सम्भाषणम्:अथर्ववेदः/काण्डं १०/सूक्तम् ०५

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आपश्चन्द्राः व उदक योग की तुलना[सम्पाद्यताम्]

आपश्चन्द्राः

अहंकार रूपी अहि या वृत्र जिन आपः को अवरुद्ध करता है, वे हिरण्यवर्णाः शुचयः पावकाः कहे गये हैं[1]।  वे वस्तुतः हमारे व्यक्तित्व की हिरण्ययकोश नामक सबसे बड़ी गहराई में विद्यमान प्राण हैं। इन्हीं आपः को देवीः आपः भी कहा जाता है जिनसे शान्ति की कामना की जाती है। ये ही आपः जब आनन्दमय आदि पंचकोशों में अवतीर्ण होते हैं, तो आपश्चन्द्राः कहे जाते हैं। इन आपश्चन्द्राः का वर्णन अथर्ववेदीय शौनक संहिता के पचास मन्त्र वाले एक सूक्त (१०.५) में प्राप्त होता है। इन्हीं आपश्चन्द्राः को वह कः नामक प्रजापति उत्पन्न करता है[2] , जिसे ‘कम्’ रूप में एक सुखबोधक नाम स्वीकार किया गया है। ये शुद्ध, दिव्य आपश्चन्द्राः आनन्दमय, विज्ञानमय, मनोमय, प्राणमय और अन्नमय कोशों में क्रमशः ओज, सहः, बलम्, वीर्यम् तथा नृम्णम् नाम से जाने जाते हैं, जैया कि अथर्ववेद के इस मन्त्र से स्पष्ट है--

इन्द्रस्यौज स्थेन्द्रस्य सह स्थेन्द्रस्य बलं स्थेन्द्रस्य वीर्यं स्थेन्द्रस्य नृम्णं स्थ।

जिष्णवे योगाय ब्रह्मयोगैर्वो युनज्मि।। अथर्व १०, ५, १

इस मन्त्र में उक्त ओज आदि पांचों रूपों का जिष्णुयोग के निमित्त ब्रह्मयोगों द्वारा एकरूप में युक्त करने की बात भी कही गई है। जिष्णु शब्द विजयसूचक है, यह विजय जीवात्मा को उन अवाञ्छनीय तत्वों पर प्राप्त करनी है, जिन्हें ऊपर अभ्व, विष, अहि और शम्बर कहा गया है। ये और ऐसे ही अनेक देवशत्रु हैं, जिनके वध अथवा नियन्त्रण की चर्चा वेदमन्त्रों में प्रायः देखने को मिलती हैं। अतः जिष्णु योग मानवजीवन को सफल बनाने का सबसे बड़ा साधन माना जा सकता है। इस योग को सिद्ध करने के लिए, जिन उपायों का उल्लेख इस मन्त्र में हुआ है, उनमें भी निघण्टु का उदकवाचक ब्रह्म नाम है। अतः ब्रह्मयोग को एक प्रकार से वह ब्रह्मसाधना कह सकते हैं, जिसका उल्लेख तैत्तिरीय संहिता की ब्रह्मवल्ली में हुआ है। तदनुसार यह ब्रह्म साधना अन्नमय कोश से लेकर आनन्दमय कोश तक जाती है, जहां उक्त अथर्ववेदीय सूक्त में आपश्चन्द्राः का ओजरूप वर्तमान है। आरोहण क्रम से चलने वाली इस ब्रह्मसाधना के अनुसार क्रमशः अन्न, प्राण, मन, विज्ञान और आनन्द रूप से ब्रह्म की साधना बतायी गई है, जिसका  उल्लेख हम ‘आपानं ब्रह्म’ की अवधारणा के प्रसंग में कर चुके हैं। इन पांचों कोशों की पंचविध उक्त ब्रह्म साधना के रूप में हम पूर्वोक्त ब्रह्मयोगों के रूप में देख सकते हैं, जिनके द्वारा आपश्चन्द्राः के ओज आदि पांच रूपों को जिष्णु योग के निमित्त एक रूप में संयुक्त करने की बात कही गई है।

