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पृष्ठम्:भोजप्रबन्धः (विद्योतिनीव्याख्योपेतः).djvu/१८५

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१०२ भोजप्रबन्धः 'अहह महाराज, तत्रभवताहं वञ्चितोऽस्मि' इत्यभिधाय झटिति तं श्लोकं प्रकारान्तरेण पपाठ-- इस प्रकार ज्योंही कवि ने मरणश्लोक पढ़ा, त्योंही वह योगी बेसुध होकर धरती पर गिर पड़ा। तो उसे बेसुध देखकर कालिदास को निश्चय हो गया कि यह भोज ही है; और 'अहा महाराज, श्रीमान् ने ने मुझे धोखे में डाल दिया', यह कर झट से श्लोक को दूसरे प्रकार से पढ़ दिया-- 'अद्य धारा सदाधारा सदालम्बा सरस्वती। पण्डिता मण्डिताः सर्वे भोजराजे भुवं गते' ॥ ३२७ ॥ ततो भोजस्तमालिङ्गय प्रणम्य धारानगरं प्रति ययौ । आज धारा का सुजन आधार, शारदा का है सुजन अवलंब, हुए मंडित आज पंडित लोग, भोजराज विराजते भूलोक । तदनंतर भोज उसका आलिंगन कर प्रणाम करके धारानगरी को गया। शैले शैलविनिश्चलं च हृदयं मुञ्जस्य तस्मिन्क्षणे ___भोजे जीवति हर्षसंचयसुधाधाराम्बुधौ मज्जति । स्त्रीभिः शीलवतीभिरेव सहसा कर्तु तपस्तत्परे ___ मुञ्जे मुञ्चति राज्यभारमभजत्त्यागैश्च भोगैर्नृतः ॥३२८।। उस काल ( जब भोज के शिरच्छेद की आज्ञा दी थी ) मुंज का हृदय पहाड़ पर पड़े पत्थर के समान अत्यंत निश्चल हो गया था; भोज के जीवित । रह जाने पर वही हृदय जैसे विपुल हर्ष की अमृत धाराओं के समुद्र में स्नान करने लगा (मुंज अत्यंत प्रसन्न हुआ) । फिर अकस्मात् शीलवती रानियों के साथ तप करने को तत्पर मुंज के राज्यभार छोड़ देने पर राजा भोज ने त्याग और भोग-दोनों करते हुए उस राज्य का उपभोग किया।

  • इति भोजप्रबन्धः समाप्तः *