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पृष्ठम्:नाडीपरीक्षा.djvu/३

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पुटमेतत् सुपुष्टितम्

श्रीः

नाड़ीपरीक्षा

हिंदीटीकासहिता


नत्वा धन्वन्तरिं नाडीपरीक्षा प्रोच्यतेऽधुना ।
नानातन्त्रानुसारेण भिषगानन्ददायिनी ॥१॥
 धन्वन्तरिजीको नमस्कार करके अब हम अनेक ग्रंथके अनुसार तथा
वैद्यको आनंददायिनी नाड़ीपरीक्षा कहते हैं ।।१।।

दोषकोपे घनेऽल्पे च पूर्व नाडीं परोक्षयेत् ।
अंते चादौ स्थितिस्तस्या निःशेषा भिषजा स्फुटम् ॥२॥
 दोषोंके ज्यादे तथा अल्प कोषमें वैद्य पहले नाड़ी की परीक्षा करे।
वैद्योंको आदि और अंतमें नाड़ी की स्पष्ट स्थिति जाननी चाहिये ।।२।।

यथा वीणागता तंत्री सर्वान् रागान् प्रभाषते ।
तथा हस्तगता नाड़ी सर्वान् रोगान्प्रकाशते ।।३।।
 वीणामें प्राप्त हुआ तार जैसे सब रोगोंको बोलता है तैसेही हस्तमें
प्राप्त हुई नाड़ी सब रोगोंको प्रकाश करती है ।।३।।

सर्वासां चैव नाड़ीनां लक्षणं यो न विन्दति ।
मारयत्याशु वै जन्तून्स वेद्यो न यशो लभेत् ।।४।।
 जो मूढ़ वैद्य सब प्रकारकी नाड़ियोंके लक्षणको नहीं जानता है वह
शीघ्र मनुष्योंको मारता है और ऐसा वैद्य यशको प्राप्त नहीं होता ।।४।।

नाडीमंगुष्ठमूलाधः स्पृशेद्दक्षिणगे करे।
ज्ञानार्थ रोगिणो वैद्यो निजदक्षिण पाणिना ॥५॥