जिष्णुयोग की सिद्धि में ब्रह्मयोगों के पूरक क्षत्रयोग माने गये हैं। क्षत्रयोग में भी उदकनामों में परिगणित क्षत्र शब्द का समावेश है। क्षत्र हिरण्ययकोश से अवतरण करने वाली वह प्राणशक्ति है, जो अभ्व, विष, अहि और शम्बर जैसे शत्रुओं से मिलने वाले क्षत ( घाव) से त्राण करने में सक्षम है। इन शत्रुओं से यदि निरन्तर बाधा मिलती रहती है, तो ब्रह्मयोगों को वाञ्छित सफलता प्राप्त नहीं हो सकती है। इसी दृष्टि से उक्त अथर्ववेदीय सूक्त के द्वितीय मन्त्र में जिष्णुयोग के लिए क्षत्रयोगों द्वारा आपश्चन्द्राः के उक्त पांचों रूपों को संयुक्त करने की बात कही गयी है-

इन्द्रस्यौज स्थेन्द्रस्य सह स्थेन्द्रस्य बलं स्थेन्द्रस्य वीर्यं स्थेन्द्रस्य नृम्णं स्थ। जिष्णवे योगाय क्षत्र योगेर्वों युनज्मि।।

ब्रह्मयोगों और क्षत्रयोगों के संयुक्त प्रयास से जिष्णु योग की सिद्धि में निस्सन्देह बहुत बड़ी सहायता मिलती है, परन्तु इस सफलता में योगों की एक दूसरी जोड़ी की भी बड़ी देन रहती है। इन दोनों को क्रमशः इन्द्रयोग और सोमयोग कहते हैं। इन्द्रयोगों में सभी इन्द्रियों की चेतनाधाराओं को एकसूत्र में बांधने का ऊर्ध्वमुखी प्रयास होता है, जिसके फलस्वरूप फैली हुई मानसिक वृत्तियां सिमटकर मन को ऊर्ध्वमुखी बना देती हैं, ऐसे ही सभी प्रयासों को इन्द्रयोग कहा जाता है। अतः अथर्ववेदीय सूक्त के तृतीयमन्त्र में इन्द्रयोगों द्वारा आपश्चन्द्राः के उक्त पांचों रूपों को केन्द्रित करने का उल्लेख है – इन्द्रस्योज स्थेन्द्रस्य सह स्थेन्द्रस्य बलं स्थेन्द्रस्य वीर्यं स्थेन्द्रस्य नृम्णं स्थ। जिष्णवेयोगायेन्द्रयोगैर्वो युनज्मि।।

इन्द्रयोगों की सफलता जिस अनुपात में होती है, उसी अनुपात में आनन्दरूप कोश से आनन्द सोम का अवरोहण होने लगता है। इसी का नाम सोमयाग है। इसी दृष्टि से चतुर्थमन्त्र में आपश्चन्द्राः के पांचों रूपों को एकत्र करने के लिए सोमयोगों के उपयोग की बात कही गई है, क्योंकि सोम योग के बिना इन्द्रयोग आगे नहीं बढ़ सकता। इसी दृष्टि से इन्द्र वृत्र युद्ध में इन्द्र को सोमपान करके ही अपना पौरुष दिखलाने का वर्णन प्रायः मिलता है।

उक्त चारों योगों की श्रृंखलाओं से जिष्णुयोग की सिद्धि के लिए जो प्रयास किये जाते हैं, उनकी वास्तविक सफलता अप्सुयोगों के द्वारा ही संभव होती है। अप्सुयोग (अप्+सु+योग) में भी, उदकनामों में परिगणित अप शब्द के साथ सुब्रह्म का सूचक ‘सु’ प्रतीक विद्यमान है। अपः शब्द निघण्टु के कर्मनामों में भी परिगणित है। अतः अप्सुयोग का अभिप्राय सुब्रह्म की सभी शक्तियों का मनुष्य के कर्म अथवा आचरण के स्तर पर एकत्रित होना है। इसी योग के फलस्वरूप मनुष्य का कर्म श्रेष्ठतम होकर यज्ञ बनने लगता है-यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म।[3]  इसी दृष्टि से ऋग्वेद १, ११०, १ में अपः को पुनः पुनः विस्तारित करके विश्वदेव्य सोमयज्ञ[4]  का रूप दिया जाता है, जिसे ऐसा समुद्र भी बताया जाता है, जिसमें कि स्वादिष्ठाधीति (आनन्दमयी बुद्धि) प्रशंसित होती हुई बतायी गई है। इस प्रकार अप्सुयोगों द्वारा मनुष्य अपने आचरण को शुद्ध बनाने में आध्यात्मिक शक्तियों का प्रयोग करता हुआ जिष्णुयोग की पूर्ण सिद्धि करने में समर्थ होता है। अतः अथर्ववेदीय सूक्त में पंचम मन्त्र में अप्सुयोग की उपादेयता इस प्रकार बतायी गई है-

