सामग्री पर जाएँ

ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका (दयानन्दसरस्वतीविरचिता)/४. वेदविषयविचारः

विकिस्रोतः तः
← ३. वेदानां नित्यत्वविचारः ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका (दयानन्दसरस्वतीविरचिता)
दयानन्दसरस्वती
५. वेदसंज्ञाविचारः →
सम्पादकः — डॉ॰ ज्ञानप्रकाश शास्त्री, वैबसंस्करण-सम्पादकः — डॉ॰ नरेश कुमार धीमान्


अथ वेदविषयविचारः

[सम्पाद्यताम्]


वेदों के चार प्रमुख विषय

[सम्पाद्यताम्]

अत्र चत्वारो वेदविषयाः सन्ति, विज्ञानकर्मोपासनाज्ञानकाण्डभेदात्।

अब वेदों के नित्यत्वविचार के उपरान्त वेदों में कौन विषय किस-किस प्रकार के हैं, इसका विचार किया जाता है। वेदों में अवयवरूप विषय तो अनेक हैं, परन्तु उनमें से चार मुख्य हैं—(१) एक विज्ञान अर्थात् सब पदार्थों को यथार्थ जानना, (२) दूसरा कर्म, (३) तीसरा उपासना, (४) चौथा ज्ञान है।


प्रथम : विज्ञानविषय

[सम्पाद्यताम्]

तत्रादिमो विज्ञानविषयो हि सर्वेभ्यो मुख्योऽस्ति। तस्य परमेश्वरादारभ्य तृणपर्यन्तपदार्थेषु साक्षाद् बोधान्वयत्वात्। तत्रापीश्वरानुभवो मुख्योऽस्ति। कुतः? अत्रैव सर्वेषां वेदानां तात्पर्यमस्तीश्वरस्य खलु सर्वेभ्यः पदार्थेभ्यः प्रधानत्वात्।

‘विज्ञान’ उसको कहते हैं कि जो कर्म, उपासना और ज्ञान इन तीनों से यथावत् उपयोग लेना, और परमेश्वर से लेके तृणपर्यन्त पदार्थों का साक्षाद् बोध का होना, उनसे यथावत् उपयोग का करना, इससे यह विषय इन चारों में भी प्रधान है, क्योंकि इसीमें वेदों का मुख्य तात्पर्य है। सो भी दो प्रकार का है—एक तो परमेश्वर का यथावत् ज्ञान और उसकी आज्ञा का बराबर पालन करना, और दूसरा यह है कि उसके रचे हुए सब पदार्थों के गुणों को यथावत् विचार के उनसे कार्य सिद्ध करना, अर्थात् ईश्वर ने कौन-कौन पदार्थ किस-किस प्रयोजन के लिये रचे हैं। और इन दोनों में से भी ईश्वर का जो प्रतिपादन है सो ही प्रधान है।

अत्र प्रमाणानि—

इसमें आगे कठवल्ली आदि के प्रमाण लिखते हैं—

सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति तपाꣳसि सर्वाणि च यद्वदन्ति।

यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत्॥ (कठ॰२.१५)

तस्य वाचकः प्रणवः। (यो॰सू॰१.२७)

ओ३म् खं ब्रह्म॥ (यजु॰४०.१७)

ओमिति ब्रह्म॥ (तै॰आ॰७.८)

एषामर्थः—(सर्वे वेदाः०) यत्परमं पदं मोक्षाख्यं परब्रह्मप्राप्तिलक्षणं सर्वानन्दमयं सर्वदुःखेतरदस्ति तदेवौङ्कारवाच्यमस्ति। (तस्य॰) तस्येश्वरस्य प्रणव ओङ्कारो वाचकोऽस्ति, वाच्यश्चेश्वरः। (ओम्॰) ओमिति परमेश्वरस्य नामास्ति, तदेव परं ब्रह्म सर्वे वेदा आमनन्ति आसमन्तादभ्यस्यन्ति, मुख्यतया प्रतिपादयन्ति, (तपांसि) सत्यधर्मानुष्ठानानि तपांस्यपि तदभ्यासपराण्येव सन्ति, (यदिच्छन्तो॰) ब्रह्मचर्यग्रहणमुपलक्षणार्थं, ब्रह्मचर्यगृहस्थवानप्रस्थसंन्यासाश्रमाचरणानि सर्वाणि तदेवामनन्ति, ब्रह्मप्राप्त्यभ्यासपराणि सन्ति। यद् ब्रह्मेच्छन्तो विद्वांसस्तस्मिन्नध्यासमाना वदन्त्युपदिशन्ति च। हे नचिकेतः! अहं यमो यदीदृशं पदमस्ति तदेतत्ते तुभ्यं संग्रहेण संक्षेपेण ब्रवीमि।

इसमें आगे कठवल्ली आदि के प्रमाण लिखते हैं—(सर्वे वेदा॰) परमपद अर्थात् जिसका नाम मोक्ष है, जिसमें परब्रह्म को प्राप्त होके सदा सुख में ही रहना, जो सब आनन्दों से युक्त, सब दुःखों से रहित और सर्वशक्तिमान् परब्रह्म है, जिसके नाम (ओम्) आदि हैं, उसीमें सब वेदों का मुख्य तात्पर्य है। इसमें योगसूत्र, (यजुर्वेद और तैत्तिरीय आरण्यक) का भी प्रमाण है—(तस्य॰) परमेश्वर का ही ओंकार नाम है। (ओम् खं०) तथा (ओमिति॰) ओम् और खम् ये दोनों ब्रह्म के नाम हैं। और उसी की प्राप्ति कराने में सब वेद प्रवृत्त हो रहे हैं, उसकी प्राप्ति के आगे किसी पदार्थ की प्राप्ति उत्तम नहीं है, क्योंकि जगत् का वर्णन, दृष्टान्त और उपयोगादि करना ये सब परब्रह्म को ही प्रकाशित करते हैं, तथा (तपांसि) सत्यधर्म के अनुष्ठान, जिनको तप कहते हैं, वे भी परमेश्वर की ही प्राप्ति के लिये है, तथा (यदिच्छन्तो॰) ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम के सत्याचरणरूप जो कर्म हैं वे भी परमेश्वर की ही प्राप्ति कराने के लिये हैं, जिस ब्रह्म की प्राप्ति की इच्छा करके विद्वान् लोग प्रयत्न और उसीका उपदेश भी करते हैं। नचिकेता और यम इन दोनों का परस्पर यह संवाद है कि हे नचिकेतः! जो अवश्य प्राप्ति करने के योग्य परब्रह्म है, उसीका मैं तेरे लिये संक्षेप से उपदेश करता हूँ। और यहाँ यह भी जानना उचित है कि अलंकाररूप कथा से नचिकेता नाम से जीव और यम से अन्तर्यामी परमात्मा को समझना चाहिये।


वेदों में दो विद्याएँ : परा और अपरा

[सम्पाद्यताम्]

तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति। अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते॥१॥ (मुण्ड॰१.१.५)

(तत्रापरा॰) वेदेषु द्वे विद्ये वर्त्तेते, अपरा परा चेति। तत्र यया पृथिवीतृणमारभ्य प्रकृतिपर्यन्तानां पदार्थानां ज्ञानेन यथावदुपकारग्रहणं क्रियते सा अपरोच्यते। यया चादृश्यादिविशेषणयुक्तं सर्वशक्तिमद् ब्रह्म विज्ञायते सा पराऽर्थादपरायाः सकाशादत्युत्कृष्टास्तीति वेद्यम्।

(तत्रापरा॰) वेदों दो विद्या हैं—एक अपरा, दूसरी परा। इनमें से अपरा यह है कि जिससे पृथिवी और तृण से लेके प्रकृतिपर्यन्त पदार्थों के गुणों के ज्ञान से ठीक-ठीक कार्य सिद्ध करना होता है, दूसरी परा कि जिससे सर्वशक्तिमान् ब्रह्म की यथावत् प्राप्ति होती है। यह परा विद्या अपरा विद्या से अत्यन्त उत्तम है, क्योंकि अपरा का ही उत्तम फल परा विद्या है।

यत्तददृश्यमग्राह्यमगोत्रमवर्णमचक्षुःश्रोत्रं तदपाणिपादं नित्यं विभुं सर्वगतं सुसूक्ष्मं तदव्ययं यद्भूतयोनिं परिपश्यन्ति धीराः॥२॥ (मुण्ड॰१.१.६)

[जो देखा न जा सके, पकड़ा न जा सके, जिसका कोई गोत्र नहीं है, जिसका कोई रंग नहीं है, जिसको आँख और कान आदि ज्ञानेन्द्रियों की आवश्यकता नहीं है, जिसे हाथ-पैर आदि कर्मेन्द्रियों की भी आवश्यकता नहीं हैं, जो सर्वव्यापक और अत्यन्त सूक्ष्म है। उस क्षयरहित नित्य, व्यापक और जगत् के निमित्त कारण ब्रह्म को योगीजन सर्वत्र देखते हैं।]


अपरा विद्या (विज्ञान) का मुख्य प्रतिपाद्य ईश्वर

[सम्पाद्यताम्]

अन्यच्च—

तद्विष्णोः॑ पर॒मं प॒दं सदा॑ पश्यन्ति सूरयः॑। दि॒वी॑व॒ चक्षुरात॑तम्। (ऋ॰१.२२.२०)

