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भोजप्रवन्धः

ततः स.राजा तस्मै शततुरगानपि ददौ। ततो भाण्डारिको लिखति-

'मुचुकुन्दाय कवये जात्यानश्वाञ्शतं ददौ।
भोजः प्रदत्तलक्षोऽपि तेनासौ याचितः पुनः' ॥२११ ॥

 कवि ने फिर कहा-

 हे जलधर, चातक ने तेरे लिए जितने आँसू गिराये, हे उदार, तूने उतने भी जलबिंदु नहीं गिराये ।

 तो राजाने उसे सौ घोड़े भी दे दिये । तव भंडारी ने लिखा--

 भोज ने यद्यपि लाख मुद्राएँ दी, तथापि उसने पुनः याचना की तो मुचुकुंद कवि को राजाने सौ अच्छी जाति के घोड़े दिये।

 ततो राजा सर्वानपि वेश्म प्रेषयित्वान्तर्गच्छति । ततोराज्ञश्चामरग्रा- हिणी प्राह-

'राजन्मुञ्जकुलप्रदीप सकलक्ष्मापालचूडामणे
युक्तं सञ्चरणं तवाद्भुतमणिच्छत्रेण रात्रावपि ।
' मा भूत्त्वद्वदनावलोकनवशाद्रीडाभिनम्रः शशी
मा भूच्चेयमरीन्धती भगवती दुःशीलताभाजनम्' ।। २१२ ॥

राज तस्यै प्रत्यक्षरं लक्षं ददौ ।

 तदनंतर राजा. सब को घर भेजकर महल में जाने लगा तो राजा की चँवर डुलाने वाली ने कहा-

 हे मुंज के कुलदीपक, समस्त नृपालों की चूडा स्थित मणि समान श्रेष्ठ भोजराज, रात में भी इस प्रकार अद्भुत मणिच्छत्र लगाकर आपका चलना युक्ति पूर्ण ही है क्योंकि आपके मुख को देख लेने के कारण कहीं चंद्रमा लज्जा से अवनत न हो जाय और भगवती अरुंधती ( नक्षत्र-रूप में स्थित ) दुःशीलता की पात्र न हो जायें।

 राजा ने उसे प्रत्यक्षर लक्ष मुद्राएँ दे दी।

 अन्यदा कुण्डिननगराद्गोपालो नाम कविरागत्य स्वस्तिपूर्वकं प्राह--

'स्वच्चित्ते भोज निर्यातं द्वयं तृणकरणायते ।
क्रोधे विरोधिनां सैन्यं प्रसादे कनकोच्चयः' ।। २१३ ।।