महाभारतम्-05-उद्योगपर्व-143
← उद्योगपर्व-142 | महाभारतम् पञ्चमपर्व महाभारतम्-05-उद्योगपर्व-143 वेदव्यासः |
उद्योगपर्व-144 → |
महाभारतस्य पर्वाणि |
---|
कर्णेन कृष्णंप्रति पृथिवीवीनाशे कशुनिदुश्शासनयोः स्वस्यच मूलत्वकथनम् । 1 ।।
तथा पार्थधार्तराष्ट्राणां जयपराजयसूचकनिमित्तोपवर्णनपूर्वकं कृष्णमालिङ्ग्य प्रतिनिवर्तनम् ।। 2 ।।
सात्यकिनासह कृष्णस्य उपप्लाव्यागमनम् ।। 3 ।।
वैशंपायन उवाच। | 5-143-1x |
केशवस्य तु तद्वाक्यं कर्णः श्रुत्वा हितं शुभम्। | 5-143-1a 5-143-1b |
जानन्मां किं महाबाहो संमोहयितुमिच्छसि। | 5-143-2a 5-143-2b |
निमित्तं तत्र शकुनिरहं दुःशासनस्तथा। | 5-143-3a 5-143-3b |
असंशयमिदं कृष्ण महद्युद्धमुपस्थितम्। | 5-143-4a 5-143-4b |
राजानो राजपुत्राश्च दुर्योधनवशानुगाः । | 5-143-5a 5-143-5b |
स्वप्ना हि बहवो घोरा दृश्यन्ते मधुसूदन। | 5-143-6a 5-143-6b |
पराजयं धार्तराष्ट्रे विजयं च युधिष्ठिरे । | 5-143-7a 5-143-7b |
प्राजापत्यं हि नक्षत्रं ग्रहस्तीक्ष्णो महाद्युतिः । | 5-143-8a 5-143-8b |
कृत्वा चाङ्गारको वक्रं ज्येष्ठायां मधुसूदन। | 5-143-9a 5-143-9b |
नूनं महद्भयं कृष्ण कुरूणां समुपस्थितम् । | 5-143-10a 5-143-10b |
सोमस्य लक्ष्म व्यावृत्तं राहुरर्कमुपैति च। | 5-143-11a 5-143-11b |
निष्टनन्ति च मातङ्गा मुञ्चन्त्यश्रूणि वाजिनः । | 5-143-12a 5-143-12b |
प्रादुर्भूतेषु चैतेषु भयमाहुरुपास्थितम्। | 5-143-13a 5-143-13b |
अल्पे भुक्ते पुरीषं च प्रभूतमिह दृश्यते। | 5-143-14a 5-143-14b |
धार्तराष्ट्रस्य सैन्येषु सर्वेषु मधुसूदन। | 5-143-15a 5-143-15b |
प्रहृष्टं वाहनं कृष्ण पाण्डवानां प्रचक्षते। | 5-143-16a 5-143-16b |
अपसव्या मृगाः सर्वे धार्तराष्ट्रस्य केशव । | 5-143-17a 5-143-17b |
मयूराः पुण्यशकुना हंससारसचातकाः । | 5-143-18a 5-143-18b |
गृध्राः कङ्का बकाः श्येना यातुधानास्तथा वृकाः । | 5-143-19a 5-143-19b |
धार्तराष्ट्रस्य सैन्येषु भेरीणां नास्ति निःस्वनः । | 5-143-20a 5-143-20b |
उदपानाश्च नर्दन्ति यथा गोवृषभास्तथा । | 5-143-21a 5-143-21b |
मांसशोणितवर्षं च वृष्टं देवेन माधव । | 5-143-22a 5-143-22b |
सप्राकारं सपरिखं सवप्रं चारुतोरणम् । | 5-143-23a 5-143-23b |
उदयास्तमने संध्ये वेदयन्ती महद्भयम् । | 5-143-24a 5-143-24b |
एकपक्षाक्षिचरणाः पक्षिणो मधुसूदन । | 5-143-25a 5-143-25b |
कृष्णग्रीवाश्च शकुना रक्तपादा भयानकाः । | 5-143-26a 5-143-26b |
ब्राह्मणान्प्रथमं द्वेष्टि गुरूंश्च मधुसूदन । | 5-143-27a 5-143-27b |
