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श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः १०/पूर्वार्धः/अध्यायः ४५

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स्कन्धः १०, पूर्वार्धः, अध्यायः ४५
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वसुदेवदेवकी सान्त्वनम्; उग्रसेनस्य राज्याभिषेकः; रामकृष्णयोरुपनयनं विद्याध्ययनं, गुरुर्मृतपुत्रस्यानयनं च -

अथ पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः।
श्रीशुक उवाच।
पितरावुपलब्धार्थौ विदित्वा पुरुषोत्तमः।
मा भूदिति निजां मायां ततान जनमोहिनीम् १।
उवाच पितरावेत्य साग्रजः सात्वर्षभः।
प्रश्रयावनतः प्रीणन्नम्ब तातेति सादरम् २।
नास्मत्तो युवयोस्तात नित्योत्कण्ठितयोरपि।
बाल्यपौगण्डकैशोराः पुत्राभ्यामभवन्क्वचित् ३।
न लब्धो दैवहतयोर्वासो नौ भवदन्तिके।
यां बालाः पितृगेहस्था विन्दन्ते लालिता मुदम् ४।
सर्वार्थसम्भवो देहो जनितः पोषितो यतः।
न तयोर्याति निर्वेशं पित्रोर्मर्त्यः शतायुषा ५।
यस्तयोरात्मजः कल्प आत्मना च धनेन च।
वृत्तिं न दद्यात्तं प्रेत्य स्वमांसं खादयन्ति हि ६।
मातरं पितरं वृद्धं भार्यां साध्वीं सुतं शिशुम्।
गुरुं विप्रं प्रपन्नं च कल्पोऽबिभ्रच्छ्वसन्मृतः ७।
तन्नावकल्पयोः कंसान्नित्यमुद्विग्नचेतसोः।
मोघमेते व्यतिक्रान्ता दिवसा वामनर्चतोः ८।
तत्क्षन्तुमर्हथस्तात मातर्नौ परतन्त्रयोः।
अकुर्वतोर्वां शुश्रूषां क्लिष्टयोर्दुर्हृदा भृशम् ९।
श्रीशुक उवाच।
इति मायामनुष्यस्य हरेर्विश्वात्मनो गिरा।
मोहितावङ्कमारोप्य परिष्वज्यापतुर्मुदम् १०।
सिञ्चन्तावश्रुधाराभिः स्नेहपाशेन चावृतौ।
न किञ्चिदूचतू राजन्बाष्पकण्ठौ विमोहितौ ११।
एवमाश्वास्य पितरौ भगवान्देवकीसुतः।
मातामहं तूग्रसेनं यदूनामकरोन्नृपम् १२।
आह चास्मान्महाराज प्रजाश्चाज्ञप्तुमर्हसि।
ययातिशापाद्यदुभिर्नासितव्यं नृपासने १३।
मयि भृत्य उपासीने भवतो विबुधादयः।
बलिं हरन्त्यवनताः किमुतान्ये नराधिपाः १४।
सर्वान्स्वान्ज्ञातिसम्बन्धान्दिग्भ्यः कंसभयाकुलान्।
यदुवृष्ण्यन्धकमधु दाशार्हकुकुरादिकान् १५।
सभाजितान्समाश्वास्य विदेशावासकर्शितान्।
न्यवासयत्स्वगेहेषु वित्तैः सन्तर्प्य विश्वकृत् १६।
कृष्णसङ्कर्षणभुजैर्गुप्ता लब्धमनोरथाः।
गृहेषु रेमिरे सिद्धाः कृष्णरामगतज्वराः १७।
वीक्षन्तोऽहरहः प्रीता मुकुन्दवदनाम्बुजम्।
नित्यं प्रमुदितं श्रीमत्सदयस्मितवीक्षणम् १८।
तत्र प्रवयसोऽप्यासन्युवानोऽतिबलौजसः।
पिबन्तोऽक्षैर्मुकुन्दस्य मुखाम्बुजसुधां मुहुः १९।
अथ नन्दं समसाद्य भगवान्देवकीसुतः।
सङ्कर्षणश्च राजेन्द्र परिष्वज्येदमूचतुः २०।
पितर्युवाभ्यां स्निग्धाभ्यां पोषितौ लालितौ भृशम्।
पित्रोरभ्यधिका प्रीतिरात्मजेष्वात्मनोऽपि हि २१।
स पिता सा च जननी यौ पुष्णीतां स्वपुत्रवत्।
शिशून्बन्धुभिरुत्सृष्टानकल्पैः पोषरक्षणे २२।
यात यूयं व्रजं तात वयं च स्नेहदुःखितान्।
ज्ञातीन्वो द्रष्टुमेष्यामो विधाय सुहृदां सुखम् २३।
एवं सान्त्वय्य भगवान्नन्दं सव्रजमच्युतः।
