पृष्ठम्:भोजप्रबन्धः (विद्योतिनीव्याख्योपेतः).djvu/१५

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भोजप्रबन्धः ७ अधिक क्या-लेने और देने के तथा करने योग्य कार्य को शीघ्रता पूर्वक न करनेवाले मनुष्य की संपत्ति को काल नष्ट कर डालता है । बुद्धिमान् मनुष्य अवमानना का ग्रहण कर तथा मान की चिंता न करके स्वार्थ-सिद्धि करे; क्योंकि स्वार्थ में झूकना मूर्खता है। बुद्धिमान् थोड़े के लिए अधिक को न गँवादे । थोड़े के मूल्य पर अधिक की रक्षा करलेना ही बड़ी पंडिताई है। जो मनुष्य शत्रु अथवा रोग को उत्पन्न होते ही नष्ट नहीं कर देता, वह अत्यंत पुष्ट अंगों वाला होकर भी बाद में शत्रु अथवा रोग से मारा जाता है । जिस प्रकार हाथ में छाता धारण करनेवाले मनुष्य का जलधाराएँ कुछ नहीं कर सकतीं, उसी प्रकार बुद्धि द्वारा शरीर-रक्षा करनेवाले मनुष्य का संगठित शत्रु भी कुछ नहीं कर सकते । निष्फल, कष्टसाध्य, जिनमें हानि-लाम समान हो और जो न हो सके, ऐसे कार्य का आरंभ बुद्धिमान् को नहीं करना चाहिए । ततश्चैवं विचिन्तयन्नमुक्त एव दिनस्य तृतीये याम एक एव मन्त्रयित्या बङ्गदेशाधीश्वरस्य महावलस्य वत्सराजस्या (१) कारणाय स्वमङ्गरक्षकं प्राहिणोन् । स चाङ्गरक्षको वत्सराजमुपेत्य प्राह - 'राजा त्वामाकारयति' इति । ततः स रथमारुह्य परिवारेण परिवृतः समागतो रथोदवतीर्य राजानमवलोक्य प्रणिपत्योपविष्टः । फिर इसी प्रकार सोचते हुए विना कुछ खाये-पिये राजा ने अकेले ही मंत्रणा करके दिन के तीसरे पहर में बंगदेश के अधीश्वर महाबली वत्सराज को बुलाने के लिए अपने अंग रक्षक को भेजा। वत्सराज के निकट पहुँच कर वह अंगरक्षक बोला-'राजा आपको बुलाता है।' सो वह परिवार सहित रथ पर चढ़ कर आ पहुँचा और रथ से उतर राजा को देख प्रणिपात करके बैठ गया। राजा च सौधं निर्जन (२) विधाय वत्सराजं प्राह- 'राजा तुष्टोऽपि भृत्यानां मानमात्रं प्रयच्छति । ते तु सम्मानितास्तस्य प्राणैरप्युपर्वते ॥ १७ ॥ ततस्त्वया भोजो भुवनेश्वरीविपिने हन्तव्यः प्रथमयामे निशायाः। (१) आह्वानायेति यावत् । (२) जनरहितम् ।