रोगीके दाहिने हाथ के अंगूठे के मूल के नीचे वैद्य अपने दाहिने हाथसे
रोगको जाननेके लिये नाड़ीको छुवे ।।५।।
स्थिरचित्तः प्रशांतात्मा मनसा च विशारदः ।
स्पृशेदंगुलिभिर्नाडीं जानीयाद्दक्षिणे करे ॥६॥
स्थिर चित्तवाला प्रसन्न आत्मा और मनसे अच्छा विचार करनेवाला बुद्धिमान् वैद्य तीन अंगुलियों से रोगीके दाहिने हाथ में नाडीको जाने ॥६॥
प्रायः स्फुटा भवति वाक(म)करे वधूनां
पुंसां च दक्षिणकरे तदियं परीक्षा ।
ईषद्विना मितकरं विततांगुलीयं
बाहुं प्रसार्य रहितं परिपीडनेन ॥७॥
प्रायः करके स्त्रियोंके बायें हाथमें और पुरुषोंके दाहिने हाथ में नाड़ी स्फुट होती है यह परीक्षा है कछुक नवे ( झुके) हुए हाथसे संयुक्त और फैली हुई अंगुलियोंवाला परिपीडनसे रहित बाहुको प्रसारित करके ॥७॥
ईषद्विनम्रकृतकूर्परवामभागहस्ते प्रसारितसदंगुलिसंधिकेच ।
अडगुष्ठमूलपरिपश्चिमभागमध्ये नाडीं प्रभातसमये प्रथमं परीक्षेत् ८
कछुक नई कुहनींके वाम भागवाले और फैली हुई अंगुलियोंकी सधियोंवाले और अंगूठेके मूलसे पश्चिम भागवाले हाथमें प्रभातसमय नाड़ीकी प्रथम परीक्षा करे ।।८।।
वारत्रयं परीक्षेत धृत्वा धृत्वा विमुञ्चयेत् ।
विमृश्य बहुधा बुद्धया रोगव्यक्तिं विनिर्दिशेत ॥९॥
तीन तीन वार परीक्षा करे और पकड़ पकड़कर नाड़ीको छोड़ता जाय और बुद्धिसे बहुत प्रकारसे विचारकर रोगकी प्रग(क)टताको कहे।।९।।