अस्यायमर्थः—यत् (विष्णोः) व्यापकस्य परमेश्वरस्य, (परमम्) प्रकृष्टानन्दस्वरूपं, (पदम्) पदनीयं सर्वोत्तमोपायैर्मनुष्यैः प्रापणीयं मोक्षाख्यमस्ति, तत् (सूरयः) विद्वांसः सदा सर्वेषु कालेषु पश्यन्ति, कीदृशं तत्? (आततम्) आसमन्तात्ततं विस्तृतं यद्देशकालवस्तुपरिच्छेदरहितमस्ति, अतः सर्वैः सर्वत्र तदुपलभ्यते, तस्य ब्रह्मस्वरूपस्य विभुत्वात्। कस्यां किमिव? (दिवीव चक्षुराततम्) दिवि मार्त्तण्डप्रकाशे नेत्रदृष्टेर्व्याप्तिर्यथा भवति तथैव तत्पदं ब्रह्मापि वर्त्तते, मोक्षस्य च सर्वस्मादधिकोत्कृष्टत्वात् तदेव द्रष्टुं प्राप्तुमिच्छन्ति। अतो वेदा विशेषेण तस्यैव प्रतिपादनं कुर्वन्ति।

और भी इस विषय में ऋग्वेद का प्रमाण है कि—(तद्वि॰) विष्णु अर्थात् व्यापक जो परमेश्वर है, उसका (परमम्) अत्यन्त उत्तम आनन्दस्वरूप (पदम्) जो प्राप्त होने के योग्य अर्थात् जिसका नाम मोक्ष है उसको (सूरयः) विद्वान् लोग (सदा पश्यन्ति) सब काल में देखते हैं। वह कैसा है? सब में व्याप्त हो रहा है और उसमें देश, काल, वस्तु का भेद नहीं है, अर्थात् उस देश में है और इस देश में नहीं, तथा उस काल में था और इस काल में नहीं, उस वस्तु में है और इस वस्तु में नहीं, इसी कारण से वह पद सब जगह में सबको प्राप्त होता है, क्योंकि वह ब्रह्म सब‏ ठिकाने परिपूर्ण है। इसमें यह दृष्टान्त है कि (दिवीव चक्षुराततम्) जैसे सूर्य का प्रकाश आवरणरहित आकाश में व्याप्त होता है और जैसे उस प्रकाश में नेत्र की दृष्टि व्याप्त होती है, इसी प्रकार परब्रह्म पद भी स्वयंप्रकाश, सर्वत्र व्याप्तवान् हो रहा है। उस पद की प्राप्ति से कोई भी प्राप्ति उत्तम नहीं है। इसलिये चारों वेद उसीकी प्राप्ति कराने के लिये विशेष करके प्रतिपादन कर रहे हैं।


वेदान्त से भी वेद का प्रमुख प्रतिपाद्य विषय ईश्वर
[सम्पाद्यताम्]

एतद्विषयकं वेदान्तसूत्रं व्यासोऽप्याह—

तत्तु समन्वयात्॥ (वेदा॰१.१.४)

अस्यायमर्थः—तदेव ब्रह्म सर्वत्र वेदवाक्येषु समन्वितं प्रतिपादितमस्ति। क्वचित्साक्षात् क्वचित् परम्परया च। अतः परमोऽर्थो वेदानां ब्रह्मैवास्ति।

इस विषय में वेदान्तशास्त्र में व्यासमुनि के सूत्र का भी प्रमाण है—(तत्तु समन्वयात्)। सब वेदवाक्यों में ब्रह्म का ही विशेष करके प्रतिपादन है। कहीं-कहीं साक्षात् रूप और कहीं-कहीं परम्परा से। इसी कारण से वह परब्रह्म वेदों का परम अर्थ है।


यजुर्वेद से भी वेद का प्रमुख प्रतिपाद्य विषय ईश्वर
[सम्पाद्यताम्]

तथा यजुर्वेदे प्रमाणम्—

तथा इस विषय में यजुर्वेद का भी प्रमाण है कि—

यस्मा॒न्न जा॒तः परो॑ऽअ॒न्योऽअस्ति॒ य आ॑वि॒वेश॒ भुव॑नानि॒ विश्वा॑।

प्र॒जाप॑तिः प्र॒जया॑ सꣳररा॒णस्त्रीणि॒ ज्योती॑षि सचते॒ स षो॑ड॒शी॥ (यजु॰८.३६)

एतस्यार्थः—(यस्मात् न) नैव परब्रह्मणः सकाशात् (परः) उत्तमः पदार्थः (जातः) प्रादुर्भूतः प्रकटः (अन्यः) भिन्नः कश्चिदप्यस्ति, (प्रजापतिः) प्रजापतिरिति ब्रह्मणो नामास्ति, प्रजापालकत्वात्, (य आविवेश भु॰) यः परमेश्वरः (विश्वा) विश्वानि सर्वाणि (भुवनानि) सर्वलोकान् (आविवेश) व्याप्तवानस्ति, (सꣳरराणः) सर्वप्राणिभ्योऽत्यन्तं सुखं दत्तवान् सन् (त्रीणि ज्योतीषि) त्रीण्यग्निसूर्यविद्युदाख्यानि सर्वजगत्प्रकाशकानि (प्रजया) ज्योतिषोऽन्यया सृष्ट्या सह तानि (सचते) समवेतानि करोति, कृतवानस्ति, अतः (सः) स एवेश्वरः (षोडशी) येन षोडशकला जगति रचितास्ता विद्यन्ते यस्मिन् यस्य वा तस्मात् स षोडशीत्युच्यते। अतोऽयमेव परमोऽर्थो वेदितव्यः।

(यस्मान्न जा॰) जिस परब्रह्म से (अन्यः) दूसरा कोई (परः) उत्तम पदार्थ (जातः) प्रकट (नास्ति) अर्थात् नहीं है, (य आविवेश भु॰) जो सब विश्व अर्थात् सब जगह में व्याप्त हो रहा है, (प्रजापतिः प्र॰) वही सब जगत् का पालनकर्त्ता और अध्यक्ष है, जिसने (त्रीणि ज्योतीषि) अग्नि, सूर्य और बिजली इन तीन ज्योतियों को सर्वजगत् के प्रकाश होने के लिये (सचते) रचके संयुक्त किया है, और जिसका नाम (षोडशी) है, अर्थात् (१) ईक्षण, जो यथार्थ विचार, (२) प्राण, जो कि सब विश्व का धारण करने वाला, (३) श्रद्धा, सत्य में विश्वास, (४) आकाश, (५) वायु, (६) अग्नि, (७) जल, (८) पृथिवी, (९) इन्द्रिय, (१०) मन अर्थात् ज्ञान, (११) अन्न, (१२) वीर्य, अर्थात् बल और पराक्रम, (१३) तप, अर्थात् धर्मानुष्ठान सत्याचार, (१४) मन्त्र, अर्थात् वेदविद्या, (१५) कर्म, अर्थात् सब चेष्टा, (१६) नाम, अर्थात् दृश्य और अदृश्य पदार्थों की संज्ञा, ये ही सोलह कला कहाती हैं। ये सब ईश्वर ही के बीच में हैं, इससे उसको षोडशी कहते हैं। इन षोडश कलाओं का प्रतिपादन प्रश्नोपनिषद् के ६ छठे प्रश्न में लिखा है।

ओमित्येतदक्षरमिदꣳ सर्वं तस्योपव्याख्यानम्॥ (माण्डू॰१.१)

अस्यायमर्थः—ओमित्येतद्यस्य नामास्ति तदक्षरम्। यन्न क्षीयते कदाचिद्यच्चराचरं जगदश्नुते व्याप्नोति तद् ब्रह्मैवास्तीति विज्ञेयम्। अस्यैव सर्वैर्वेदादिभिः शास्त्रैः सकलेन जगता वोपगतं व्याख्यानं मुख्यतया क्रियतेऽतोऽयं प्रधानविषयोऽस्तीत्यवधार्यम्। किं च नैव प्रधानस्याग्रेऽप्रधानस्य ग्रहणं भवितुमर्हति। ‘प्रधानाप्रधानयोः प्रधाने कार्यसम्प्रत्ययः’ इति व्याकरणमहाभाष्यवचनप्रामाण्यात्। एवमेव सर्वेषां वेदानामीश्वरे मुख्येऽर्थे मुख्यतात्पर्यमस्ति। तत्प्राप्तिप्रयोजना एव सर्व उपदेशाः सन्ति। अतस्तदुपदेशपुरःसरेणैव त्रयाणां कर्मोपासनाज्ञानकाण्डानां पारमार्थिकव्यावहारिकफलसिद्धये यथायोग्योपकाराय चानुष्ठानं सर्वैर्मनुष्यैर्यथावत् कर्त्तव्यमिति।

[ओम् यह जिसका नाम है, वह अक्षर है। जो कभी भी नष्ट नहीं होता और जो चर और अचर जगत् को व्याप्त किये हुए है, उसे ब्रह्म ही जानना चाहिये।] इससे परमेश्वर ही वेदों का मुख्य अर्थ है, और उससे पृथक् जो यह जगत् है सो वेदों का गौण अर्थ है। और इन दोनों में से प्रधान का ही ग्रहण होता है। इससे क्या आया कि वेदों का मुख्य तात्पर्य परमेश्वर ही की प्राप्ति कराने और प्रतिपादन करने में है। उस परमेश्वर के उपदेशरूप वेदों से कर्म, उपासना और ज्ञान इन तीनों काण्डों का इस लोक और परलोक के व्यवहारों के फलों की सिद्धि और यथावत् उपकार करने के लिये सब मनुष्य इन चार विषयों के अनुष्ठानों में पुरुषार्थ करें, यही मनुष्यदेह धारण करने के फल हैं।