इन्द्रस्यौज स्थेन्द्रस्य सह स्थेन्द्रस्य बलं स्थेन्द्रस्य वीर्यं

स्थेन्द्रस्य नृम्णं स्थ। जिष्णवे योगायाप्सुयोगैर्वो युनज्मि।।

इन्हीं योगों के फलस्वरूप, मनुष्यव्यक्ति के सभी पंच महाभूत साधक की सेवा में उपस्थित हो जाते हैं और आपश्चन्द्राः के सभी रूप भी केन्द्रीभूत हो जाते हैं-

इन्द्रस्यौज स्थेन्द्रस्य सह स्थेन्द्रस्य बलं स्थेन्द्रस्य वीर्यं स्थेन्द्रस्य नृम्णं स्थ।

जिष्णवे योगाय विश्वानि मा भूतान्युपतिष्ठन्तु युक्तौ म आप स्थ। अथर्व १०,५ , ६

इस मन्त्र में आपः के युक्त होने का एक विशेष अभिप्राय है। जब तक जिष्णुयोग के लिए विविध प्रयास प्रारम्भ नहीं हुए थे, तब तक अहंकार रूप अहि ने दिव्य आपश्चन्द्राः का मार्ग अवरुद्ध कर रखा था और अन्नमय प्राणमय और मनोमय कोश के आपः को अपने अधीन कर रखा था। इसी दृष्टि से कभी-कभी आपः को अहिगोपाः भी कहा जाता है। अब जिष्णुयोग के सफल होने पर अहिगोपा आपः भी मुक्त होकर आपश्चन्द्राः के साथ समरस हो गये। अतः मनुष्यव्यक्तित्व के सभी स्तरों के प्राणरूप आपः दिव्य चेतनतत्व बन गये। ये सभी आपः दिव्य होने के कारण प्रस्तुत अथर्ववेदीय सूक्त में विभिन्न देवों और पितरों के अंगभूत माने गये हैं। अतः ‘आपः देवीः’ को अग्नि, प्रजापति, इन्द्र, सोम, वरुण, मित्रावरुण, यम, पितर और सविता आदि का भाग बताते हुए उनसे प्रार्थना की गई है कि हमारे भीतर वर्चस को स्थापित करो, जो आपः का शुक्ररूप है[5]।’  आपः का जो भाग कर्मों के अन्तर्गत (अप्सु अन्तः) आ जाता है, उसको ‘यजुष्यो देवयजनः’ कहा जाता है और वह चरमावस्था तक पहुंच कर, हमारे उस अहंकार रूपी अहिः को समाप्त कर देता है, जो हमसे द्वेष करता है और हम जिससे द्वेष करते हैं तथा हम उसका वध इस ब्रह्म कर्म के द्वारा कर दें।[6]’  हमारे ये निष्पाप आपः सम्पूर्ण अनृत, दुरित, एनस्, दुष्वप्न्य और मल को दूर कर देते हैं।[7] 