वासोऽलङ्कारकुप्याद्यैरर्हयामास सादरम् २४।
इत्युक्तस्तौ परिष्वज्य नन्दः प्रणयविह्वलः।
पूरयन्नश्रुभिर्नेत्रे सह गोपैर्व्रजं ययौ २५।
अथ शूरसुतो राजन्पुत्रयोः समकारयत्।
पुरोधसा ब्राह्मणैश्च यथावद्द्विजसंस्कृतिम् २६।
तेभ्योऽदाद्दक्षिणा गावो रुक्ममालाः स्वलङ्कृताः।
स्वलङ्कृतेभ्यः सम्पूज्य सवत्साः क्षौममालिनीः २७।
याः कृष्णरामजन्मर्क्षे मनोदत्ता महामतिः।
ताश्चाददादनुस्मृत्य कंसेनाधर्मतो हृताः २८।
ततश्च लब्धसंस्कारौ द्विजत्वं प्राप्य सुव्रतौ।
गर्गाद्यदुकुलाचार्याद्गायत्रं व्रतमास्थितौ २९।
प्रभवौ सर्वविद्यानां सर्वज्ञौ जगदीश्वरौ।
नान्यसिद्धामलं ज्ञानं गूहमानौ नरेहितैः ३०।
अथो गुरुकुले वासमिच्छन्तावुपजग्मतुः।
काश्यं सान्दीपनिं नाम ह्यवन्तिपुरवासिनम् ३१।
यथोपसाद्य तौ दान्तौ गुरौ वृत्तिमनिन्दिताम्।
ग्राहयन्तावुपेतौ स्म भक्त्या देवमिवादृतौ ३२।
तयोर्द्विजवरस्तुष्टः शुद्धभावानुवृत्तिभिः।
प्रोवाच वेदानखिलान् साङ्गोपनिषदो गुरुः ३३।
सरहस्यं धनुर्वेदं धर्मान्न्यायपथांस्तथा।
तथा चान्वीक्षिकीं विद्यां राजनीतिं च षड्विधाम् ३४।
सर्वं नरवरश्रेष्ठौ सर्वविद्याप्रवर्तकौ।
सकृन्निगदमात्रेण तौ सञ्जगृहतुर्नृप ३५।
अहोरात्रैश्चतुःषष्ट्या संयत्तौ तावतीः कलाः*।
गुरुदक्षिणयाचार्यं छन्दयामासतुर्नृप ३६।
द्विजस्तयोस्तं महिमानमद्भुतं
संलक्ष्य राजन्नतिमानुषीं मतिम्।
सम्मन्त्र्य पत्न्या स महार्णवे मृतं
बालं प्रभासे वरयां बभूव ह ३७।
तथेत्यथारुह्य महारथौ रथं
प्रभासमासाद्य दुरन्तविक्रमौ।
वेलामुपव्रज्य निषीदतुः क्षणं
सिन्धुर्विदित्वार्हणमाहरत्तयोः ३८।
तमाह भगवानाशु गुरुपुत्रः प्रदीयताम्।
योऽसाविह त्वया ग्रस्तो बालको महतोर्मिणा ३९।
श्रीसमुद्र उवाच।
न चाहार्षमहं देव दैत्यः पञ्चजनो महान्।
अन्तर्जलचरः कृष्ण शङ्खरूपधरोऽसुरः ४०।
आस्ते तेनाहृतो नूनं तच्छ्रुत्वा सत्वरं प्रभुः।
जलमाविश्य तं हत्वा नापश्यदुदरेऽर्भकम् ४१।
तदङ्गप्रभवं शङ्खमादाय रथमागमत्।
ततः संयमनीं नाम यमस्य दयितां पुरीम् ४२।
गत्वा जनार्दनः शङ्खं प्रदध्मौ सहलायुधः।
शङ्खनिर्ह्रादमाकर्ण्य प्रजासंयमनो यमः ४३।
तयोः सपर्यां महतीं चक्रे भक्त्युपबृंहिताम्।
उवाचावनतः कृष्णं सर्वभूताशयालयम् ।
लीलामनुष्ययोर्विष्णो युवयोः करवाम किम् ४४।
श्रीभगवानुवाच।
गुरुपुत्रमिहानीतं निजकर्मनिबन्धनम्।
आनयस्व महाराज मच्छासनपुरस्कृतः ४५।
तथेति तेनोपानीतं गुरुपुत्रं यदूत्तमौ।
दत्त्वा स्वगुरवे भूयो वृणीष्वेति तमूचतुः ४६।
श्रीगुरुरुवाच।
सम्यक्सम्पादितो वत्स भवद्भ्यां गुरुनिष्क्रयः।
को नु युष्मद्विधगुरोः कामानामवशिष्यते ४७।
गच्छतं स्वगृहं वीरौ कीर्तिर्वामस्तु पावनी।
छन्दांस्ययातयामानि भवन्त्विह परत्र च ४८।
गुरुणैवमनुज्ञातौ रथेनानिलरंहसा।
आयातौ स्वपुरं तात पर्जन्यनिनदेन वै ४९।
समनन्दन्प्रजाः सर्वा दृष्ट्वा रामजनार्दनौ।
अपश्यन्त्यो बह्वहानि नष्टलब्धधना इव ५०।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे गुरुपुत्रानयनं नाम पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः।

