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भोजप्रबन्धः

 तुम कमनीय हो, अत्यंत मधुर हो, रस तुझसे टपका- जा रहा है, और क्या कहें कि तुम पंचशर काम के अद्वितीय धनुष हो; हे गन्ने, तुम में सब कुछ है, पर एक कमी है कि सेवित होने पर (चूसे जाने पर ) धीरे-धीरे नीरसता को प्राप्त हो जाते हो ।

 राजा ने कवि के हृदय को समझ कर कविमयूर को संमानित किया । ततः कदाचिद्रात्रौ सौधोपरि क्रीडापरो राजा शशाङ्कमालोक्य प्राह--

'यदेतच्चन्द्रान्तर्जलदलवलीलां वितनुते
तदाचष्टे लोकः शशक इति नो मां प्रति तथा ।'

ततश्चाधो भूमौ सौधान्तः प्रविष्टः कश्चिञ्चोर आह-

'अहं त्विन्दुं मन्ये त्वदरिविरहाक्रान्ततरुणी.
कटाक्षोल्कापातव्रणकण कलङ्काङ्किततनुम् ।।२३६ ।।

 कभी रात मे महल के ऊपर क्रीडारत राजा ने ( चंद्रमा के ) शशचिह्न को देखकर कहा--

 यह जो चन्द्रमा के मध्य मेघखंड जैसी कुछ प्रतीति है, लोक उसे शशक कहता है किंतु मुझे ऐसा नहीं लगता ।

 तो नीचे के तलमें महल के भीतर घुसा कोई चोर बोला--

  मैं तो समझता हूँ आपके वैरियों की विरह पीडिता तरुणियों के कटाक्षों के कारणं जो उल्कापात होता है, उसी से हुए घाव के कलंक का यह चिह्न चन्द्रमा के शरीर में है।

 राजा तच्छु त्वा प्राह--'अहो महाभाग, कस्त्वमर्धरात्रे कोशगृहमध्ये तिष्ठसि' इति । स आह--'देव, अभयं नो देहि' इति । राजा--'तथा' इति । ततो राजानं स चोरः प्रणम्य स्ववृत्तान्तमकथयत् । तुष्टो राजा चोराय 'दश कोटीः सुवर्णस्योन्मत्तान्गजेद्रांश्च ददौ।।

  यह सुनकर राजा · बोला-हे महाभाग, कोषागार के मध्य आधीरात में घुसे तुम कौन हो ?' वह बोला-महाराज, मुझे अभय दीजिए ।' राजा ने कहा- ठीक है ।' तब राजा को प्रणाम करके चोर ने अपनी वार्ता कह डाली। संतुष्ट राजा ने चोर को सोने की दस कोटियाँ और मदमाते गजराज दिये ।

 ततः कोशाधिकारी धर्मपत्रे लिखति-