ऊपरी कोशों से प्रवाहित होने वाला यह दिव्य आपः नीचे के कोशों में विष्णुक्रम (विष्णुविक्रमण) को जन्म देता है। अतः आपः को सम्बोधित करते हुए कहा जाता है कि तुम्हीं विष्णु के वह क्रम हो, जो शत्रुसंहारक, पृथ्वी-शंसित, अग्नितेजः है। इसकी सहायता से हम पृथ्वी का अनुक्रमण करते हैं और पृथ्वी से उसको निष्कासित करते हैं, जो हमसे द्वेष करता है और जिससे हम द्वेष करते हैं। वह न जिये, प्राण उसको त्याग दें।[8]  इसी प्रकार शत्रुनाशक, अन्तरिक्षशंसित, वायुतेज, विष्णुक्रम कह कर अन्तरिक्ष का अनुक्रमण करके अन्तरिक्ष से उक्त शत्रु को निष्कासित करने की बात कही जाती है।[9]  द्यौ की दृष्टि से, शत्रुनाशक यही विष्णुक्रम द्यौ शंसित, सूर्यतेज कहा जाता है, जिसके द्वारा द्यौ का अनुक्रमण करके उक्त शत्रु को द्युलोक से निष्कासित किया जाता है।[10] अन्यत्र, पृथिवी, अन्तरिक्ष और द्यौ में होने वाले इन तीनों विष्णुक्रमों को तीन विक्रमण कहा गया है, जिसके आधार पर विष्णु का त्रिविक्रम नाम भी पड़ा है।[11]  हम पहले ही देख चुके हैं कि जब तक दिव्य आपः का ऊपर से क्षरण नहीं होता, तब तक जीवात्मा बौना (वामन) बन कर पड़ा रहता है और दिव्य आपः का प्रवाह आने पर वही वामन विराट् विष्णु होकर विक्रमण करने लगता है।

उक्त तीनों विक्रमण वस्तुतः अन्नमय, प्राणमय, और मनोमय कोशों में होते हैं, जिन्हें यहां क्रमशः पृथिवी, अन्तरिक्ष और द्यौ माना गया है। इन तीन विक्रमों के बाद उक्त विष्णुक्रम का रूप बदल जाता है। पहले वह नीचे से ऊपर को गति करता था, परन्तु अब वह शत्रुनाशक दिवशंसित, मनस्तेजः होकर दिशाओं का अनुविक्रमण करता है।[12]  और इस प्रकार सभी दिशाओं से पूर्वोक्त शत्रु को निष्कासित करता है। इसका अर्थ है कि अब विष्णुक्रम चक्रवत् घूमने लगता है। संभवतः पौराणिक विष्णु के चक्रायुध रूप की कल्पना का आधार यही है। इसी प्रकार पूर्वोक्त आपश्चन्द्राः विष्णुक्रम रूप में वाततेजः ब्रह्मतेजः, सोमतेजः और वरुणतेजः होकर क्रमशः आशाओं, ऋचाओं, यज्ञ, औषधि और आपः (अहिगोपाः) से पूर्वोक्त शत्रु को निष्कासित करने का काम करते हैं।[13]  इसके पश्चात् जिस शत्रुनाशक विष्णुक्रम का उल्लेख है, वह कृषि शंसित (अन्नतेज) कहा गया है, जो पूर्वोक्त शत्रु को कृषि से दूर भगाता है।[14]  डा० फतहसिंह के अनुसार यह कृषि शब्द खेती बाड़ी का द्योतक नहीं है। वे इस कृषि को वेद की कृष, कृष्टिहा, कृष्टय आदि शब्दों से जोड़ते हैं[15] । तदनुसार कृष्टि शब्द कर्षणवाचक है। असत् से सत् की ओर,  मृत्यु से अमृत की ओर, तम से ज्योति की ओर जो कर्षण होता है, उसमें हमारा अहंकार रूप अहि बाधक होता है। अतः वहां से भी उक्त शत्रु को बाहर निकालने की आवश्यकता होती है। कृषि शब्द की व्याख्या की पुष्टि इस बात से होती है कि विष्णुक्रम के अन्य सभी वर्णन आध्यात्मिक क्षेत्र से ही सम्बन्धित है। तदनुसार विष्णुक्रम के अन्य सभी वर्णन आध्यात्मिक क्षेत्र से ही सम्बन्धित हैं। तदनुसार विष्णुक्रम को शत्रुनाशक प्राणशंसित, पुरुषतेज[16]  कह कर उसके द्वारा प्राणों से अहंकार नामक अहि को निष्कासित करने का उल्लेख करके कहा गया है कि मेरी विजय हो गयी, मैंने अपने  सब शत्रुओं को छिन्न-भिन्न कर दिया और अब मैं परलोकस्वामी के पुत्र का वर्चस्, तेजस् प्राण तथा आयु का अपने में निवेष्टन करता हूं और उस अहंकार रूप अहि को नीचे पैरों से कुचल रहा हूं[17] ।