टिप्पणी

अयं नेता सुरम्यांगः सर्वसल्लक्षणान्वितः ।
रुचिरस्तेजसा युक्तो बलीयान् वयसान्वितः ।।२३।।
विविधाद्भुतभाषावित् सत्यवाक्यः प्रियंवदः।।
वावदूकः सुपाण्डित्यो बुद्धिमान् प्रतिभाऽन्वितः ।।२४।।
विदग्धश्चतुरो दक्षः कृतज्ञः सुदृढव्रतः।।
देशकालसुपात्रज्ञः शास्त्रचक्षुः शुचिर्वशी ।।२५।।
स्थिरो दान्तः क्षमाशीलो गम्भीरो धृतिमान् समः ।
वदान्यो धार्मिकः शूरः करुणो मान्यमानकृत् ।।२६।।
दक्षिणो विनयी ह्रीमान् शरणागतपालकः ।
सुखी भक्तसुहृत् प्रेमवश्यः सर्वशुभंकरः ।।२७।।
प्रतापी कीर्तिमान् रक्तलोक: साधुसमाश्रयः । |
नारीगणमनोहारी सर्वाराध्यः समृद्धिमान् ।।२८ ।।
वरीयानीश्वरश्चेति गुणास्तस्यानुकीर्तिताः ।।
समुद्रा इव पञ्चाशद् दुर्विगाहा हरेरमी। २६ ।।

