ततः कदाचिद्राजा क्रीडोद्यानं प्रस्थितो मध्ये मार्ग कामपि मलिनां- शुवसनां [१]तीक्ष्णतरतपनकरविदग्धमुखारविन्दा सुलोचनां लोचनाभ्यामालोक्य पप्रच्छ-
'का त्वं पुत्रि' इति ।
सा च तं श्रीभोजभूपालं मुखश्रिया विदित्वा तुष्टा प्राह---
'नरेन्द्र, लुब्धकवधूः'
हर्षसम्भृतो राजा तस्याः पटुबन्धानुबन्धेनाह-
'हस्ते किमेतत्
सा चाह--'पलम्' राजाह-'क्षामं किम्' सा चाह-'सहजं ब्रवीमि नृपते यद्यादराच्छ्रुयते ।
गायन्ति त्वदरिप्रियाश्रुतटिनीतीरेषु सिद्धाङ्गना। |
राजा तस्य प्रत्यक्षरं लदं प्रादात् ।
तदनंतर कभी राजा ने क्रीडा वाटिका को जाते हुए बीच रास्ते में किसी मलिन वस्त्र धारिणी, तीव्र सूर्य किरणों से झुलसे मुख कमल वाली, सुनयना को अपनी आँखों से देख कर पूछा-
'वेटी, तुम कौन हो?'
मुख की कांति से उसे श्रीमान् राजा भोज समझ कर संतुष्ट हो वह बोली-
'राजन्, मैं हूँ व्याध पत्नी।'
उसकी सुन्दर पद-योजना से प्रसन्नता में भर कर राजा ने कहा-
'क्या है यह हाथ में ?
वह बोली-'मांस है।'
राजा ने कहा-'सूखा है क्यों ?'
वह बोली-'कहती हूँ स्पष्ट, यदि आदर से सुनें आप---
गाती हैं, सुरांगनाएँ आपके वैरियों की प्रियाओं के आँसू से बनी नदियों के तीर पर--
- ↑ सूर्योष्णकिरणदग्धामित्यर्थः ।