पूर्वोक्त मन्त्र में जिसको परलोक स्वामी कहा है, वह सूर्य प्रतीत होता है, क्योंकि अगले मन्त्र में साधक कहता है कि अब मैं सूर्य के मन्त्रों से आवृत्त होकर दक्षिण दिशा में आवर्तन कर सका, जिससे मुझे उस दिशा में ब्रह्मणवर्चस् प्राप्त हो जाये[18]।  इसी प्रकार ज्योतिष्मती दिशाओं, सप्तर्षियों तथा ब्राह्मणों में अभ्यावर्तन करके द्रविण और ब्रह्मणवर्चस् की प्राप्ति चाही गई है[19]।  अगले तीन मन्त्रों में साधक कहता है कि जिस शत्रु की खोज हम कर रहे हैं, उसको हम दिव्य आयुधों से, वैश्वानर के दांतों से अथवा राजा वरूण के पाश में बांधकर नष्ट कर दें।[20] 

अन्त में दिव्य आपः की याचना करते हुए अग्नि से वर्चस् सहित किसी ‘आगम’ के सृजन की प्रार्थना की गई है और उसके साथ ही प्रजा, आयु आदि की इच्छा करते हुए यह प्रार्थना की गई है कि ऋषियों सहित इन्द्रदेव को जाने और अग्नि यातुधानों का हृदयवेधन करें, मूरदेवों को नष्ट करें।[21]  अन्त में, सूक्त का उपसंहार करते हुए साधक कहता है कि शीर्षवेधन योग्य अपने अहंकार रूप अहि पर इस प्रकार आपः के चतुर्भृष्टि वज्र का प्रहार करता है ‘जिससे वह वज्र उसके सभी अंगों को चूर-चूर कर दे और मेरे इस कार्य को विश्वेदेवा जान लेवें।[22]  यहां आपः के चतुर्भृष्टि वज्र से अभिप्राय, उसी विष्णु क्रम से प्रतीत होता है, जो चारों दिशाओं में गतिशील हुआ था और जिसका वर्णन उपर्युक्त कई मन्त्रों में किया जा चुका है।

यहां जिन आपः के चतुर्भृष्टि वज्र का उल्लेख है, वे निस्सन्देह वही आपश्चन्द्राः हैं, जो उक्त सम्पूर्ण सूक्त (शौ १०, ५) के देवता हैं और जिन्हें विभिन्न देवों का अंगभूत मानते हुए ‘आपः देवी’ कहा गया है। इसी अध्याय का प्रारम्भ में हमने अनेक उदकनामों का उल्लेख और विवेचन अस्यवामीयसूक्त के प्रसंग में किया। वे सभी सोम आदि दिव्य तत्वों के वाचक होने से चेतनायुक्त पाये गये। इस प्रसंग में, हमने ब्रह्म, सत्यं, ऋतं, क्षत्रं जैसे शब्दों उदकनामों पर चर्चा की और यह ज्ञात हुआ कि जहां अहिगोपाः आपः अथवा उदक विष कहे जा सकते हैं, वहीं उसके विपरीत उनकी एक अवस्था का नाम अमृत भी है। इसलिए अब हम यह कहने की स्थिति में हैं कि प्राणरूप आपः एक चेतनतत्व ही है। यही नहीं, उदकनामों में समाविष्ट तद्वाचक अन्य नाम किसी न  किसी चेतन तत्व के बोधक कहे जा सकते हैं। इसी निष्कर्ष की पुष्टि अगले अध्याय में और अधिक सुनिश्चित हो जायेगी।

[1]हिरण्यवर्णाः शुचयः पावका यासु जातः सविता यास्वग्निः ।

या अग्निं गर्भं दधिरे सुवर्णास्ता न आपः शं स्योना भवन्तु ॥शौअ. १.३३.१

[2]मा नो हिंसीज्जनिता यः पृथिव्या यो वा दिवं सत्यधर्मा जजान ।

यश्चापश्चन्द्रा बृहतीर्जजान कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ १०.१२१.९