यह नायक श्रीकृष्ण-(१) सुरम्यांगअर्थात् इनका अंगसन्निवेश अत्यन्त रमणीय है; (२) यह सर्वसल्लक्षणयुक्त हैं; (३) रुचिर- अर्थात् इनकी सुन्दरता नेत्रों को आनन्द देने वाली है; (8) तेजसान्वित- अर्थात् या तेज राशि तथा अतिशय प्रभावयुक्त हैं; (५) बलीयान्-अतिशय बलयुक्त हैं; (६) वयसान्वित-नानाविध विलासमय नवकिशोरावस्थायुक्त हैं।।23।। कृष्ण (७) विविध अद्भुत भाषावित्–नानादेशीय भाषाओं के सुपण्डित हैं, (८) सत्यवाक्य-उनके वचन कभी मिथ्या नहीं होते। (6) प्रियंवद-अपराधी के प्रति भी प्रिय वाक्य बोलने वाले हैं; (१०) वावदूक्—उनके वाक्य कानों को प्रिय हैं एवं वे रसभावादियुक्त हैं; (११) सुपाण्डित्य-वे विद्वान् एवं नीतिज्ञ हैं; (१२) बुद्धिमान्मेधावी एवं सूक्ष्म-बुद्धि हैं; (१३) प्रतिभान्वितनवनवोल्लेखि ज्ञानयुक्त हैं तथा नूतन-नूतन विषय के उद्भावन में समर्थ हैं; (१४) विदग्ध-चौंसठ विद्याओं एवं विलासादि में निपुण हैं; (१५) चतुर–एक ही समय में अनेक कार्य साधन करने वाले हैं; (१६) दक्ष-दुष्कर कार्यों को भी अति शीघ्र सम्पादन करने वाले हैं; (१७) कृतज्ञ-दूसरे के द्वारा की हुई सेवा को जानने वाले हैं; (१८) सुदृढ़व्रत-उनकी प्रतिज्ञा एवं नियम सदा सत्य होते हैं; (१६) देशकाल सुपात्रज्ञ-देश-काल-पात्रानुसार कार्य करने में निपुण हैं; (२०) शास्त्रचक्षु-वे शास्त्रानुसार कार्य करने वाले हैं; (२१) शुचि-पापनाशक एवं दोषरहित हैं; (२२) वशी-जितेन्द्रिय हैं; (२३) स्थिर-फलोदय न देखकर कार्य से निवृत्त होने वाले नहीं हैं; (२४) दान्त-दुःसह होते हुए भी उपयुक्त क्लेश सहन करने वाले हैं; (२५) क्षमाशील-दूसरों के अपराध क्षमा करने वाले हैं; (२६) गम्भीर—उनका अभिप्राय दूसरों के पक्ष में दुर्बोध हैं; (२७) धृतिमान्–क्षोभ का तीव्र कारण होते हुए भी वे क्षोभशून्य हैं; (२८) सम–रागद्वेषशून्य हैं; (२९) वदान्य—दानवीर हैं; (३०) धार्मिक वे स्वयं धर्म का आचरण कर दूसरों को भी धर्माचरण कराने वाले हैं; (३१) शूर-युद्ध के उत्साही तथा अस्त्र प्रयोग में निपुण हैं; (३२) करुण-वे दूसरे का दु:ख सहन नहीं कर सकते; (३३) मान्यमानकृत्-गुरु, ब्राह्मण एवं वृद्धजनों का सम्मान करने वाले हैं; (३४) दक्षिण–सुस्वभाववश कोमल चित्त हैं; (३५) विनयी-उद्धताशून्य हैं; (३६) हीमान–दूसरों के द्वारा स्तुत्य होने पर संकुचित होने वाले हैं; (३७) शरणागत पालक-शरण में आये हुए का पालन करते हैं; (३८) सुखी–वे सुख-भोग करने वाले हैं एवं उन्हें दुःख की गन्धमात्र भी स्पर्श नहीं करती; (३६) भक्त–सुहृद्-सुसेव्य एवं बन्धुभेद से वे दो प्रकार से भक्तसुहृद् हैं। चुल्लू भर जल एवं तुलसीदल अर्पण करने वाले भक्तों को श्रीकृष्ण आत्म-समर्पण करने वाले हैं, यह उनका सुसेव्यत्व है। अपनी प्रतिज्ञा को भंग करके भी श्रीकृष्ण भक्तों की प्रतिज्ञा की रक्षा करते हैं-यह उनका दास-बन्धुत्व है। (४०) प्रेमवशीभूत; (४१) सर्वशुभंकर सबके मंगलकारी हैं; (४२) प्रतापी–वे अपने प्रभाव से शत्रु को ताप देने में प्रसिद्ध हैं; (४३) कीर्तिमान् वे निर्मल यश राशि में विख्यात हैं; (४४) रक्तलोक-वे समस्त लोकों के अनुराग के पात्र हैं; (४५) साधुसमाश्रय–साधु भक्तों के प्रति विशेष कृपा के कारण उनका वे पक्षपात करने वाले हैं; (४६) नारीगण-मनोहारी-सौन्दर्य, माधुर्य, वैदग्ध्यादि के द्वारा वे रमणीवृन्द का चित्त हरने वाले हैं; (४७) सर्वाराध्य सभी के आराध्य हैं; (४८) समृद्धिमान् वे अत्यन्त सम्पत्शाली हैं; (४६) वरीयान्-वे ब्रह्मा, शिवादि से भी श्रेष्ठ हैं; (५०) ईश्वर–वे स्वतन्त्र, अन्यनिरपेक्ष हैं तथा उनकी आज्ञा दुर्लङ्घ्य है; ये पचास गुण श्रीकृष्ण में समुद्रवत् असीम-रूप से नित्य विराजमान रहते हैं।।२४-२६ ।।

