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भोजप्रवन्धः


(२५) अदृष्टपरह्रदयबोद्धा कालिदासः ।

 अन्यदा भोजो राजा धारानगर एकाकी विचरन्कस्यचिद्विप्रवरस्य गृहं गत्वा तत्र काञ्चन पतिव्रतां स्वाङ्के शयानं भर्तारमुद्वहन्तीमपश्यत् । ततस्तस्याः शिशुः सुप्तोत्थितो ज्वालयाः ससीपमगच्छत् । इयं च पति- धर्मपरायणा स्वपति नोत्थापयामास । ततः शिशुं च वह्नौ पतन्तं नागृह्णात् । राजा चाश्चर्यमालोक्यातिष्ठत् । .

  दूसरी वार धारा नगर में राजा अकेले विचरण करते हुए किसी ब्राह्मण श्रेष्ठ के घर पहुँच गया; वहां उसने एक पतिव्रता नारी को अपनी गोद में सिर पर सोये स्वामी को लिये हुए देखा। तभी उसका छोटा बच्चा सोते से जाग कर जलती आग के पास जा पहुँचा। उस पतिधर्म परायणा ( पति-सेवा में लगी) ने अपने पति को ( गोद ले ) नहीं हटाया। आग में गिरते बच्चे को भी नहीं पकड़ा। राजा यह अनोखी: बात देखकर रुक गया।

 ततः सा पतिधर्मपरायणा वैश्वानरमप्रार्थयत्-'यज्ञेश्वर ! त्वं सर्वकर्मसाक्षी सर्वधर्माञ्जानासि। मां पतिधर्मपराधीनां शिशुमगृह्णन्तीं च जानासि । ततो मंदीयशिशुमनुगृह्य त्वं मा दह' इति । ततः शिशुर्यज्ञेश्वरं प्रविश्य तं च हस्तेन गृहीत्वार्धघटिकापर्यन्तं तत्रैवातिष्टत् ।

 तब उस पति धर्म का पालन करती नारी ने अग्नि देव से प्रार्थना की-- 'हे यज्ञ के स्वामी, सब कर्मों के देखने वाले आप सब धर्मो के ज्ञाता हैं। पति धर्म का पालन करने से पराधीन हुई मैं अपने बच्चे को नहीं पकड पा रही हैं- यह भी जानते हैं । तो मेरे बच्चे पर अनुग्रह करके आप इसे न जलायें।' तो वह बच्चा अग्नि में प्रविष्ट होकर और उसे हाथ से पकड़ कर घड़ी भर वहीं रहा।

 ततो नारोदीत्प्रसन्नमुखश्च शिशुः, सा च ध्यानारूढातिष्ठत् । ततो यहच्छ्या समुस्थिते भर्तरि सा झटिति शिशुं जग्राह च परं धर्ममालोक्य विस्मयाविष्टो नृपतिराह-'अहो, मम समं भाग्य कस्यास्ति, यदीदृश्यः पुण्यस्त्रियोऽपि मन्नगरे वसन्ति' इति ।