पृष्ठम्:भोजप्रबन्धः (विद्योतिनीव्याख्योपेतः).djvu/१५१

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भोजप्रबन्धः


 अन्यदा राजा कौतुकाकुलः सीतां प्राह-'देवि, सुरतं पठ' इति । सीता प्राह-

सुरताय नमस्तस्मै जगदानन्दहेतवे।
आनुपङ्गि फलं यस्य भोजराज भवादृशाम् ।। २८६॥

 ततस्तुष्टो राजा तस्यै हारं ददौ । किसी दूसरी वार कोतक में भर कर राजा ने सीता से कहा- दाविी

सुरत का वर्णन करो।' सीता ने कहा-

जगदानंदसुहेतु सुरत को नमस्कार है,
जिसके गौणफल भोज, आप जैसे जनमें हैं।

 (जगत के आनंद के कारण स्वरूप सुरत को नमस्कार है, जिसका गौण फल हे भोजराज, आप जैसों की उत्पत्ति है।)

तुष्ट होकर राजा ने उसे हार दे दिया।

 ततो राजा चामरग्राहिणीं वेश्यामवलोक्य कालिदासं प्राह-'सुकवे, वेश्यामेनां वर्णय' इति । तामवलोक्य कालिदासः प्राह--...

'कचभारात्कुचभारः कुचमाराद्भीतिमेति कचभारः।
कचकुचभाराज्जघनं कोऽयं चन्द्रानने चमत्कारः ॥ २६०॥

 तत्पश्चात् चँवर डुलाने वाली वेश्या को देखकर राजा ने कालिदास से कहा-'हे सुकवि, इस वेश्या का वर्णन करो।' उसे देख कालिदास ने कहा-

 केशों के बोझ से स्तनों का भार और स्तन भार से केशों का भार डर रहा है और केश और कुच--इन दोनों के भार से जघन स्थल डर रहा है। हैं चंद्रमुखी, यह कैसा चमत्कार है।

भोजस्तुष्टः सन्स्वयमपि पठति--
'वदनात्पदयुगलीयं वचनादधरश्च दन्तपङ्क्तिश्च ।
कचतः कुचयुगलीयं लोचनयुगलं च मध्यतस्रसंति' ।। २६१ ॥

संतुष्ट होकर भोज ने स्वयं भी पढ़ाः-

 मुख से दोनों पैर और वचन से ओठ और दाँत डर रहे हैं और केशों से दोनों कच; और मध्य भाग ( कमर) से दोनों नेत्र डर रहे हैं। .