श्रीसूक्तम्14

श्रीकृष्ण के अनन्त गुण हैं, उनमें चौंसठ गुण विशेषरूप से श्रीगोस्वामिपाद ने निरूपण किये हैं; जिनमें से यहाँ पहले पचास गुणों का वर्णन किया गया है। उपर्युक्त कारिका में छ: गुण कहे गये हैं। । श्रीकृष्ण के शारीरिक सल्लक्षण भी दो प्रकार के हैं—१. गुणोत्थ तथा २. अंगोत्थ। लालिमा, गुणोत्थ-सल्लक्षण हैं। उनमें नेत्रान्त, पादतल, करतल, तालु अधरोष्ठ, जिह्वा तथा नख-इन सात स्थानों पर लालिमा है। वक्ष, स्कन्ध, नख, नासिका, कटि एवं वदन-इन छः स्थानों पर तुंगता-उच्चता है। कटि, ललाट एवं वक्षःस्थल-इन तीनों पर विशालता है। ग्रीवा, जंघा एवं मेहन-इन तीन स्थानों पर गम्भीरता है। नासिका, भुज, नेत्र, हनु तथा जानु-इन पाचों पर दीर्घता है। त्वक्, केश, लोम, दन्त एवं अंगुलियों के पोटे-इन पर सूक्ष्मता है। नाभि, स्वर एवं बुद्धि-इन तीनों में गभीरता है; ये बत्तीस सल्लक्षण गुणोत्थ हैं।

