तदस्मै चोराय प्रतिनिहतमृत्युप्रतिभिये
प्रभुः प्रीतः प्रादादुपरितनपादद्वयकृते ।
सुवर्णानां कोटीर्दश दशनकोटिक्षतगिरी-
न्गजेन्द्रानप्यष्टौ मदमुदितकूजन्मधुलिहः ।। २३७ ।।
तो कोषाधिकारीने धर्मपत्र में लिखा--
उपर्युक्त दो चरणों की रचना पर प्रसन्न हो स्वामी ने मृत्यु के आतंक से निर्भय कर चोर को सोने की, दस कोटियाँ और दांतों की नोकों से पर्वतों को तोड़ देने वाले और जिनके टपकते मदपर मोद से भरे मधुके चटोरे भोरे भनमनाते रहते थे ऐसे आठ गजराज दिये ।
ततः कदाचिद्वारपाल आगत्य प्राह-'देव- कौपीनावशेषो विद्वा- न्द्वारि वर्तते' इति । राजा--'प्रवेशय' इति । ततः प्रविष्टः स कविर्भोज- मालोक्याद्य मे दारिद्रनाशो भविष्यतीति नत्वा तुष्टो हर्षाश्रूणि मुमोच ।
कभी द्वारपाल आकर बोला--"एक कौपीनमात्र धारण किये विद्वान् द्वार पर उपस्थित है । 'राजाने कहा--'प्रविष्ट कराओ।' तब प्रविष्ट हो वह कवि भोजराज को देख यह मानकर कि आज मेरी दरिद्रता का नाश होगा, प्रसन्नता के आंसू गिराने लगा।
राजा तमालोक्य प्राह-'कवे, किं रोदिषि' इति । ततः कविराह- 'राजन्, आकर्णय मद्गृहस्थितिम् । ..
अये लाजाउच्चैः पथि वचनमाकर्ण्य गृहिणी
शिशोः कर्णौ यत्नात्सुपिहितवती दीनवदना ।
मयि क्षीणोपाये यकृत दृशावश्रुबहुले
तदन्तः शल्यं में त्वमसि पुनरुद्धर्तुर्मुचितः॥ २३८ ॥
राजा शिव शिव कृष्ण कृष्ण इत्युदीच्यन्प्रत्यक्षरलक्षं दत्वा प्राह- 'सुकवे त्वरितं गच्छ गेहम् । त्वद्गृहिणी खिन्नाभूत्' इति।
राजा ने उसे देखकर कहा-'हे कवि, रोते क्यों हो ?' तो कवि बोला-'महाराज, मेरे घर की दशा सुनें--
'खीलें लो खीलें' मार्ग में उच्च स्वर में कहे जाते इन वचनों को सुन कर दीनमुखी हो मेरी घरनी ने बच्चे के कानों को प्रयत्नपूर्वक भली भांति