'व्यसनिन इव विद्या क्षीयतेपङ्कजश्री- . |
कुनृपतिरिव लोकं पीडयत्यन्धकारो |
तत्पश्चात् कालिदास और भोजराज के वहाँ बैठे-बैठे साँझ हो गयी। राजा ने कहा-'मित्र, संध्या का वर्णन करो।'
कालिदासने वर्णन किया-
कमल की शोभा व्यसनों में लीन मनुष्य की विद्या के समान क्षीण हो रही है, जैसे परदेस में गुणी दीनता को प्राप्त हो जाते हैं, वैसे ही भौंरे दीनता को प्राप्त हो रहे हैं। बुरे राजा की भांति अंधकार संसार को पीडा दे रहा है और कजूस के धन के तुल्य नेत्र व्यर्थ हो रहे हैं । पुनश्च राजानं स्तौति कविः -
'उपचारः कर्तव्यो यावदनुत्पन्नसौहृदाः पुरुषाः । |
इति । ततः क्रमेण भोजकालिदासयोः प्रीतिरजायत ।
फिर कवि ने राजा की स्तुति की--
जब तक पुरुषों में मित्रता उत्पन्न न हो, उपचार ( बाह्य आचार )
तभी तक करना उचित हैं। जिनमें मैत्री हो गयी है, उनमें दिखावा वरतना वंचना है।
उसने सोने से भरी पूरी समूची घरती ही कवियों को दे डाली, जो अलौकिक सुकाव्य की रचना और उसके पूर्वा पर संबध को समझता है।
सुकवि के शब्द-सौभाग्य को सुकवि ही जानता है, अन्य नहीं, दूसरे की गर्भ-संपदा ( संतान को पेट में रखने का सौभाग्य) को वाँझ नहीं जानती।