करतल एवं पदतलों में जो रेखामय चक्रादि चिह्न हैं, उन्हें ‘अंकोत्थ-सल्लक्षण कहा जाता है। श्रीकृष्ण के वामचरण में शंख, आकाश, ज्या-हीन धनुष, गोष्पद, त्रिकोण, चार कलश, अर्द्धचन्द्र एवं मत्स्य के चिह्न हैं। दक्षिणपद में चक्र, ध्वजा, अंकुश, वज्र, यव, ऊर्ध्वरेखा, छत्र, चार स्वास्तिक, जम्बुफल एवं अष्टकोण के चिह्न हैं। इसी प्रकार उनके दाहिने हाथ में परमायु रेखा, सौभाग्य रेखा, भोग रेखा एवं पांच अंगुलियों के पुरों पर पांच शंख, जौ, चक्र, गदा, ध्वजा, तलवार, बरछी, अंकुश, कल्पवृक्ष तथा बाण के चिह्न हैं। बायें हाथ में परमायु, सौभाग्य एवं भोग रेखाएँ, नन्द्यावर्त, कमल तथा छत्र, हल, यूप, स्वास्तिक, प्रत्यञ्चारहित धनुष, अर्द्धचन्द्र तथा मत्स्य के चिह्न हैं-ये सब् श्रीकृष्ण में अंकोत्थ-गुण हैं।।२३।। - भक्तिरसामृतसिन्धु(दक्षिणविभाग, प्रथमलहरी), टीका - श्रीश्यामदास(प्रकाशक - श्रीहरिनाम संकीर्तन मण्डल, वृन्दावन)

६४ कला-१
६४ कला - २
६४ कला- ३
६४ कला- ४

    अथ शैवतन्त्रोक्ताश्चतुःषष्टिकला लिख्यन्ते (शब्दकल्पद्रुमः) ।


गीतम् १
वाद्यम् २
नृत्यम् ३
नाट्यम् ४
आलेख्यम् ५
विशेषकच्छेद्यम् ६
तण्डुलकुसुमबलिविकाराः ७
पुष्पास्तरणम् ८
दशनवसनाङ्गरागाः ९
मणिभूमिकाकर्म्म १०
शयनरचनम् ११
उदकवाद्यम् १२
उदकघातः १३
चित्रायोगाः १४
माल्यग्रथनविकल्पाः १५
शेखरापीडयोजनम् १६
नेपथ्ययोगाः १७
कर्णपत्रभङ्गाः १८
गन्धयुक्तिः १९
भूषणयोजनम् २०







ऐन्द्रजालम् २१
कौचुमारयोगाः २२
हस्तलाघवम् २३
चित्रशाकपूपभक्ष्यविकारक्रिया २४
पानकरसरागासवयोजनम् २५
 




सूचीवापकर्म्माणि २६
सूत्रक्रीडा २७
प्रहेलिका २८
प्रतिमाला २९
दुर्व्वचकयोगाः ३०







पुस्तकवाचनम् ३१
नाटिकाख्यायिकादर्शनम् ३२
काव्यसमस्यापूरणम् ३३
पट्टिकावेत्रवाणविकल्पाः ३४
तर्कुकर्म्माणि ३५





तक्षणम् ३६
वास्तुविद्या ३७
रूप्यरत्नपरीक्षा ३८
धातुवादः ३९
मणिरागज्ञानम् ४०





आकरज्ञानम् ४१
वृक्षायुर्व्वेदयोगाः ४२
मेषकुक्कुटलावकयुद्धविधिः ४३
शुकशारिकाप्रलापनम् ४४
उत्सादनम् ४५





केशमार्जनकौशलम् ४६
अक्षरमुष्टिकाकथनम् ४७
म्लेच्छितकविकल्पाः ४८
देशभाषाज्ञानम् ४९
पुष्पशकटिकानिमित्तज्ञानम् ५०



यन्त्रमातृका ५१
धारणमातृका ५२
सम्पाट्यम् ५३
मानसीकाव्यक्रिया ५४
क्रियाविकल्पाः ५५



छलितकयोगाः ५६
अभिधानकोषच्छन्दोज्ञानम् ५७
वस्त्रगोपनानि ५८
द्यूतविशेषः ५९
आकर्षक्रीडा ६०



बालकक्रीडनकानि ६१
वैनायिकीनां विद्यानां ज्ञानम् ६२
वैजयिकीनां विद्यानां ज्ञानम् ६३
वैतालिकीनां विद्यानां ज्ञानम् ६४ ।
 
