बुद्धिमान के संमुख स्वगुण कीर्तन उचित नहीं होता, क्यों कि वह तो स्वयं भली भांति जानता ही है । मूर्ख के आगे भी गुणकथन उचित नहीं क्यों कि वह बुद्धिमान का कहा समझेगा ही नहीं।
उसने सब को चमत्कृत कर दिया ।
रामेश्वरकविः--
'ख्यातिं गमयति सुजनः सुकविर्विदधाति केवलं काव्यम् । |
ततस्तुष्टो राजा प्रत्यक्षरं लक्षं ददौ ।
कवि रामेश्वर ने सुनाया--
सुकवि तो केवल काव्य रचता है, सज्जन उससे प्रसिद्धि प्राप्त करता है । जल कमल का केवल पोषण करता है परंतु सूर्य उसे लक्ष्मी (शोभा, विकास) से युक्त करता है।
तब संतुष्ट राजा ने प्रत्यक्षर एक लाख मुद्राएँ दी।
राजेन्द्रं कविः प्राह-
'कवित्वं न शृणोत्येव कृपणः कीर्तिवर्जितः । |
कविराज भोज से बोला-
यशोहीन कृपण, काव्य सुनता ही नहीं, नपुंसक पुरुप संमुख बैठी मृगनयना के साथ क्या. करता है ?
सीता प्राह-
'हता देवेन कवयो वराकास्ते गजा अपि । |
सीता ने कहा--
भाग्य ने उन बेचारे कवियों और हाथियों को भी मार डाला ( जिन्हे राजाश्रय नहीं मिला) । मंडलाधीश के घर को छोड़ उनकी शोभा नहीं होती।
कालिदासः--
'अदातृमानसं क्यापि न स्पृशन्ति कवेर्गिरः। |