द्वितीय : कर्मकाण्डविषय

[सम्पाद्यताम्]

तत्र द्वितीयो विषयः कर्मकाण्डाख्यः, स सर्वः क्रियामयोऽस्ति। नैतेन विना विद्याभ्यासज्ञाने अपि पूर्णे भवतः। कुतः? बाह्यमानसव्यवहारयोर्बाह्याभ्यन्तरे युक्तत्वात्।

उनमें से दूसरा कर्मकाण्ड विषय है, सो सब क्रियाप्रधान ही होता है। जिसके विना विद्याभ्यास और ज्ञान पूर्ण नहीं हो सकते, क्योंकि मन का योग बाहर की क्रिया और भीतर के व्यवहार में सदा रहता है।


कर्मकाण्डद्विविध : निष्काम और सकाम

[सम्पाद्यताम्]

स चानेकविधोऽस्ति। परं तस्यापि खलु द्वौ भेदौ मुख्यौ स्तः—एकः परमपुरुषार्थसिद्ध्यर्थोऽर्थाद् य ईश्वरस्तुतिप्रार्थनोपासनाऽऽज्ञापालनधर्मानुष्ठानज्ञानेन मोक्षमेव साधयितुं प्रवर्त्तते। अपरो लोकव्यवहारसिद्धये धर्मेणार्थकामौ निर्वर्त्तयितुं संयोज्यते।

वह अनेक प्रकार का है परन्तु उनके दो भेद मुख्य हैं—एक परमार्थ, दूसरा लोकव्यवहार। अर्थात् पहिले से परमार्थ और दूसरे से लोकव्यवहार की सिद्धि करनी होती है। प्रथम जो परम पुरुषार्थरूप कहा, उसमें परमेश्वर की (स्तुति) अर्थात् उसके सर्वशक्तिमत्त्वादि गुणों का कीर्त्तन, उपदेश और श्रवण करना, (प्रार्थना) अर्थात् जिस करके ईश्वर से सहायता की इच्छा करनी, (उपासना) अर्थात् ईश्वर के स्वरूप में मग्न होके उसकी सत्यभाषणादि आज्ञा का यथावत् पालन करना। उपासना वेद और पातञ्जल योगशास्त्र की रीति से ही करनी चाहिये। तथा धर्म का स्वरूप न्यायाचरण है। ‘न्यायाचरण’ उसको कहते हैं जो पक्षपात को छोड़ के सब प्रकार से सत्य का ग्रहण और असत्य का परित्याग करना। इसी धर्म का जो ज्ञान और अनुष्ठान का यथावत् करना है सो ही कर्मकाण्ड का प्रधान भाग है। और दूसरा यह है कि जिससे पूर्वोक्त अर्थ, काम और उनकी सिद्धि करने वाले साधनों की प्राप्ति होती है।


सकाम और निष्काम में भेद
[सम्पाद्यताम्]

स यदा परमेश्वरस्य प्राप्तिमेव फलमुद्दिश्य क्रियते तदाऽयं श्रेष्ठफलापन्नो निष्कामसंज्ञां लभते। अयं खल्वनन्तसुखेन योगात्। यदा चार्थकामफलसिद्ध्यवसानो लौकिकसुखाय योज्यते तदा सोऽपरः सकाम एव भवति। अस्य जन्ममरणफलभोगेन युक्तत्वात्।

सो इस भेद को इस प्रकार से जानना कि जब मोक्ष अर्थात् सब दुःखों से छूट के केवल परमेश्वर की ही प्राप्ति के लिये धर्म से युक्त सब कर्मों का यथावत् करना, यही निष्काम मार्ग कहाता है, क्योंकि इसमें संसार के भोगों की कामना नहीं की जाती। इसी कारण से इसका फल अक्षय है। और जिसमें संसार के भोगों की इच्छा से धर्मयुक्त काम किये जाते हैं, उसको सकाम कहते हैं। इस हेतु इसका फल नाशवान् होता है, क्योंकि सकाम कर्म करके इन्द्रिय-भोगों को प्राप्त होके जन्म-मरण से नहीं छूट सकता।


अग्निहोत्र द्विविध : सकाम और निष्काम

[सम्पाद्यताम्]

स चाग्निहोत्रमारभ्याश्वमेधपर्यन्तेषु यज्ञेषु सुगन्धिमिष्टरोगनाशकगुणैर्युक्तस्य सम्यक् संस्कारेण शोधितस्य द्रव्यस्य वायुवृष्टिजलशुद्धिकरणार्थमग्नौ होमः क्रियते, स तद्द्वारा सर्वजगत् सुखकार्येव भवति। यं च भोजनाच्छादनयानकलाकौशलयन्त्रसामाजिकनियमप्रयोजनसिद्ध्यर्थं विधत्ते सोऽधिकतया स्वसुखायैव भवति।

अग्निहोत्र से लेके अश्वमेध पर्यन्त जो कर्मकाण्ड है, उसमें चार प्रकार के द्रव्यों का होम करना होता है—एक सुगन्धगुणयुक्त, जो कस्तूरी केशरादि हैं, दूसरा मिष्टगुणयुक्त, जो कि गुड़ और सहत आदि कहाते हैं, तीसरा पुष्टिकारकगुणयुक्त, जो घृत, दुग्ध और अन्न आदि हैं, और चौथा रोगनाशकगुणयुक्त जो कि सोमलतादि ओषधि आदि हैं। चारों का परस्पर शोधन, संस्कार और यथायोग्य मिलाके अग्नि में युक्तिपूर्वक जो होम किया जाता है, वह वायु और वृष्टिजल की शुद्धि करने वाला होता है। इससे सब जगत् को सुख होता है। और जिसको भोजन, छादन, विमानादि यान, कलाकुशलता, यन्त्र और सामाजिक नियम होने के लिये करते हैं, वह अधिकांश से कर्ता को ही सुख देने वाला होता है।


अग्निहोत्र में द्रव्य, संस्कार और उनका उपयोग
[सम्पाद्यताम्]

अत्र पूर्वमीमांसायाः प्रमाणम्—

द्रव्यसंस्कारस्तु परार्थत्वात् फलश्रुतिरर्थवादः स्यात्॥ (मी॰सू॰४.३.१)

द्रव्याणां तु क्रियार्थानां संस्कारः क्रतुधर्मः स्यात्॥ (मी॰सू॰४.३.८)

अनयोरर्थः—द्रव्यं संस्कारः कर्म चैतत्त्रयं यज्ञकर्त्रा कर्त्तव्यम्। द्रव्याणि पूर्वोक्तानि चतुःसंख्याकानि सुगन्धादिगुणयुक्तान्येव गृहीत्वा तेषां परस्परमुत्तमोत्तमगुणसंपादनार्थं संस्कारः कर्त्तव्यः। यथा सूपादीनां संस्कारार्थं सुगन्धयुक्तं घृतं चमसे संस्थाप्याग्नौ प्रतप्य सधूमे जाते सति तं सूपपात्रे प्रवेश्य तन्मुखं बध्वा प्रचालयेच्च तदा यः पूर्वं धूमवद्वाष्प उत्थितः स सर्वः सुगन्धो हि जलं भूत्वा प्रविष्टः सन् सर्वं सूपं सुगन्धमेव करोति, तेन पुष्टिरुचिकरश्च भवति, तथैव यज्ञाद्यो वाष्पो जायते स वायुं वृष्टिजलं च निर्दोषं कृत्वा सर्वजगते सुखायैव भवति।

इसमें पूर्वमीमांसा धर्मशास्त्र की भी सम्मति है—(द्रव्य॰) एक तो द्रव्य, दूसरा संस्कार, और तीसरा उनका यथावत् उपयोग करना, ये तीनों बातें यज्ञ के कर्ता को अवश्य करनी चाहिये। सो पूर्वोक्त सुगन्धादियुक्त चार प्रकार के द्रव्यों का अच्छी प्रकार संस्कार करके अग्नि में होम करने से जगत् का अत्यन्त उपकार होता है। जैसे दाल और शाक आदि से सुगन्धद्रव्य और घी इन दोनों को चमचे में अग्नि पर तपा के उनमें छोंक देने से वे सुगन्धित हो जाते हैं, क्योंकि उस सुगन्धद्रव्य और घी के अणु उनको सुगन्धित करके दाल आदि पदार्थों को पुष्टि और रुचि बढ़ाने वाले कर देते हैं, वैसे ही यज्ञ से जो भाफ उठता है, वह भी वायु और वृष्टि के जल को निर्दोष और सुगन्धित करके सब जगत् को सुख करता है, इससे वह यज्ञ परोपकार के लिये ही होता है।


यज्ञ से यज्ञकर्ता और संसार दोनों को सुख
[सम्पाद्यताम्]

अतश्चोक्तम्—

इसमें ऐतरेय ब्राह्मण का प्रमाण है कि—

यज्ञोऽपि तस्यै जनतायै कल्पते, यत्रैवं विद्वान् होता भवति॥ (ऐ॰ब्रा॰१.२.१)

