पहले पित्तकी गतिको धारनेवाली, पीछे वायुकी गतिको धारने वाली, पीछे कफकी गति को धारनेवाली, अपने स्थानसे वारंवार भ्रमती हुई और चक्रपै चढ़ी हुई की भांति फिरती हुई और भयानकपनेको धारण करती हुई और कदाचित् सूक्ष्म अपनेको प्राप्त होती हुई नाड़ीको नाड़ीकी गतिको जाननेवाले मुनिजन असाध्य कहते हैं ॥३२॥
गंभीरा या भवेन्नाडी सा भवेन्मांसवाहिनी।
ज्वरबे(वे)गेन धमनी सोष्णा वेगवती भवेत् ॥३३॥
जो नाड़ी गंभीर होवे वह मांस में वहनेवाली होती है और ज्वरके वेगसे नाड़ी गर्मी के सहित और वेगवाली होती है ।।३३।।
कामक्रोधाद्वेगवहा क्षीणा चिन्ताभयान्विता ।
मंदाग्नेःक्षीणधातोश्च नाडी मंदतरा भवेत् ॥३४॥
काम और क्रोधसे नाड़ी शीघ्र वहनेवाली होती है चिंता और भयसे नाड़ी क्षीण होती है, मंदाग्नि और क्षीण धातुवालेकी नाड़ी अति मंद होती है ।।३४॥
असृक्पूर्णा भवेत् सोष्णा गुर्वो सामां गरीयसी।
लघ्वी भवति दीप्ताग्नेस्तथा वेगवती मता ॥३५॥
रक्तसे पूरित हुई नाड़ी गरम और भारी होती है और आमसे पूरित हुई नाड़ी अति भारी होती है, दीप्त अग्निवाले की नाड़ी हलकी और वेगवाली कही है ।।३५।।
चपला क्षुधितस्यापि तृप्तस्य वहति स्थिरा।
मरणे डमर्वाकारा भवेदेकदिनेन च ॥३६॥
भूखवालेकी नाड़ी चपल होती है, तृप्त हुएकी नाड़ी स्थिर होती है, मरनेके समय नाड़ी एक दिन करके डमरूके आकारवाली हो जाती है ॥३६॥
कंपतेस्पन्दतेऽत्यन्तं पुनः स्पृशति चांगुलीः।
तामसाध्यां विजानीयान्नाडीं दूरेण वर्जयेत् ॥३७॥