[3] काठ. ३०.१०, क ४६.५ तै ३.२.१.४, माश १,७,१,५.। तु. मै ४.१.१

[4] ततं मे अपस्तदु तायते पुनः स्वादिष्ठा धीतिरुचथाय शस्यते ।

अयं समुद्र इह विश्वदेव्यः स्वाहाकृतस्य समु तृप्णुत ऋभवः ॥ १, ११०, १ देखिए इस मन्त्र सायणभाष्य

[5] अग्नेर्भाग स्थ अपां शुक्रमापो देवीर्वर्चो अस्मासु धत्त ।

प्रजापतेर्वो धाम्नास्मै लोकाय सादये ॥१०.५.७॥

इन्द्रस्य भाग स्थ अपां शुक्रमापो देवीर्वर्चो अस्मासु धत्त ।

प्रजापतेर्वो धाम्नास्मै लोकाय सादये ॥१०.५.८॥

सोमस्य भाग स्थ अपां शुक्रमापो देवीर्वर्चो अस्मासु धत्त ।

प्रजापतेर्वो धाम्नास्मै लोकाय सादये ॥१०.५.९॥

वरुणस्य भाग स्थ अपां शुक्रमापो देवीर्वर्चो अस्मासु धत्त ।

प्रजापतेर्वो धाम्नास्मै लोकाय सादये ॥१०.५.१०॥  

मित्रावरुणयोर्भाग स्थ अपां शुक्रमापो देवीर्वर्चो अस्मासु धत्त ।

प्रजापतेर्वो धाम्नास्मै लोकाय सादये ॥१०.५.११॥

यमस्य भाग स्थ अपां शुक्रमापो देवीर्वर्चो अस्मासु धत्त ।

प्रजापतेर्वो धाम्नास्मै लोकाय सादये ॥१०.५.१२॥

पितॄणां भाग स्थ अपां शुक्रमापो देवीर्वर्चो अस्मासु धत्त ।

प्रजापतेर्वो धाम्नास्मै लोकाय सादये ॥१०.५.१३॥

देवस्य सवितुर्भाग स्थ अपां शुक्रमापो देवीर्वर्चो अस्मासु धत्त ।

प्रजापतेर्वो धाम्नास्मै लोकाय सादये ॥१०.५.१४॥ अथर्व १०.५.७-१४

[6] तेन तमभ्यतिसृजामो योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।

तं वधेयं तं स्तृषीयानेन ब्रह्मणानेन कर्मणानया मेन्या ॥ १०.५.१६ ॥

यो व आपोऽपां वत्सोऽप्स्वन्तर्यजुष्यो देवयजनः ।

इदं तमति सृजामि तं माभ्यवनिक्षि ।

तेन तमभ्यतिसृजामो योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।

तं वधेयं तं स्तृषीयानेन ब्रह्मणानेन कर्मणानया मेन्या ॥ १०.५.१७ ॥

यो व आपोऽपां वृषभोऽप्स्वन्तर्यजुष्यो देवयजनः ॥ इदं तमति सृजामि तं माभ्यवनिक्षि ।

तेन तमभ्यतिसृजामो योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ॥ तं वधेयं तं स्तृषीयानेन ब्रह्मणानेन कर्मणानया मेन्या ॥ १०.५.१८ ॥