जनानां समूहो जनता, तत्सुखायैव यज्ञो भवति, यस्मिन् यज्ञेऽमुना प्रकारेण विद्वान् संस्कृतद्रव्याणामग्नौ होमं करोति। कुतः? तस्य परार्थत्वात्। यज्ञः परोपकारायैव भवति। अत एव फलस्य श्रुतिः श्रवणमर्थवादोऽनर्थवारणाय भवति। तथैव होमक्रियार्थानां द्रव्याणां पुरुषाणां च यः संस्कारो भवति स एव क्रतुधर्मो बोध्यः। एवं क्रतुना यज्ञेन धर्मो जायते नान्यथेति।

(यज्ञोऽपि त॰) अर्थात् जनता नाम जो मनुष्यों का समूह है, उसीके सुख के लिये यज्ञ होता है, और संस्कार किये द्रव्यों का होम करने वाला जो विद्वान् मनुष्य है, वह भी आनन्द को प्राप्त होता है, क्योंकि जो मनुष्य जगत् का जितना उपकार करेगा, उसको उतना ही ईश्वर की व्यवस्था से सुख प्राप्त होगा। इसलिये यज्ञ का अर्थवाद यह है कि अनर्थ दोषों को हटा के जगत् में आनन्द को बढ़ाता है। परन्तु होम के द्रव्यों का उत्तम संस्कार और होम के करने वाले मनुष्यों को होम करने की श्रेष्ठ विद्या अवश्य ज्ञात होनी चाहिये। सो इसी प्रकार के यज्ञ करने से सबको उत्तम फल प्राप्त होता है, विशेष करके यज्ञकर्ता को, अन्यथा नहीं।


होम से अन्न
[सम्पाद्यताम्]

अत्र प्रमाणम्—

अग्नेर्वै धूमो जायते, धूमादभ्रमभ्राद् वृष्टिरग्नेर्वा एता जायन्ते तस्मादाह तपोजा इति॥ (श॰ब्रा॰५.३.५.१७)

अस्यायमभिप्रायः—अग्नेः सकाशाद्धूमवाष्पौ जायेते। यदाऽयमग्निर्वृक्षौषधि-वनस्पतिजलादिपदार्थान् प्रविश्य तान् संहतान् विभिद्य तेभ्यो रसं च पृथक् करोति, पुनस्ते लघुत्वमापन्ना वाय्वाधारेणोपर्याकाशं गच्छन्ति। तत्र यावान् जलरसांशस्तावतो वाष्पसंज्ञास्ति। यश्च निःस्नेहो भागः स पृथिव्यांशोऽस्ति। अत एवोभयभागयुक्तो धूम इत्युपचर्यते। पुनर्धूमगमनानन्तरमाकाशे जलसंचयो भवति। तस्मादभ्रं घना जायन्ते। तेभ्यो वायुदलेभ्यो वृष्टिर्जायते। अतोऽग्नेरेवैता यवादय ओषधयो जायन्ते। ताभ्योऽन्नमन्नाद्वीर्यं वीर्याच्छरीराणि भवन्तीति।

इसमें शतपथ ब्राह्मण का भी प्रमाण है कि—(अग्ने॰) जो होम करने से द्रव्य अग्नि में डाले जाते हैं, उनसे धुंआ और भाफ उत्पन्न होते हैं, क्योंकि अग्नि का यही स्वभाव है कि पदार्थों में प्रवेश करके उनको भिन्न-भिन्न कर देता है, फिर वे हलके होके वायु के साथ ऊपर आकाश में चढ़ जाते हैं, उनमें जितना जल का अंश है, वह भाफ कहाता है, और जो शुष्क है वह पृथ्वी का भाग है, इन दोनों के योग का नाम धूम है। वे परमाणु मेघमण्डल में वायु के आधार से रहते हैं, फिर वे परस्पर मिल के बादल होके उनसे वृष्टि, वृष्टि से ओषधि, ओषधियों से अन्न, अन्न से धातु, धातुओं से शरीर और शरीर से कर्म बनता है।


होम से अन्न, वायु और जल की शुद्धि
[सम्पाद्यताम्]

अत्र विषये तैत्तिरीयोपनिषद्यप्युक्तम्—

तस्माद्वा एतस्माद्वा आकाशः सम्भूतः, आकाशाद्वायुः, वायोरग्निः, अग्नेरापः, अद्भ्यः पृथिवी, पृथिव्या ओषधयः, ओषधिभ्योऽन्नं, अन्नाद्रेतः, रेतसः पुरुषः, स वा एष पुरुषोऽन्नरसमयः॥ (तै॰उ॰२.१.१)

इस विषय में तैत्तिरीय उपनिषद् का भी प्रमाण है कि—(तस्माद्वा॰) परमात्मा के अनन्त सामर्थ्य से आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथिवी आदि तत्त्व उत्पन्न हुए हैं, और उनमें ही पूर्वोक्त क्रम के अनुसार शरीर आदि उत्पत्ति, जीवन और प्रलय को प्राप्त होते हैं।

स तपोऽतप्यत (स) तपस्तप्त्वा अन्नं ब्रह्मेति व्यजानात् अन्नाद्ध्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते, अन्नेन जातानि जीवन्ति, अन्नं प्रयन्त्यभिसंविशन्तीति॥  (तै॰उ॰३.२.१)

अन्नं ब्रह्मेत्युच्यते जीवनस्य बृहद्धेतुत्वात्। शुद्धान्नजलवाय्वादिद्वारैव प्राणिनां सुखं भवति, नातोऽन्यथेति।

यहाँ ब्रह्म का नाम अन्न और अन्न का नाम ब्रह्म भी है, क्योंकि जिसका जो कार्य है वह उसी में मिलता है। वैसे ही ईश्वर सामर्थ्य से जगत् की तीनों अवस्था होती हैं, और सब जीवों के जीवन का मुख्य साधन है, इससे अन्न को ब्रह्म कहते हैं। जब होम से वायु, जल और ओषधि आदि शुद्ध होते हैं, तब सब जगत् को सुख और अशुद्ध होने से सबको दुःख होता है। इससे इनकी शुद्धि अवश्य करनी चाहिये।


शुद्धिहेतु द्विविध प्रयत्नः ईश्वरकृत और जीवकृत
[सम्पाद्यताम्]

तत्र द्विविधः प्रयत्नोऽस्तीश्वरकृतो जीवकृतश्च। ईश्वरेण खल्वग्निमयः सूर्यो निर्मितः सुगन्धपुष्पादिश्च। स निरन्तरं सर्वस्माज्जगतो रसानाकर्षति। तदा सुगन्धदुर्गन्धाणुसंयोगत्वेन तज्जलवायू अपीष्टानिष्टगुणयोगान्मध्यगुणौ भवतस्तयोः सुगन्धदुर्गन्धमिश्रितत्वात्। तज्जलवृष्टावोषध्यन्नरेतः शरीराण्यपि मध्यमान्येव भवन्ति। तन्मध्यमत्वाद् बलबुद्धिवीर्यपराक्रमधैर्यशौर्यादयोऽपि गुणा मध्यमा एव जायन्ते। कुतः? यस्य यादृशं कारणमस्ति तस्य तादृशमेव कार्य्यं भवतीति दर्शनात्। अयं खल्वीश्वरसृष्टेर्दोषो नास्ति। कुतः?

सो उनकी शुद्धि करने में दो प्रकार का प्रयत्न है—एक तो ईश्वर का किया हुआ, और दूसरा जीव का। उनमें से ईश्वर का किया यह है कि उसने अग्निरूप सूर्य और सुगन्धरूप पुष्पादि पदार्थों को उत्पन्न किया है। वह सूर्य निरन्तर सब जगत् के रसों को पूर्वोक्त प्रकार से ऊपर खेंचता है और जो पुष्पादि का सुगन्ध है वह भी दुर्गन्ध को निवारण करता रहता है। परन्तु वे परमाणु सुगन्ध और दुर्गन्धयुक्त होने से जल और वायु को भी मध्यम कर देते हैं। उसी जल की वृष्टि से ओषधि, अन्न, वीर्य और शरीरादि भी मध्यम गुण वाले हो जाते हैं और उनके योग से बुद्धि, बल, पराक्रम, धैर्य और शूरवीरतादि गुण भी निकृष्ट ही होते हैं, क्योंकि जिसका जैसा कारण होता है, उसका वैसा ही कार्य होता है। [यह ईश्वर की सृष्टि का दोष नहीं है, कैसे?]


