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पृष्ठम्:भोजप्रबन्धः (विद्योतिनीव्याख्योपेतः).djvu/३९

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भोजप्रवन्धः


'विप्रोऽपि यो भवेन्मूर्खः स पुराद्बहिरस्तु मे।
कुम्भकारोऽपि यो विद्वान्स तिष्ठतु पुरे मम' ।। ७४ ।।

इति । अतः कोऽपि.न मूर्खोऽभूद्धारानगरे।।

तदनंतर एकवार राजा ने मुख्य मंत्री से कहा-

 ब्राह्मण भी यदि मूर्ख हो, तो . मेरी पुरी के बाहर रहे और कुम्हार भी यदि विद्वान् हो तो मेरे नगर में निवास करे।

अतः धारा नगर में कोई मूर्ख नहीं रहा।

३- राजसभायां कालिदासस्य आगमनम्

 ततः क्रमेण पञ्चशतानि विदुषां वररुचि-बाण-मयूर-रेफण-हर- शंकर-कलिङ्ग-कपूर-विनायक-मदन-विद्या-विनोद-कोकिल-तारेन्द्रमुखाः सर्वशास्त्रविचक्षणाः सर्वे सर्वज्ञाः श्रीभोजराजसभामलंचक्रुः । एवं स्थिते कदाचिद्विद्वद्वृन्दवन्दित-सिंहासनासीने कविशिरोमणौ कवित्वप्रिये विप्रप्रियवान्धवे भोजेश्वरे द्वारपाल एत्य प्रणम्य व्यजिज्ञपत्–'देव, कोऽपि विद्वान्द्वारि तिष्ठति' इति ।

 तत्पश्चात् धीरे-धीरे समस्त शास्त्रों के विज्ञाता, सब सबकुछ जानने वाले वररुचि, बाण, मयूर, रेफण, हरि, शंकर, कलिंग, कर्पूर, विनायक मदन, विद्या विनोद, कोकिल, तारेंद्र आदि पाँच सौ विद्वान् श्री भोजराज की सभा को सुशोभित करने लगे। इस प्रकार कभी विद्वत्समूह द्वारा वंदित सिंहासन पर कवि शिरोमणि, कवित्व को प्रेम करनेवाले, ब्राह्मणों के प्यारे बंधु राजा भोज के बैठे होने पर द्वारपाल ने आकर तथा प्रणाम करके निवेदन किया- 'महाराज, द्वार पर कोई विद्वान् प्रतीक्षा कर रहा है।'

अथ राज्ञा 'प्रवेशय तम्' इत्याज्ञप्ते सोऽपि दक्षिणेन पाणिना
समुन्नतेन विराजमानो विप्रः प्राह-राजन्नभ्युदयोऽस्तु' :
राजा--'शंकरकवे कि पत्रिकायामिदम्'
कविः --'पद्यम्
राजा--'कस्य'
कविः--'तवैव भोजनृपते'
राजा-तत्पठ्यताम्'