जलधरजलधारा दूरतस्तावदास्तां
ध्वनिरपि मधुरस्ते न श्रुतश्चातकेन' ।
राजा तदाकर्ण्य 'धिग्जीवितं यद्विद्वांसः कवयश्च द्वारमागत्य सीदन्ति' इति तस्मै विप्राय सर्वाण्यामरणान्युत्तार्य ददौ।
कोश में जो था, वह सब दे दिया गया-यह जानता हुआ भी राजा बोला-'आज द्वार पर आये कवि को प्रविष्ट करा दो तब विद्वान ने आकर 'स्वस्ति' यह उच्चारण करते हुए कहा --
हे जलधर, निराधार आकाश में बहुत समय तक कष्ट उठाते, तुम्हारी . ओर ऊपर को चोंच उठाये चातक ने तुम्हारी मधुर ध्वनि भी नहीं सुनी, जलधारा तो दूर रही।
यह सुनकर राजा ने सोचा कि उस जीवन को धिक्कार है कि द्वार पर आकर विद्वान् और कवि कष्ट भोगते हैं- और सब आभूपण उतार कर उस ब्राह्मण को दे दिये।
ततो राजा कोशधिकारिणमाहूयाह-'भाण्डारिक, मुञ्जराजस्य तथा मे पूर्वेषां च ये कोशाः सन्ति तेषां मध्ये रत्नपूर्णाः कलशाः कुत्र ।' ततः काश्मीरदेशान्मुचुकुन्द कविरागत्य 'स्वस्ति' इत्युक्त्वा प्राह-
'त्वद्यशोजलधौ भोज निमज्जनभयादिव।
सूर्येन्दुबिम्बमिपतो धत्ते कुम्भद्वयं नमः' ॥ २०६ ॥
राजा तस्मै प्रत्यक्षरं लक्षं ददौ।
इस के पश्चात् राजाने कोशाधिकारी को बुला कर कहा-'भंडारीजी मुंजराज के और मेरे पूर्व पुरुपों के जो कोश हैं, उनके बीच रत्नों से भरे कलश थे, वे कहाँ हैं ? तभी कश्मीर देश से मुचुकुंद कवि आकर और 'स्वस्ति' कह कर वोला-
हे भोज, तुम्हारी यशरूपी समुद्र में डूब जाने के डर से आकाश मानो. सूर्य और चंद्र के बिंब के व्याज से दो घड़े धारे हुए हैं ।
राजा ने उसे प्रत्येक अक्षर पर लक्ष मुद्राएं दीं। पुनः कविराह--
'आसन्क्षीणानि यावन्ति चातकाश्रूणि तेऽम्बुद ।
तावन्तोऽपि.त्वयोदार न मुक्ता जलबिन्दवः' ।। २१० ॥