यज्ञ न करने वाला पाप का भागी
[सम्पाद्यताम्]

दुर्गन्धादिविकारस्य मनुष्यसृष्ट्यन्तर्भावात्। यथेश्वरेणाज्ञा दत्ता सत्यभाषणमेव कर्त्तव्यं नानृतमिति, यस्तामुल्लङ्घ्य प्रवर्त्तते स पापीयान् भूत्वा क्लेशं चेश्वरव्यवस्थया प्राप्नोति, तथा यज्ञः कर्त्तव्य इतीयमप्याज्ञा तेनैव दत्तास्ति, तामपि य उल्लङ्घयति सोऽपि पापीयान् सन् क्लेशवांश्च भवति।

यह दुर्गन्ध से वायु और वृष्टि से जल का दोषयुक्त होना सर्वत्र देखने में आता है। सो यह दोष ईश्वर की सृष्टि से नहीं, किन्तु मनुष्यों ही की सृष्टि से होता है। इस कारण से उसका निवारण करना भी मनुष्यों ही को उचित है। जैसे ईश्वर ने सत्यभाषणादि धर्मव्यवहार करने की आज्ञा दी है, मिथ्याभाषणादि की नहीं, जो इस आज्ञा से उलटा काम करता है, वह अत्यन्त पापी होता है, और ईश्वर की न्यायव्यवस्था से उसको क्लेश भी होता है, वैसे ही ईश्वर ने मनुष्यों को यज्ञ करने की आज्ञा दी है, इसको जो नहीं करता, वह भी पापी होके दुःख का भागी होता है।


पर्यावरणदूषण करने वाले मनुष्य के लिये यज्ञ अवश्य करणीय
[सम्पाद्यताम्]

कुतः सर्वोपकारकरणात्। यत्र खलु यावान्मनुष्यादिप्राणिसमुदायो भवति तत्र तावानेव दुर्गन्धसमुदायो जायते न चैवायमीश्वरसृष्टिनिमित्तो भवितुमर्हति। कुतः? तस्य मनुष्यादिप्राणिसमुदायनिमित्तोत्पन्नत्वात्। यत्तु खलु मनुष्याः स्वसुखार्थं हस्त्यादिप्राणिनामेकत्र बाहुल्यं कुर्वन्ति, अतस्तज्जन्योऽप्यधिको दुर्गन्धो मनुष्यसुखेच्छानिमित्त एव जायते। एवं वायुवृष्टिजलदूषकः सर्वो दुर्गन्धो मनुष्यनिमित्तादेवोत्पद्यतेऽतस्तस्य निवारणमपि मनुष्या एव कर्त्तुमर्हन्ति।

क्योंकि सबके उपकार करने वाले यज्ञ को नहीं करने से मनुष्यों को दोष लगता है। जहाँ जितने मनुष्य आदि के समुदाय अधिक होते हैं, वहाँ उतना ही दुर्गन्ध भी अधिक होता है। वह ईश्वर की सृष्टि से नहीं, किन्तु मनुष्यादि प्राणियों के निमित्त से ही उत्पन्न होता है। क्योंकि हस्ती आदि के समुदायों को मनुष्य अपने ही सुख के लिये इकट्ठा करते हैं, इससे उन पशुओं से भी जो अधिक दुर्गन्ध उत्पन्न होता है सो मनुष्यों के ही सुख की इच्छा से होता है। इससे क्या आया कि जब वायु और वृष्टिजल को बिगाड़ने वाला सब दुर्गन्ध मनुष्यों के निमित्त से उत्पन्न होता है तो उसका निवारण करना भी उनको हो योग्य है।


मननशील होने से सब मनुष्यों को यज्ञ करणीय
[सम्पाद्यताम्]

तेषां मध्यान्मनुष्या एवोपकारानुपकारौ वेदितुमर्हाः सन्ति। मननं विचारस्तद्योगादेव मनुष्यत्वं जायते। परमेश्वरेण हि सर्वदेहधारिप्राणिनां मध्ये मनस्विनो विज्ञानं कर्त्तुं योग्या मनुष्या एव सृष्टास्तद् देहेषु परमाणुसंयोगविशेषेण विज्ञानभवनानुकूलनामवयवानामुत्पादितत्वात्। अतस्त एव धर्माधर्मयोर्ज्ञानमनुष्ठाना-ननुष्ठाने च कर्तुमर्हन्ति न चान्ये। अस्मात् कारणात् सर्वोपकाराय सर्वैर्मनुष्यैर्यज्ञः कर्त्तव्य एव।

क्योंकि जितने प्राणी देहधारी जगत् में हैं, उनमें से मनुष्य ही उत्तम हैं, इससे वे ही उपकार और अनुपकार को जानने को योग्य हैं। मनन नाम विचार का है, जिसके होने से ही मनुष्य नाम होता है, अन्यथा नहीं। क्योंकि ईश्वर ने मनुष्य के शरीर में परमाणु आदि के संयोगविशेष इस प्रकार रचे हैं कि जिनसे उनको ज्ञान की उन्नति होती है। इसी कारण से धर्म का अनुष्ठान और अधर्म का त्याग करने को भी वे ही योग्य होते हैं, अन्य नहीं। इससे सबके उपकार के लिये यज्ञ का अनुष्ठान भी उन्हीं को करना उचित है।


यज्ञाग्नि में हुतद्रव्य का विनाश नहीं
[सम्पाद्यताम्]

किंच भोः! कस्तूर्यादीनां सुरभियुक्तानां द्रव्याणामग्नौ प्रक्षेपणेन विनाशात् कथमुपकाराय यज्ञो भवितुमर्हतीति। किं त्वीदृशैरुत्तमैः पदार्थैर्मनुष्यादिभ्यो भोजनादिदानेनोपकारे कृते होमादप्युत्तमं फलं जायते, पुनः किमर्थं यज्ञकरणमिति?

प्रश्न—सुगन्धयुक्त जो कस्तूरी आदि पदार्थ हैं, उनको अन्य द्रव्यों में मिलाके अग्नि में डालने से उनका नाश हो जाता है, फिर यज्ञ से किसी प्रकार का उपकार नहीं हो सकता, किन्तु ऐसे उत्तम-उत्तम पदार्थ मनुष्यों को भोजनादि के लिये देने से होम से भी अधिक उपकार हो सकता है, फिर यज्ञ करना किसलिये चाहिये?

अत्रोच्यते—नात्यन्तो विनाशः कस्यापि संभवति। विनाशो हि यद् दृश्यं भूत्वा पुनर्न दृश्येतेति विज्ञायते।

उत्तर—किसी पदार्थ का विनाश नहीं होता, केवल वियोगमात्र होता है। परन्तु यह तो कहिये कि आप विनाश किसको कहते हैं?

उत्तर—जो स्थूल होके प्रथम दिखने में आकर फिर न देख पड़े, उसको हम विनाश कहते हैं।


प्रमाण के प्रकार और उनके लक्षण
[सम्पाद्यताम्]

परन्तु दर्शनं त्वया कतिविधं स्वीक्रियते? अष्टविधं चेति। किंच तत्? प्रत्यक्ष-अनुमान-उपमान-शब्द-ऐतिह्य-अर्थापत्ति-सम्भव-अभावसाधनभेदादष्टधा प्रमाणं मया मन्यत इति।

प्रश्न—आप कितने प्रकार का दर्शन मानते हैं?

उत्तर—आठ प्रकार का।

प्रश्न—कौन-कौन सा?

उत्तर—१. प्रत्यक्ष, २. अनुमान, ३. उपमान, ४. शब्द, ५. ऐतिह्य, ६. अर्थापत्ति, ७. सम्भव, ८. अभाव-इस भेद से आठ प्रकार का दर्शन [=प्रमाण] मानते हैं।


प्रत्यक्ष प्रमाण
[सम्पाद्यताम्]

अत्राहुर्गोतमाचार्या न्यायशास्त्रे—

[इस विषय में आचार्य गोतम कहते हैं—]

इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारिव्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम्॥१॥ (न्या॰सू॰१.१.४)

तत्र यदिन्द्रियार्थसम्बन्धात् सत्यमव्यभिचारिज्ञानमुत्पद्यते तत्प्रत्यक्षम्। सन्निकटे दर्शनान्मनुष्योऽयं नान्य इत्याद्युदाहरणम्॥१॥

(इन्द्रियार्थ॰) इनमें से ‘प्रत्यक्ष’ उसको कहते हैं कि जो चक्षु आदि इन्द्रिय और रूप आदि विषयों के सम्बन्ध से सत्यज्ञान उत्पन्न हो। जैसे दूर से देखने में सन्देह हुआ कि वह मनुष्य है वा कुछ और, फिर उसके समीप होने से निश्चय होता है कि यह मनुष्य ही है, अन्य नहीं, इत्यादि प्रत्यक्ष के उदाहरण हैं॥१॥


अनुमान प्रमाण
[सम्पाद्यताम्]

अथ तत्पूर्वकं त्रिविधमनुमानं पूर्ववच्छेषवत्सामान्यतोदृष्टं च॥२॥ (न्या॰सू॰ १.१.५)

यत्र लिङ्गज्ञानेन लिङ्गिनो ज्ञानं जायते तदनुमानम्। पुत्रं दृष्ट्वाऽऽसीदस्य पितेत्याद्युदाहरणम्॥२॥

(अथ तत्पू॰) और जो किसी पदार्थ के चिह्न देखने से उसी पदार्थ का यथावत् ज्ञान हो वह ‘अनुमान’ कहाता है। जैसे किसी के पुत्र को देखने से ज्ञान होता है कि इसके माता-पिता आदि हैं, वा अवश्य थे, इत्यादि उसके उदाहरण हैं॥२॥


उपमान प्रमाण
[सम्पाद्यताम्]

प्रसिद्धसाधर्म्यात् साध्यसाधनमुपमानम्॥३॥ (न्या॰सू॰१.१.६)

उपमानं सादृश्यज्ञानम्। यथा देवदत्तोऽस्ति तथैव यज्ञदत्तोऽप्यस्तीति साधर्म्याद् उपदिशतीत्याद्युदाहरणम्॥३॥

(प्रसिद्ध॰) तीसरा ‘उपमान’ कि जिससे किसी का तुल्य धर्म देखके समान धर्मवाले का ज्ञान हो। जैसे किसी ने किसी से कहा कि जिस प्रकार का यह देवदत्त है, उसी प्रकार का यह यज्ञदत्त भी है, उसके पास जाके इस काम को कर लो। इस प्रकार के तुल्य धर्म से जो ज्ञान होता है, उसको उपमान कहते हैं॥३॥