यो व आपोऽपां हिरण्यगर्भोऽप्स्वन्तर्यजुष्यो देवयजनः ।

इदं तमति सृजामि तं माभ्यवनिक्षि ।

तेन तमभ्यतिसृजामो योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।

तं वधेयं तं स्तृषीयानेन ब्रह्मणानेन कर्मणानया मेन्या ॥ १०.५.१९ ॥

यो व आपोऽपामश्मा पृश्निर्दिव्योऽप्स्वन्तर्यजुष्यो देवयजनः ।

इदं तमति सृजामि तं माभ्यवनिक्षि ।

तेन तमभ्यतिसृजामो योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।

तं वधेयं तं स्तृषीयानेन ब्रह्मणानेन कर्मणानया मेन्या ॥ १०.५.२० ॥

यो व आपोऽपामग्नयोऽप्स्वन्तर्यजुष्यो देवयजनः ।

इदं तमति सृजामि तं माभ्यवनिक्षि ।

तेन तमभ्यतिसृजामो योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।

तं वधेयं तं स्तृषीयानेन ब्रह्मणानेन कर्मणानया मेन्या ॥  शौअ १०.५.१६-२१

[7] यो व आपोऽपामग्नयोऽप्स्वन्तर्यजुष्यो देवयजनः ।

इदं तमति सृजामि तं माभ्यवनिक्षि ।

तेन तमभ्यतिसृजामो योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।

तं वधेयं तं स्तृषीयानेन ब्रह्मणानेन कर्मणानया मेन्या ॥ १०.५.२१ ॥

यदर्वाचीनं त्रैहायणादनृतं किं चोदिम ।

आपो मा तस्मात्सर्वस्माद्दुरितात्पान्त्वंहसः ॥१०.५.२२॥

समुद्रं वः प्र हिणोमि स्वां योनिमपीतन ।

अरिष्टाः सर्वहायसो मा च नः किं चनाममत्॥१०.५.२३॥

अरिप्रा आपो अप रिप्रमस्मत्।

प्रास्मदेनो दुरितं सुप्रतीकाः प्र दुष्वप्न्यं प्र मलं वहन्तु ॥ शौअ १०.५.२१-२४

[8] विष्णोः क्रमोऽसि सपत्नहा पृथिवीसंशितोऽग्नितेजाः ।

पृथिवीमनु वि क्रमेऽहं पृथिव्यास्तं निर्भजामो योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।

स मा जीवीत्तं प्राणो जहातु ॥ शौअ १०.५.२५

[9] विष्णोः क्रमोऽसि सपत्नहान्तरिक्षसंशितो वायुतेजाः ।

अन्तरिक्षमनु वि क्रमेऽहमन्तरिक्षात्तं निर्भजामो योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।

स मा जीवीत्तं प्राणो जहातु ॥ शौअ १०.५.२६

[10] विष्णोः क्रमोऽसि सपत्नहा द्यौसंशितः सूर्यतेजाः ।

दिवमनु वि क्रमेऽहं दिवस्तं निर्भजामो योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।

स मा जीवीत्तं प्राणो जहातु ॥ शौअ १०.५.२७

[11] प्र तद्विष्णु स्तवते वीर्येण मृगो न भीमः कुचरो गिरिष्ठाः ।

यस्योरुषु त्रिषु विक्रमणेष्वधिक्षियन्ति भुवनानि विश्वा ॥ - ऋ १.१५४.२

[12] विष्णोः क्रमोऽसि सपत्नहा दिक्संशितो मनस्तेजाः ।

दिशो अनु वि क्रमेऽहं दिग्भ्यस्तं निर्भजामो योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।

स मा जीवीत्तं प्राणो जहातु ॥ शौअ १०.५.२८

[13] विष्णोः क्रमोऽसि सपत्नहाशासंशितो वाततेजाः ।

आशा अनु वि क्रमेऽहमाशाभ्यस्तं निर्भजामो योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।

स मा जीवीत्तं प्राणो जहातु ॥१०.५.२९॥

विष्णोः क्रमोऽसि सपत्नहा ऋक्संशितो सामतेजाः ।

ऋचोऽनु वि क्रमेऽहमृग्भ्यस्तं निर्भजामो योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।

स मा जीवीत्तं प्राणो जहातु ॥१०.५.३०॥

विष्णोः क्रमोऽसि सपत्नहा यज्ञसंशितो ब्रह्मतेजाः ।

यज्ञमनु वि क्रमेऽहं यज्ञात्तं निर्भजामो योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।

स मा जीवीत्तं प्राणो जहातु ॥१०.५.३१॥

विष्णोः क्रमोऽसि सपत्नहौषधीसंशितो सोमतेजाः ।

ओषधीरनु वि क्रमेऽहमोषधीभ्यस्तं निर्भजामो योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।

स मा जीवीत्तं प्राणो जहातु ॥१०.५.३२॥

विष्णोः क्रमोऽसि सपत्नहाप्सुसंशितो वरुणतेजाः ।

अपोऽनु वि क्रमेऽहमद्भ्यस्तं निर्भजामो योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।

