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पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/५२२

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एकषष्टितमोऽध्यायः ॥३० ॥३१ ॥३२ क्रुद्धं दृष्ट्वा ततः शक्रो वरमस्मै ददौ पुनः | भाविनौ ते महावीर्यौ शिष्यावनलवर्चसौ अधीयानौ महाप्राज्ञौ सहस्र संहितावुभौ । एतौ सुरौ महाभागौ मा क्रुध्य द्विजसत्तम इत्युक्त्वा वासवः श्रीमान्सुकर्माणं यशस्विनम् । शान्तक्रोधं द्विजं दृष्ट्वा तत्रैवान्तरधीयत तस्य शिष्यो भवेद्धीमान्पौष्यञ्जी द्विजसत्तमाः । हिरण्यनाभः कौशिल्यो द्वितीयोऽभून्नराधिपः ||३३ अध्यापयत्तु पौष्यञ्जी सहस्राधं तु संहिताः । ते नाम्नोदीच्यसामान्याः शिष्याः पौष्यञ्जिनः शुभाः || शतानि पश्च कौशिल्यः संहितानां च वीर्यवान् । शिष्या हिरण्यनाभस्य स्मृतास्ते प्राच्यसामगाः ||३५ लोकाक्षी कुथुमिश्चैव कुशोती लाङ्गलिस्तथा । पौष्यञ्जिशिष्याश्चत्वारस्तेषां भेदान्निबोधत ॥३६ राणायनीयः सहितण्डिपुत्रस्तस्मादन्यो मूलचारी सुविद्वान् ॥ सकैतिपुत्रः सहसात्यपुत्र एतान्भेदान्वित्त लोकाक्षिणस्तु त्रयस्तु कुथुसेः पुत्रा औरसो रसपासरः । भागवित्तिश्च तेजस्वी त्रिविधाः कौथुमाः स्मृताः शौरिद्युः शृङ्गिपुत्रश्च द्वावेतौ चरितव्रतौ । राणायनीयः सौमित्रिः सामवेदविशारदौ ५०१ ॥३७ ॥३८ ॥३६ होकर शिष्यों के लिए सुकर्मा प्रायोपवेश करने पर उतारू हो गये । सुकर्मा को इस प्रकार क्रुद्ध देखकर इन्द्र ने उन्हें फिर वरदान दिया कि तुम्हारे अग्नि के समान परम तेजस्वी एवं महान् पराक्रमी दो शिष्य होगे |२७-३०। हे द्विजसत्तम ! वे आपके दोनों महाभाग्यशाली शिष्य महान् पण्डित होंगे और इन सहस्र संहिताओं का विधिवत् अध्ययन करेंगे आप क्रोध न करें। परम यशस्वी द्विजश्रेष्ठ से ऐसी बातें कहकर और उनके क्रोध को शान्त देखकर श्रीमान् इन्द्र वही पर अन्तर्धान हो गये । हे द्विजवर्थ्यवृन्द ! उन कर्मा के परम बुद्धिमान् पौष्यञ्जी नामक प्रथम और हिरण्यनाभ राजा कौशिल्य नामक द्वितीय शिष्य हुआ |३१-३३ जिनमें से पौप्यञ्जी ने पाँच सो सहिताओं को अपने शिष्यों को पढ़ाया। पोष्यञ्जी के वे कल्याणभाजन शिष्य सामान्यतः उदीच्य के नाम से विख्यात थे । पराक्रमी कौशिल्य ने भी पाँच सौ सहिताओं की शिक्षा अपने शिष्यों को दी । हिरण्यनाभ नराधिप कौशिल्य के शिष्यगण प्राच्य सामग्र के नाम से विख्यात हुए । अब पौष्यञ्जी के लोकाक्षी, कुथुमि, कुशीती और लाङ्गलि नामक जो चार शिष्य हो गये है. उनके भेदों को सुनिये ।३४-३६॥ तण्डिपुत्र, राणायनीय सुविद्वान् मूलचारी, कैतिपुत्र, और सात्यपुत्र - ये सभी लोकाक्षी के शिष्यों के नाम है | कुथुमि के औरस, रसपासर और तेजस्वी भागवित्ति नांमक तीन पुत्र थे, जी तीनो कौथुम नाम से प्रसिद्ध थे । शौरिद्यु और शृङ्गपुत्र ये दो परम तपस्वी एवं व्रतपरायण थे, राणायनीय और सौमित्रि ये दो सामवेद के विशारद थे |३७-३६॥ महान् तपस्वी शृपुत्र ने तीन संहिताओं का उपदेश १. किसी घोर पाप का प्रायश्चित्त पूर्वकाल में बिना कुछ खाये पीये एक स्थान पर बैठकर प्राण त्याग कर के किया जाता था, उसी को प्रायोपवेश कहा जाता है ।