ततः कदाचित्कुम्भकारवधू राजगृहमेत्य द्वारपालं प्राह--द्वारपाल, राजा द्रष्टव्यः। स आह--'किं ते राज्ञा कार्यम् । सा चाह--'न तेऽभि- धास्यामि । नृपाग्र एवं कथयामि ।' स सभायामागत्यप्राह--'देव, कुम्भकारप्रिया काचिद्राज्ञो दर्शनाकाक्षिणी न वक्ति मत्पुरः कार्यम् । भवत्पुरतः कथयिष्यति ।' राज्ञा-'प्रवेशय ।' सा चागत्य नमस्कृत्य वक्ति--
'देव मृत्खननाद्दृष्टं निधानं वल्लभेन मे। |
तदनंतर कभी कुम्हार की पत्नी राज भवन पहुँचकर द्वारपाल से बोली- 'द्वारपाल, राजा के दर्शन करना चाहती हूँ।' उसने पूछा-'राजा से तेर। क्या काम है ?' वह बोली-'तुझसे नहीं कहूँगी । राजा के संमुख ही कहूंगी।' वह सभा में आकर बोला-'महाराज, आप के दर्शन की कांक्षिणी एक कुम्हारिन मुझे अपना कार्य नहीं बताती, आपके संमुख ही कहेगी। राजा ने कहा-'प्रवेश कराओ।' वह आकर और नमस्कार करके बोली- 'महाराज, मेरे प्रियतम ने मिट्टी खोदने पर धन देखा है, वे उसकी देख- रेख करते वहीं हैं, मैं आप से निवेदन करने आयी हूँ।'
राजा च चमत्कृतो निधानकलशमानयामास । तद्वारमुद्धाट्य यावत्पश्यति राजा तावत्तदन्तर्वर्तिद्रव्यमणिप्रभामण्डलमालोक्य कुम्भकार पृच्छति-'किमेतत्कुम्भकार ।' स चाह--
'राजचन्द्रं समालोक्य त्वां तु भूतलमागतम् । |
राजा कुम्भकारमुखाच्छलोकं लोकोत्तरमाकर्ण्य चमत्कृतस्तस्मै सर्वं ददौ।
आश्चर्यान्वित राजा ने धन का कलसा मँगवाया और उसका मुँह खोल कर जैसे ही उसे देखा, वैसे ही उसके भीतर रखे धन और मणियों के प्रभा मंडल को देखकर कुम्भकार से पूछा---'हे कुंभकार, यह क्या है ?' वह बोला-
'धरणी तल पर आये आप राजा रूपी चन्द्रमा को देखकर रत्नों के रूप से मानो नक्षत्र आ गये हैं।'
- ↑ रत्नपङ्क्तिव्याजेनेत्यर्थः ।