर्णवाली, सर्वाभरणभूषिता पृथ्वीदेवी