'शिवशिरसि शिरांसि यानि रेजुः शिव शिव तानि लुठन्ति गृध्रपादे । |
तब भोज ने कालिदास से कहा-'सुकवे, तुम भी ( रामायण के ) कवि
के हृदय का भाव पढ़ो।' कालिदास ने कहा-
जो सिर सुशोभित थे शिवजी के मस्तक पर |
ततस्तस्य शिलाखण्डस्य पूर्वपुटे जतुशोधनेन कालिदासपठितं तमेव दृष्ट्वा राजा भृशं तुतष<>।।
तदनंतर उस शिला खंड के पहिले भाग में जतु शोधन क्रिया के द्वारा कालिदास के पढ़े गये ही पदों को देखकर राजा अत्यंत संतुष्ट हुआ ।
(२७) ब्रह्मराक्षमनिवारणम् |
कदाचिद्भोजेन विलासार्थं नूतनगृहान्तरं निर्मितम् । तत्र गृहान्तरे गृहप्रवेशात्पूर्वमेकः कश्चिद्ब्रह्मराक्षसः प्रविष्टः । स च रात्रौ तत्र ये वसन्ति तान्भक्षयति । ततो मान्त्रिकान्समाहूय तदुच्चाटनाय राजा यतते स्म । स चाडगाच्छन्नेव मान्त्रिकानेव भक्षयति।किंच स्वयं कवित्वादिकं पूर्वाभ्यस्तमेव पठन्तिष्ठति। एवं स्थिते तत्रैव पक्षसि राजा 'कथमस्य निवृत्तिः इति व्यचिन्तयत् ।
एक समय भोज ने आनंद-विलास के लिए एक और नया घर बनवाया। उस दूसरे घर में गृह प्रवेश मे पहिले ही एक ब्रह्मराक्षस प्रविष्ट हो गया । रात में जो वहाँ रहते थे, वह उन्हें खा जाता था। तो राजा ने मंत्रवेत्ताओं को - बुलाकर उसे भगाने का प्रयत्न किया; किंतु ब्रह्मराक्षस वहाँ से न जाकर मांत्रिकों को ही खा जाता और इसके अतिरिक्त राक्षस होने से पहिले की स्थिति में अभ्यस्त काव्य आदि का पाठ करता हुआ जमा रहता। राक्षस के
' ११ भोक