इति श्रीभागवतटीकायां श्रीधरस्वामी ॥
क्वचित् पुस्तके सूचीवापकर्म्मसूत्रक्रीडा(२६) इत्येकं पदं तदुत्तरं वीणाडमरुकवाद्यानि, वैतालिकीनामित्यत्र(६४) वैयासिकीनामिति च पाठः ॥


  • चौंसठ कलाएँ ये हैं

१ गानविद्या,
२ वाद्य-भाँति-भाँति के बाजे बजाना,
३ नृत्य,
४ नाट्य,
५ चित्रकारी,
६ बेल-बूटे बनाना,
७ चावल और पुष्पादि से पूजा के उपहार की रचना करना,
८ फूलोंकी सेज बनाना,
९ दाँत, वस्त्र और अङ्गों को रँगना,
१० मणियों की फर्श बनाना,
११ शय्या-रचना,
१२ जलको बाँध देना,
१३ विचित्र सिद्धियाँ दिखलाना,
१४ हार-माला आदि बनाना,
१५ कान और चोटी के फूलों के गहने बनाना,
१६ कपड़े और गहने बनाना,
१७ फूलों के आभूषणों से शृङ्गार करना,
१८ कानों के पत्तों की रचना करना,
१९ सुगन्धित वस्तुएँ—इत्र, तैल आदि बनाना,
२० इन्द्रजाल-जादूगरी,
२१ चाहे जैसा वेष धारण कर लेना,
२२ हाथ की फुर्ती के काम,
२३ तरह-तरह की खाने की वस्तुएँ बनाना,
२४ तरह-तरह के पीने के पदार्थ बनाना,
२५ सूई का काम,
२६ कठपुतली बनाना, नचाना,
२७ पहेली,
२८ प्रतिमा आदि बनाना,
२९ कूटनीति,
३० ग्रन्थों के पढ़ाने की चातुरी,
३१ नाटक, आख्यायिका आदि की रचना करना,
३२ समस्यापूर्ति करना,
३३ पट्टी, बेंत, बाण आदि बनाना,
३४ गलीचे, दरी आदि बनाना,
३५ बढ़ई की कारीगरी,
३६ गृह आदि बनाने की कारीगरी,
३७ सोने, चाँदी आदि धातु तथा हीरे-पन्ने आदि रत्नों की परीक्षा,
३८ सोना-चाँदी आदि बना लेना,
३९ मणियों के रंग को पहचानना,
४० खानों की पहचान,
४१ वृक्षों की चिकित्सा,
४२ भेड़ा मुर्गा, बटेर आदि को लड़ाने की रीति,
४३ तोता-मैना आदि की बोलियाँ बोलना,
४४ उच्चाटन की विधि,
४५ केशों की सफाई का कौशल,
४६ मुट्ठी की चीज या मन की बात बता देना,
४७ म्लेच्छ-काव्यों का समझ लेना,
४८ विभिन्न देशों की भाषा का ज्ञान,
४९ शकुन-अपशकुन जानना, प्रश्नों के उत्तर में शुभाशुभ बतलाना,
५० नाना प्रकारके मातृकायन्त्र बनाना,
५१ रत्नों को नाना प्रकार के आकारों में काटना,
५२ साङ्केतिक भाषा बनाना,
५३ मन में कटकरचना करना,
५४ नयी-नयी बातें निकालना,
५५ छल से काम निकालना,
५६ समस्तं कोशों का ज्ञान,
५७ समस्त छन्दों का ज्ञान,
५८ वस्त्रोंको छिपाने या बदलने की विद्या,
५९ द्यूत क्रीड़ा,
६० दूर के मनुष्य या वस्तुओं का आकर्षण कर लेना,
६१ बालकों के खेल,
६२ मन्त्रविद्या,
६३ विजय प्राप्त कराने वाली विद्या,
६४ वेताल आदि को वश में रखने की विद्या ।