शब्द प्रमाण
[सम्पाद्यताम्]

आप्तोपदेशः शब्दः॥४॥ (न्या॰सू॰१.१.७)

शब्द्यते प्रत्यायते दृष्टोऽदृष्टश्चार्थो येन स शब्दः। ज्ञानेन मोक्षो भवतीत्याद्युदाहरणम्॥४॥

(आप्तोप॰) चौथा ‘शब्द’ प्रमाण है कि जो प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष अर्थ का निश्चय करने वाला है। जैसे ज्ञान से मोक्ष होता है, यह आप्तों के उपदेश शब्दप्रमाण का उदाहरण है॥४॥


ऐतिह्य प्रमाण
[सम्पाद्यताम्]

न चतुष्ट्वमैतिह्यार्थापत्तिसम्भवाभावप्रामाण्यात्॥५॥ (न्या॰सू॰२.२.१)

शब्द ऐतिह्यानर्थान्तरभावादनुमानेऽर्थापत्तिसम्भवाभावानामनर्थान्तरभावाच्चाप्रतिषेधः॥६॥ (न्या॰सू॰२.२.२)

न चतुष्ट्वमिति सूत्रद्वयस्य संक्षिप्तोऽर्थः क्रियते—

[‘न चतुष्ट्वम्’ इन दो सूत्रों का अर्थ करते हैं—]

(ऐतिह्यम्) शब्दोपगतमाप्तोपदिष्टं ग्राह्यम्—‘देवासुराः संयत्ता आसन्’ इत्यादि॥५॥

(ऐतिह्यम्) सत्यवादी विद्वानों के कहे वा लिखे उपदेश का नाम इतिहास है। जैसा ‘देव और असुर युद्ध करने के लिये तत्पर हुए थे’ जो यह इतिहास ऐतरेय, शतपथ ब्राह्मणादि सत्यग्रन्थों में लिखा है, उसी का ग्रहण होता है, अन्य का नहीं। यह पाँचवां प्रमाण है॥५॥


अर्थापत्ति प्रमाण
[सम्पाद्यताम्]

(अर्थापत्तिः) अर्थादापद्यते सार्थापत्तिः। केनचिदुक्तं सत्सु घनेषु वृष्टिर्भवतीति। किमत्र प्रसज्यते? असत्सु घनेषु न भवतीत्याद्युदाहरणम्॥६॥

और छठा (अर्थापत्तिः) जो एक बात किसी ने कही हो, उससे विरुद्ध दूसरी बात समझी जावे। जैसे किसी ने कहा कि बादलों के होने से वृष्टि होती है, दूसरे ने इतने ही कहने से जान लिया कि बादलों के विना वृष्टि कभी नहीं हो सकती। इस प्रकार के प्रमाण से जो ज्ञान होता है, उसको अर्थापत्ति कहते हैं॥६॥


सम्भव प्रमाण
[सम्पाद्यताम्]

(सम्भवः) सम्भवति येन यस्मिन् वा स सम्भवः। केनचिदुक्तं मातापितृभ्यां सन्तानं जायते, सम्भवोऽस्तीति वाच्यम्। परन्तु कश्चिद् ब्रूयात् ‘कुम्भकरणस्य कोशचतुष्टयपर्यन्तं श्मश्रुणः केशा ऊर्ध्वं स्थिता आसन्, षोडशक्रोशमूर्ध्वं नासिका च’ असम्भवत्वान्मिथ्यैवास्तीति विज्ञायते, इत्याद्युदाहरणम्॥७॥

सातवाँ (संभवः) जैसे किसी ने किसी से कहा कि माता-पिता से सन्तानों की उत्पत्ति होती है, तो दूसरा मान ले कि इस बात का तो सम्भव है। परन्तु जो कोई ऐसा कहे कि ‘रावण के भाई कुम्भकरण की मूंछ चार कोश तक आकाश में ऊपर खड़ी रहती थी, और उसकी नाक (१६) सोलह कोश पर्यन्त लम्बी चौड़ी थी’, उसकी यह बात मिथ्या समझी जायगी, क्योंकि ऐसी बात का सम्भव कभी नहीं हो सकता॥७॥


अभाव प्रमाण
[सम्पाद्यताम्]

(अभावः) कोऽपि ब्रूयात् घटमानयेति, स तत्र घटमपश्यन्नत्र घटो नास्तीत्यभावलक्षणेन यत्र घटो वर्त्तमानस्तस्मादानीयते॥८॥

और आठवाँ (अभावः) जैसे किसी ने किसी से कहा कि तुम घड़ा ले आओ, और जब उसने वहाँ नहीं पाया, तब वह जहाँ पर घड़ा था, वहां से ले आया॥८॥

इति प्रत्यक्षादीनां संक्षेपतोऽर्थः। एवमष्टविधं दर्शनमर्थाज्ज्ञानं मया मन्यते। सत्यमेवमेतत्, नैवमङ्गीकारेण विना समग्रौ व्यवहारपरमार्थौ कस्यापि सिध्येताम्।

इन आठ प्रकार के प्रमाणों को मैं मानता हूँ। यहाँ इन आठों का अर्थ संक्षेप से किया है।  यह बात सत्य है कि इनके विना माने सम्पूर्ण व्यवहार और परमार्थ किसी का सिद्ध नहीं हो सकता। इससे इन आठों को हम लोग भी मानते हैं।


नाश का स्वरूप
[सम्पाद्यताम्]

यथा कश्चिदेकं मृत्पिण्डं विशेषतश्चूर्णीकृत्य वेगयुक्ते वायौ बाहुवेगेनाकाशे प्रतिक्षिपेत् तस्य नाशो भवतीत्युपचर्यते। चक्षुषा दर्शनाभावात् ‘णश अदर्शने’ अस्माद् घञ् प्रत्यये कृते नाश इति शब्दः सिध्यति। अतो नाश बाह्येन्द्रियाऽदर्शनमेव भवितुमर्हति। किंच यदा परमाणवः पृथक् पृथक् भवन्ति। तदा ते चक्षुषा नैव दृश्यन्ते, तेषामतीन्द्रियत्वात्। यदा चैते मिलित्वा स्थूलभावमापद्यन्ते तदैव तद्द्रव्यं दृष्टिपथमागच्छति, स्थूलस्यैन्द्रियकत्वात्। यद्द्रव्यं विभक्तं विभागानर्हं भवति तस्य परमाणुसंज्ञा चेति व्यवहारः। ते हि विभक्ता अतीन्द्रियाः सन्त आकाशे वर्त्तन्त एव।

नाश को समझने के लिये यह दृष्टान्त है कि कोई मनुष्य मट्टी के ढेले को पीस के वायु के बीच में बल से फेंक दे, फिर जैसे वे छोटे-छोटे कण आँख से नहीं दीखते। क्योंकि (णश) धातु का अदर्शन ही अर्थ है। जब अणु अलग हो जाते हैं, तब वे देखने में नहीं आते, इसी का नाम नाश है। और जब परमाणु के संयोग से स्थूल द्रव्य अर्थात् बड़ा होता है, तब वह देखने में आता है। और परमाणु इसको कहते हैं कि जिसका विभाग फिर कभी न हो सके। परन्तु यह बात केवल एकदेशी है, क्योंकि उसका भी ज्ञान से विभाग से हो सकता है। जिसकी परिधि और व्यास बन सकता है, उसका भी टुकड़ा हो सकता है। यहाँ तक कि जब पर्यन्त वह एकरस न हो जाय तब पर्यन्त ज्ञान से बराबर कटता ही चला जायगा।


अग्नि में हुतद्रव्य का विनाश नहीं
[सम्पाद्यताम्]

तथैवाग्नौ यद् द्रव्यं प्रक्षिप्यते तद्विभागं प्राप्य देशान्तरे वर्त्तत एव। न हि तस्याभावः कदाचिद्भवति। एवं यद् दुर्गन्धादिदोषनिवारकं सुगन्धादिद्रव्यमस्ति तच्चाग्नौ हुतं सद्वायोर्वृष्टिजलस्य शुद्धिकरं भवति। तस्मिन्निर्दोषे सति सृष्टये महान् ह्युपकारो भवति सुखं च, अतः कारणाद् यज्ञः कर्त्तव्य एवेति।

वैसे ही जो सुगन्ध आदि से युक्त द्रव्य अग्नि में डाला जाता है, उनके अणु अलग-अलग होके आकाश में रहते ही हैं, क्योंकि द्रव्य का वस्तुता से अभाव नहीं होता। इससे वह द्रव्य दुर्गन्धादि दोषों का निवारण करने वाला अवश्य होता है। फिर उससे वायु और वृष्टिजल की शुद्धि होने से जगत् का बड़ा उपकार और सुख अवश्य होता है। इस कारण से यज्ञ को करना ही चाहिये।

किंच भोः! वायुवृष्टिजलशुद्धिकरणमेव यज्ञस्य प्रयोजनमस्ति चेत्तर्हि गृहाणां मध्ये सुगन्धद्रव्यरक्षणेनैतत् सेत्स्यति, पुनः किमर्थमेतावानाडम्बरः?

प्रश्न—जो यज्ञ से आयु और वृष्टिजल की शुद्धि करना मात्र ही प्रयोजन है, तो इसकी सिद्धि अतर और पुष्पादि के घरों में रखने से भी हो सकती है, फिर इतना बड़ा परिश्रम यज्ञ में क्यों करना?


