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भोजप्रबन्धः

 राजा-हे विप्र; जल कितना गहरा है ? ( जल कितना मान है ? )

 वह बोला-हे राजन्, घुटनों तक है । ( जानुदघ्न महाराज !)

 अचरज में भर राजा-तुम्हारी यह अवस्था कैसी है ?

    (ऐसी तेरी दशा क्यों ? )

 वह बोला--सब आप जैसे नहीं हैं । ( तेरे जैसे सब नहीं।)

 राजा प्राह कुतूहलात्–'विद्वन् , याचस्व कोशाधिकारिणम् । लक्ष दास्यति मद्वचसा ।' ततो विद्वान्काष्ठं भूमौ निक्षिप्य कोशाधिकारिणं गत्वा प्राह--'महाराजेन प्रेषितोऽहम् । लक्षं मे दीयताम् ।' ततः स हस- न्नाह--'विप्र, भवन्मूर्तिलक्ष नार्हति ।

 राजा ने कुतूहल से पूर्ण हो कहा-'हे पंडित, कोशाधिकारी से मांगों। मेरी आज्ञा से लाख मुद्राएँ देगा।' सो विद्वान् लकड़ियाँ धरती पर डाल कर कोशाधिकारी से जाकर वोला---'मुझे महाराज ने भेजा है। मुझे लाख मुद्राएँ दो।' वह हँसता हुआ बोला--'ब्राह्मण, आपका स्वरूप लाख पाने योग्य नहीं प्रतीत होता।'

 ततो विषादी स राजानमेत्याह--'स पुनहसति देव, नार्पयति ।' राजा कुतूहलादाह-'लक्षद्वयं प्रार्थय । दास्यति ।' पुनरागत्य विप्रः 'लक्ष- द्वयं देयमिति राज्ञोक्तम्' इत्याह । स पुनर्हसति ।

 तो विषाद पूर्ण हो वह जाकर राजा से वोला-'महाराज, वह तो हँसता है, देता नहीं ।' राजा कुतूहल से बोला---'दो लाख माँगो, देंगा ।' ब्राह्मण पहुँच कर फिर बोला--'राजा ने कहा है कि दो लाख देना है।' वह फिर हँसने लगा।

 विप्रः पुनरपि भोज प्राप्याह-'स पापिष्टो मां हसति नार्पयति ।' ततः कौतूहली लीलानिधिर्महीं शासश्रीभोजराजः प्राह-'विप्र, लक्षत्रयं याचस्व । अवश्यं स दास्यति ।' स पुनरेत्य प्राह–'राजा मे लक्षत्रयं - दापयति । स पुनर्हसति ।

 ब्राह्मण ने फिर भोज के पास पहुँच कर कहा-'वह पापी मुझ पर हंसता है, देता नहीं।' तब कौतुकी और लीला के आगार, पृथ्वी के शासक श्री भोजराज ने कहा-'विप्र, तीन लाख माँगो, वह अवश्य देगा।' वह फिर