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पृष्ठम्:भोजप्रबन्धः (विद्योतिनीव्याख्योपेतः).djvu/३४

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भोजप्रवन्धः


 कवि आने लगे । इस प्रकार धन - आदि का व्यय करते हुए राजा से एक दिन मुख्यमंत्री ने इस प्रकार कहा-'महाराज, जिनपर कोश का बल होता है, वे ही राजा विजयी होते हैं, अन्य नहीं।

 जिसकी धरती अच्छी राज सेना से पूर्ण है, वह जयी होता है । जिसका कोश ठीक है, वह प्रचंड होता है; और जिस पर दुर्ग है, वह कठिनता से जीतने योग्य होता है।

 देव, दुनिया देखिए-  प्रायशः धन के प्रति धनवानों की ही तृष्णा बड़ी होती है। दो कोटि- दोनों छोरों पर खींचा गया धनुष जैसे लक्ष के लिए उपयुक्त होता है, वैसे ही दो कोटि अर्थात् दो करोड़ का स्वामी मनुष्य लाख पाने के लिए यत्नशील रहता है।

राजा च तमाह-

दानोपभोगवन्ध्या या सुहृद्भिर्या न भुज्यते ।
पुंसा समाहिता लक्ष्मीरलक्ष्मीः क्रमशो मवेत् ।। ६१ ॥

 इत्युक्त्वा राजा तं मन्त्रिणं निजपदाद्रीकृत्य तत्पदेऽन्यं निवेश- यामास।

आह च तम्-'लक्षं महाकवेयं तदध विबुधस्य च ।
देयं ग्रामैकमर्थ्यस्य तस्याप्यjdधं तदार्थिनः ॥ ६२ ॥

 यश्च मेऽमात्यादिषु वितरणनिषेधमनाः स हन्तव्यः । उक्तं च--

यद्ददाति यदश्नाति तदेव धनिनां धनम्।
अन्ये मृतस्य क्रीडन्ति दाररपि धनैरपि ।। ६३ ॥
प्रियः प्रजानां दातैव न पुनर्द्रविणेश्वरः ।
अयच्छंन्काङ्क्षते लोकैर्वारिदो न तु वारिधिः ।। ६४।।
सङ्ग्रहैकपरः प्रायः समुद्रोऽपि रसातले ।
दातारं जलदं पश्य.गर्जन्तं भुवनोपरि' ।। ६५ ।।

 राजा ने उससे कहा-

 जो दान.और उपभोग में नहीं आ पाती अथवा मित्रों द्वारा जिसका भोग