यज्ञ रोगनाशक

[सम्पाद्यताम्]

नैवं शक्यम्। नैव तेनाशुद्धो वायुः सूक्ष्मो भूत्वाऽऽकाशं गच्छति, तस्य पृथक्त्वलघुत्वाभावात्। तत्र तस्य स्थितौ सत्यां नैव बाह्यो वायुरागन्तुं शक्नोत्यवकाशाभावात्। तत्र पुनः सुगन्धदुर्गन्धयुक्तस्य वायोर्वर्त्तमानत्वादारोग्यादिकं फलमपि भवितुमशक्यमेवास्ति।

उत्तर—यह कार्य अन्य किसी प्रकार से सिद्ध नहीं हो सकता। क्योंकि अतर और पुष्पादि का सुगन्ध तो उसी दुर्गन्ध वायु में मिल के रहता है, उसको छेदन करके बाहर नहीं निकाल सकता, और न वह ऊपर चढ़ सकता है, क्योंकि उसमें हलकापन नहीं होता। उसके उसी अवकाश में रहने से बाहर का शुद्ध वायु उस ‏ठिकाने में जा भी नहीं सकता, क्योंकि खाली जगह के विना दूसरे का प्रवेश नहीं हो सकता। फिर सुगन्ध और दुर्गन्धयुक्त वायु के वहीं रहने से रोगनाशादि फल भी नहीं होते।


अग्नि में हुतद्रव्य से वायुशुद्धि
[सम्पाद्यताम्]

यदा तु खलु तस्मिन् गृहेऽग्निमध्ये सुगन्ध्यादिद्रव्यस्य होमः क्रियते, तदाऽग्निना पूर्वो वायुर्भेदं प्राप्य लघुत्वामापन्न उपर्याकाशं गच्छति। तस्मिन् गते सति तत्रावकाशत्वाच्चतसृभ्यो दिग्भ्यः शुद्धो वायुराद्रवति। तेन गृहाकाशस्य पूर्णत्वादारोग्यादिकं फलमपि जायते।

और जब अग्नि उस वायु को वहाँ से हलका करके निकाल देता है, तब वहाँ शुद्ध वायु भी प्रवेश कर सकता है। इसी कारण यह फल यज्ञ से ही हो सकता है, अन्य प्रकार से नहीं। क्योंकि जो होम के परमाणुयुक्त शुद्ध वायु है, सो पूर्वस्थित दुर्गन्धवायु को निकाल के, उस देशस्थ वायु को शुद्ध करके, रोगों को नाश करने वाला होता, और मनुष्यादि सृष्टि को उत्तम सुख को प्राप्त करता है।


अग्नि में हुतद्रव्य से वायुजलशुद्धि और उससे आरोग्य
[सम्पाद्यताम्]

यो होमेन सुगन्धयुक्तद्रव्यपरमाणुयुक्त उपरिगतो वायुर्भवति, स वृष्टिजलं शुद्धं कृत्वा, वृष्ट्याधिक्यमपि करोति। तद्द्वारौषध्यादीनां शुद्धेरुत्तरोत्तरं जगति महत्सुखं वर्धत इति निश्चीयते। एतत्खल्वग्निसंयोगरहितसुगन्धेन वायुना भवितुमशक्यमस्ति। तस्माद्धोमकरणमुत्तममेव भवतीति निश्चेतव्यम्।

जो वायु सुगन्धादि द्रव्य के परमाणुओं से युक्त होम द्वारा आकाश में चढ़ के वृष्टिजल को शुद्ध कर देता, और उससे वृष्टि भी अधिक होती है, क्योंकि होम करके नीचे गर्मी अधिक होने से जल भी ऊपर अधिक चढ़ता है। शुद्ध जल और वायु के द्वारा अन्नादि ओषधि भी अत्यन्त शुद्ध होती है। ऐसे प्रतिदिन सुगन्ध के अधिक होने से जगत् में नित्यप्रति अधिक सुख बढ़ता है। यह फल अग्नि में होम करने के विना दूसरे प्रकार से होना असम्भव है। इससे होम का करना अवश्य है।


अग्नि में हुतद्रव्य का नाश नहीं
[सम्पाद्यताम्]

अन्यच्च। दूरस्थले केनचित्पुरुषेणाग्नौ सुगन्धद्रव्यस्य होमः क्रियते, तद्युक्तो वायुर्दूरस्थमनुष्यस्य घ्राणेन्द्रियेण संयुक्तो भवति। सोऽत्र सुगन्धो वायुरस्तीति जानात्येव। अनेन विज्ञायते वायुना सह सुगन्धं दुर्गन्धं च द्रव्यं गच्छतीति। तद्यदा स दूरं गच्छति तदा तस्य घ्राणेन्द्रियसंयोगो न भवति, पुनर्बालबुद्धीनां भ्रमो भवति स सुगन्धो नास्तीति। परन्तु तस्य हुतस्य पृथग्भूतस्य वायुस्थस्य सुगन्धयुक्तस्य द्रव्यस्य देशान्तरे वर्त्तमानत्वात् तैर्न विज्ञायते। अन्यदपि खलु होमकरणस्य बहुविधमुत्तमं फलमस्ति, तद्विचारेण बुधैर्विज्ञेयमिति।

और भी सुगन्ध के नाश नहीं होने में कारण है कि किसी पुरुष ने दूर देश में सुगन्ध चीजों का अग्नि में होम किया हो, उस सुगन्ध से युक्त जो वायु है, सो होम के स्थान से दूर देश में स्थित हुए मनुष्य के नाक इन्द्रियों के साथ संयुक्त होने से उसको यह ज्ञान होता है कि यहाँ सुगन्ध वायु है। इससे जाना जाता है कि द्रव्य के अलग होने से भी द्रव्य का गुण द्रव्य के साथ ही बना रहता है, और वह वायु के साथ सुगन्ध और दुर्गन्धयुक्त सूक्ष्म होके जाता आता है। परन्तु जब वह द्रव्य दूर चला जाता है, तब उसका नाक इन्द्रिय से संयोग भी छूट जाता है, फिर बालबुद्धि मनुष्यों को ऐसा भ्रम होता है कि वह सुगन्धित द्रव्य नहीं रहा। परन्तु यह उनको अवश्य जानना चाहिये कि वह सुगन्ध द्रव्य आकाश में वायु के साथ बना ही रहता है। इससे अन्य भी होम करने के बहुत से उत्तम फल हैं, उनको बुद्धिमान् लोग विचार से जान लेंगे।


अग्निहोत्र में मन्त्रपाठ का प्रयोजन

[सम्पाद्यताम्]

यदि होमकरणस्यैतत्फलमस्ति, तद्धोमकरणमात्रेणैव सिध्यति, पुनस्तत्र वेदमन्त्राणां पाठः किमर्थः क्रियते?

प्रश्न—होम करने का जो प्रयोजन है सो तो केवल होम से ही सिद्ध होता है, फिर वहाँ वेदमन्त्रों के पढ़ने का क्या काम है?

अत्र ब्रूमः—एतस्यान्यदेव फलमस्ति। किम्? यथा हस्तेन होमो, नेत्रेण दर्शनं, त्वचा स्पर्शनं च क्रियते, तथा वाचा वेदमन्त्रा अपि पठ्यन्ते। तत्पाठेनेश्वरस्तुतिप्रार्थनोपासनाः क्रियन्ते। होमेन किं फलं भवतीत्यस्य ज्ञानं तत्पाठानुवृत्त्या वेदमन्त्राणां रक्षणमीश्वरस्यास्तित्वसिद्धिश्च। अन्यच्च, सर्वकर्मादावीश्वरस्य प्रार्थना कार्येत्युपदेशः। यज्ञे तु वेदमन्त्रोच्चारणात् सर्वत्रैव तत्प्रार्थना भवतीति वेदितव्यम्।

उत्तर—उनके पढ़ने का प्रयोजन कुछ और ही है। प्रश्न—वह क्या है? उत्तर—जैसे हाथ से होम करते, आँख से देखते और त्वचा से स्पर्श करते हैं, वैसे ही वाणी से वेदमन्त्रों को भी पढ़ते हैं। क्योंकि उनके पढ़ने से वेदों की रक्षा, ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना होती है। तथा होम से जो-जो फल होते हैं, उनका स्मरण भी होता है। वेदमन्त्रों के बारम्बार पाठ करने से वे कण्ठस्थ भी रहते हैं, और ईश्वर का होना भी विदित होता है कि कोई नास्तिक न हो जाय, क्योंकि ईश्वर की प्रार्थनापूर्वक ही सब कर्मों का आरम्भ करना होता है, सो वेदमन्त्रों के उच्चारण से यज्ञ में तो उसकी प्रार्थना सर्वत्र होती है। इसलिये सब उत्तम कर्म वेदमन्त्रों से ही करना उचित है।


अग्निहोत्र में मन्त्रपाठ सत्यप्रयोजन की सिद्धि के लिये
[सम्पाद्यताम्]

कश्चिदत्राह—वेदमन्त्रोच्चारणं विहायान्यस्य कस्यचित् पाठस्तत्र क्रियेत तदा किं दूषणमस्तीति? अत्रोच्यते—नान्यस्य पाठे कृते सत्येतत्प्रयोजनं सिध्यति। कुतः? ईश्वरोक्ताभावान्निरतिशयसत्यविरहाच्च। यद्यद्धि यत्र क्वचित्सत्यं प्रसिद्धमस्ति तत्तत्सर्वं वेदादेव प्रसृतमिति विज्ञेयम्। यद्यत्खल्वनृतं तत्तदनीश्वरोक्तं वेदाद् बहिरिति च।