स मा जीवीत्तं प्राणो जहातु ॥ शौअ १०.५.३३

[14] विष्णोः क्रमोऽसि सपत्नहा कृषिसंशितोऽन्नतेजाः ।

कृषिमनु वि क्रमेऽहं कृष्यास्तं निर्भजामो योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।

स मा जीवीत्तं प्राणो जहातु ॥ शौअ १०.५.३४

[15] मानवता को वेदों की देन, पृ. ७४, ७६, ७७, ७८

[16] विष्णोः क्रमोऽसि सपत्नहा प्राणसंशितः पुरुषतेजाः ।

प्राणमनु वि क्रमेऽहं प्राणात्तं निर्भजामो योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ।

स मा जीवीत्तं प्राणो जहातु ॥ शौअ १०.५.३५

[17] जितमस्माकमुद्भिन्नमस्माकमभ्यष्ठां विश्वाः पृतना अरातीः ।

इदमहमामुष्यायणस्यामुष्याः पुत्रस्य वर्चस्तेजः प्राणमायुर्नि वेष्टयामीदमेनमधराञ्चं पादयामि ॥ शौअ १०.५.३६

[18] सूर्यस्यावृतमन्वावर्ते दक्षिणामन्वावृतम् ।

सा मे द्रविणं यच्छतु सा मे ब्राह्मणवर्चसम् ॥ शौअ १०.५.३७


[19] दिशो ज्योतिष्मतीरभ्यावर्ते ।

ता मे द्रविणं यच्छन्तु ता मे ब्राह्मणवर्चसम् ॥१०.५.३८॥

सप्तऋषीन् अभ्यावर्ते ।

ते मे द्रविणं यच्छन्तु ते मे ब्राह्मणवर्चसम् ॥१०.५.३९॥

ब्रह्माभ्यावर्ते ।

तन् मे द्रविणं यच्छन्तु तन् मे ब्राह्मणवर्चसम् ॥१०.५.४०॥  

ब्राह्मणामभ्यावर्ते ।

ते मे द्रविणं यच्छन्तु ते मे ब्राह्मणवर्चसम् ॥ शौअ १०.५.४१

[20] यं वयं मृगयामहे तं वधै स्तृणवामहै ।

व्यात्ते परमेष्ठिनो ब्रह्मणापीपदाम तम् ॥१०.५.४२॥

वैश्वानरस्य दंष्ट्राभ्यां हेतिस्तं समधादभि ।

इयं तं प्सात्वाहुतिः समिद्देवी सहीयसी ॥१०.५.४३॥

राज्ञो वरुणस्य बन्धोऽसि ।

सोऽमुमामुष्यायणममुष्याः पुत्रमन्ने प्राणे बधान ॥१०.५.४४॥

यत्ते अन्नं भुवस्पत आक्षियति पृथिवीमनु ।

तस्य नस्त्वं भुवस्पते संप्रयच्छ प्रजापते ॥ शौअ १०.५.४५

[21] अपो दिव्या अचायिषं रसेन समपृक्ष्महि ।

पयस्वान् अग्न आगमं तं मा सं सृज वर्चसा ॥१०.५.४६॥

सं माग्ने वर्चसा सृज सं प्रजया समायुषा ।

विद्युर्मे अस्य देवा इन्द्रो विद्यात्सह ऋषिभिः ॥१०.५.४७॥

यदग्ने अद्य मिथुना शपतो यद्वाचस्तृष्टं जनयन्त रेभाः ।

मन्योर्मनसः शरव्या जायते या तया विध्य हृदये यातुधानान् ॥१०.५.४८॥

परा शृणीहि तपसा यातुधानान् पराग्ने रक्षो हरसा शृणीहि ।

परार्चिषा मूरदेवां छृणीहि परासुतृपः शोशुचतः शृणीहि ॥ शौअ १०.५.४९

[22] अपामस्मै वज्रं प्र हरामि चतुर्भृष्टिं शीर्षभिद्याय विद्वान् ।

सो अस्याङ्गानि प्र शृणातु सर्वा तन् मे देवा अनु जानन्तु विश्वे ॥ शौअ १०.५.५०Puranastudy (सम्भाषणम्) १९:४७, ४ मे २०२४ (UTC)उत्तर दें