गीतों पर अंधे बने मृग न घास चरते हैं, |
राजा ने उसे प्रति अक्षर लाख मुद्राएँ दीं।
ततो गृहमागत्य गवाक्ष उपविष्टः । तत्र चासीनं भोजं दृष्ट्वा राज- वर्त्मनि स्थित्वा कश्चिदाह--'देव, सकलमहीपाल, आकर्णय ।
इतश्चेतश्चाद्भिर्विघटिततटः सेतुरुदरे |
तुष्टो भोजो वर्त्मनि स्थितायैव तस्मै वंश्यान्पञ्च गजान्ददौ।
तदनंतर घर, आकर राजा झरोखे में बैठ गया। वहां बैठे भोज को देखकर मार्ग में खड़े होकर किसी ने कहा--'देव, संपूर्ण धरती के पालन- कर्ता, सुनिए-
'इतस्ततः जल के कारण सेतु (पुल) के तट बीच में से टूट गये हैं, घरती दुर्लध्य है और यह पर्वत भी बहुत हिमपात से पंकिल हो गया है । इस समय हाथी-घोड़ों (के सैन्य ) के तैयार हो जाने पर आपके वैरी न जाने किस मार्ग से भाग पायेंगे ?'
संतुष्ट भोज ने मार्ग में ही खड़े उस व्यक्ति को श्रेष्ठ पांच हाथी दिये ।
कदाचिद्राजा मृगयारसपराधीनो हयमारुह्य प्रतस्थे ।
ततो नदी समुत्तीर्ण शिरस्यारोपितेन्धनम् । |
कभी राजा आखेट रस के अधीन हो घोड़े पर चढ़े जा रहे थे
तब नदी पार करते सिर पर ईंधन रखे एक व्यक्ति को वेष से उसे ब्राह्मण
जान कर राजा ने तुरंत उससे पूछा।
राजा---कियन्मानं जलं विप्र ।
स आह–'जानुदध्नं नराधिप ।'
चमत्कृतो राजाह-'ईशी किमवस्था ते'
स आह--'नहि सर्वे भवादृशा' ॥१८५।।