पूर्वा दिग्लोहिताकारा शस्त्रवर्णा च दक्षिणा । | 5-143-28a 5-143-28b |
उत्तरा शङ्खवर्णाभा दिशां वर्णा उदाहृताः ।। | 5-143-29a 5-143-29b |
महद्भयं वेदयन्ति तस्मिन्नुत्पातदर्शने ।। | 5-143-30a 5-143-30b |
अधिरोहन्मया दृष्टः सह भ्रातृभिरच्युत ।। | 5-143-31a 5-143-31b |
आसनानि च शुभ्राणि सर्वेषामुपलक्षये ।। | 5-143-32a 5-143-32b |
आन्त्रेण पृथिवी दृष्टा परिक्षिप्ता जनार्दन ।। | 5-143-33a 5-143-33b |
सुवर्णपात्र्यां संहृष्टो भुक्तवान्घृतपायसम् ।। | 5-143-34a 5-143-34b |
उच्चं पर्वतमारूढो भीमकर्मा वृकोदरः। | 5-143-35a 5-143-35b |
क्षपयिष्यति नः सर्वान्स सुव्यक्तं महारणे। | 5-143-36a 5-143-36b |
पाण्डुरं गजमारूढो गाण्डीवी स धनञ्जयः। | 5-143-37a 5-143-37b |
यूयं सर्वे वधिष्यध्वं तत्र मे नास्ति संशयः। | 5-143-38a 5-143-38b |
नकुलः सहदेवश्च सात्यकिश्च महारथः । | 5-143-39a 5-143-39b |
अधिरूढा नरव्याघ्रा नरवाहनमुत्तमम् । | 5-143-40a 5-143-40b |
श्वेतोष्णीषाश्च दृश्यन्ते त्रय एते जनार्दन । | 5-143-41a 5-143-41b |
अश्वत्थामा कृपश्चैव कृतवर्मा च सात्वतः । | 5-143-42a 5-143-42b |
उष्ट्रप्रयुक्तमारूढौ भीष्मद्रोणौ महारथौ । | 5-143-43a 5-143-43b |
अगस्त्यशास्तां च दिशं प्रयाताः स्म जनार्दन । | 5-143-44a 5-143-44b |
अहं चान्ये च राजानो यच्च तत्क्षत्रमण्डलम् । | 5-143-45a 5-143-45b |
कृष्ण उवाच। | 5-143-46x |
अपस्थितविनाशेयं नूनमद्य वसुंधरा। | 5-143-46a 5-143-46b |
सर्वेषां तात भूतानां विनाशे प्रत्युपस्थिते। | 5-143-47a 5-143-47b |
कर्ण उवाच। | 5-143-48x |
अपि त्वां कृष्ण पश्यामो जीवन्तोऽस्मान्महारणात्। | 5-143-48a 5-143-48b |
अथवा सङ्गमः कृष्ण स्वर्गे नो भविता ध्रुवम्। | 5-143-49a 5-143-49b |
वैशंपायन उवाच। | 5-143-50x |
इत्युक्त्वा माधवं कर्णः परिष्वज्य च पीडितम्। | 5-143-50a 5-143-50b |
ततः स्वरथामस्थाय जाम्बूनदविभूषितम्। | 5-143-51a 5-143-51b |
ततः शीघ्रतरं प्रायात्केशवः सहसात्यकिः। | 5-143-52a 5-143-52b |
।। इति श्रीमन्महाभारते |
5-143-21 उदपानाः कूपादयो जलाशयाः ।। 5-143-23 गन्धर्वनगरं सप्राकारम्। परिघः परिवेषः । तत्राकाशे गन्धर्वनगरोपर्येव ।। 5-143-24 शिवा श्रृगालः वाशते शब्दं करोति ।। 5-143-30 सहस्रपादं सहस्रस्तम्भम् ।। 5-143-32 तव पृथिवीति संबन्धः। त्वच्छरीरमित्यर्थः । परिक्षिप्ता परिवेष्टिता ।। 5-143-46 तव हृदयं कर्तृ मम वचो नोपैति नाङ्गीकरोति ।।
उद्योगपर्व-142 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | उद्योगपर्व-144 |