प्रश्न—यज्ञ में वेदमन्त्रों को छोड़ के दूसरे का पाठ करें तो क्या दोष है? उत्तर—अन्य के पाठ में यह प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता। ईश्वर के वचन से जो सत्य प्रयोजन सिद्ध होता है, सो अन्य के वचन से कभी नहीं हो सकता। क्योंकि जैसा ईश्वर का वचन सर्वथा भ्रान्तिरहित सत्य होता है, वैसा अन्य का नहीं। और जो कोई वेदों के अनुकूल अर्थात् आत्मा की शुद्धि, आप्त पुरुषों के ग्रन्थों का बोध और उनकी शिक्षा से वेदों को यथावत् जानके कहता है, उसका भी वचन सत्य ही होता है। और जो केवल अपनी बुद्धि से कहता है, वह ठीक-ठीक नहीं हो सकता। इससे यह निश्चय है कि जहाँ-जहाँ सत्य दीखता और सुनने में आता है, वहाँ-वहाँ वेदों से ही फैला है, और जो-जो मिथ्या है सो-सो वेद से नहीं, किन्तु वह जीवों ही की कल्पना से प्रसिद्ध हुआ है। क्योंकि जो ईश्वरोक्त ग्रन्थ से सत्य प्रयोजन सिद्ध होता है, सो दूसरे से कभी नहीं हो सकता।

अत्रार्थे मनुराह—

इस विषय में मनु का प्रमाण है कि—

त्वमेको ह्यस्य सर्वस्य विधानस्य स्वयंभुवः।

अचिन्त्यस्याप्रमेयस्य कार्यतत्त्वार्थवित्प्रभो॥१॥ (मनु॰१.३)

(त्वमे॰) मनुजी से ऋषि लोग कहते हैं कि स्वयंभू जो सनातन वेद हैं, जिनमें असत्य कुछ भी नहीं, और जिनमें सब सत्यविद्याओं का विधान है, उसके अर्थ को जानने वाले केवल आप ही हैं॥१॥

चातुर्वर्ण्यं त्रयो लोकाश्चत्वारश्चाश्रमाः पृथक्।

भूतं भव्यं भविष्यच्च सर्वं वेदात् प्रसिध्यति॥॥२॥ (मनु॰१२.९७)

(चातु॰) अर्थात् चार वर्ण (तीन लोक), चार आश्रम, भूत, भविष्यत् और वर्त्तमान की सब विद्या वेदों से ही प्रसिद्ध होती हैं॥२॥

क्योंकि—

बिभर्त्ति सर्वभूतानि वेदशास्त्रं सनातनम्।

तस्मादेतत्परं मन्ये यज्जन्तोरस्य साधनम्॥३॥ (मनु॰१२.९९)

(बिभर्त्ति॰) यह जो सनातन वेदशास्त्र है, सो सब विद्याओं के दान से सम्पूर्ण प्राणियों का धारण और सब सुखों को प्राप्त कराता है, इस कारण से हम लोग उसको सर्वथा उत्तम मानते हैं, और इसी प्रकार मानना भी चाहिये। क्योंकि सब जीवों के लिये सब सुखों का साधन यही है॥३॥


यज्ञ के आवश्यक उपकरण और उनके प्रयोजन

[सम्पाद्यताम्]

किं यज्ञानुष्ठानार्थं भूमिं खनित्वा वेदिः, प्रणीतादीनि पात्राणि, कुशतृणं, यज्ञशाला, ऋत्विजश्चैतत्सर्वं करणीयमस्ति?

प्रश्न—क्या यज्ञ करने के लिये पृथिवी खोद के वेदिरचना, प्रणीता, प्रोक्षणी, और चमसादि पात्रों का स्थापन, दर्भ रखना, यज्ञशाला का बनाना और ऋत्विजों का करना, यह सब करना ही चाहिये?


यज्ञवेदी का प्रयोजन

[सम्पाद्यताम्]

अत्र ब्रूमः—यद्यदावश्यकं युक्तिसिद्धं तत्तत्कर्त्तव्यं, नेतरत्। तद्यथा—भूमिं खनित्वा वेदी रचनीया, तस्यां हीमे कृतेऽग्नेस्तीव्रत्वाद्धुतं द्रव्यं सद्यो विभेदं प्राप्याकाशं गच्छति।

उत्तर—करना तो चाहिये, परन्तु जो-जो युक्तिसिद्ध हैं, सो-सो ही करने के योग्य हैं। क्योंकि जैसे वेदि बना के उसमें होम करने से वह द्रव्य शीघ्र भिन्न-भिन्न परमाणुरूप होके, वायु और अग्नि के साथ आकाश में फैल जाता है, ऐसे ही वेदि में भी अग्नि तेज होने और होम का साकल्य इधर-उधर बिखरने से रोकने के लिये वेदि अवश्य रचनी चाहिये।


यज्ञवेदी से गणितविद्या की सिद्धि

[सम्पाद्यताम्]

तथा वेदिदृष्टान्तेन त्रिकोणचतुष्कोणगोलश्येनाद्याकारवत्करणाद् रेखागणितमपि साध्यते। तत्र चेष्टकानां परिगणितत्वादनया गणितविद्यापि गृह्यते। एवमेवोत्तरेऽपि पदार्थाः सप्रयोजनाः सन्त्येव।

और वेदि के त्रिकोण, चतुष्कोण, गोल तथा श्येन पक्षी आदि के तुल्य बनाने के दृष्टान्त से रेखागणितविद्या भी जानी जाती है कि जिससे त्रिभुज आदि रेखाओं का भी मनुष्यों को यथावत् बोध हो। तथा उसमें जो ईंटों की संख्या की है, उससे गणितविद्या भी समझी जाती है। इस प्रकार से कि जब इतनी लम्बी, चौड़ी और गहरी वेदि हो, तो उसमें इतनी बड़ी ईंटें इतनी लगेंगी, इत्यादि वेदि के बनाने में बहुत प्रयोजन हैं।


यज्ञपात्र और यज्ञशाला का प्रयोजन

[सम्पाद्यताम्]

तथा सुवर्ण, चाँदी वा काष्ठ के पात्र इस कारण से बनाते हैं कि उनमें घृतादि पदार्थ रक्खे जाते हैं, वे बिगड़ते नहीं। और कुश इसलिये रखते हैं कि जिससे यज्ञशाला का मार्जन हो और चिंवटी आदि कोई जन्तु वेदी की ओर अग्नि में न गिरने पावें। ऐसी ही यज्ञशाला बनाने का यह प्रयोजन है कि जिससे अग्नि की ज्वाला में वायु अत्यन्त न लगे, और वेदि में कोई पक्षी किंवा उसकी बीठ भी न गिरे। इसी प्रकार ऋत्विजों के विना यज्ञ का काम कभी नहीं हो सकता इत्यादि प्रयोजन के लिये यह सब विधान यज्ञ में अवश्य करना चाहिये।


यज्ञपात्र से न पाप और न पुण्य
[सम्पाद्यताम्]

परन्त्वेवं प्रणीतायां रक्षितायां पुण्यं स्यादेवं पापमिति यदुच्यते, तत्र पापनिमित्तभावात् सा कल्पना मिथ्यैवास्ति। किन्तु खलु यज्ञसिद्ध्यर्थं यद्यदावश्यकं युक्तिसिद्धमस्ति, तत्तदेव ग्राह्यम्। कुतः? तैर्विना तदसिद्धेः।

परन्तु इस प्रकार से प्रणीतापात्र रखने से पुण्य और इस प्रकार रखने से पाप होता है, इत्यादि कल्पना मिथ्या ही है। किन्तु जिस प्रकार करने में यज्ञ का कार्य अच्छा बने, वही करना अवश्य है, अन्य नहीं।


कर्मकाण्ड में देवता शब्द से वेदमन्त्रों का ग्रहण

[सम्पाद्यताम्]

यज्ञे देवताशब्देन किं गृह्यते? याश्च वेदोक्ताः। अत्र प्रमाणानि—

प्रश्न—यज्ञ में देवता शब्द से किसका ग्रहण होता है?

उत्तर—जो-जो वेद में कहे हैं, उन्हींका ग्रहण होता है। इसमें यह यजुर्वेद का प्रमाण है कि—

अ॒ग्निर्दे॒वता॒ वातो॑ दे॒वता॒ सूर्यो॑ दे॒वता॒ च॒न्द्रमा॑ दे॒वता वस॑वो दे॒वता॑ रु॒द्रा दे॒वता॑ऽऽदि॒त्या दे॒वता॑ म॒रुतो॑ दे॒वता॒ विश्वे॑ दे॒वा दे॒वता॒ बृह॒स्पति॑र्दे॒वतेन्द्रो॑ दे॒वता॒ वरु॑णो दे॒वता॑॥  (यजु॰१४.२०)

अत्र कर्मकाण्डे देवताशब्देन वेदमन्त्राणां ग्रहणम्। गायत्र्यादीनि छन्दांसि ह्यग्न्यादिदेवताख्यान्येव गृह्यन्ते। तेषां कर्मकाण्डादिविधेर्द्योतकत्वात्। यस्मिन् मन्त्रे चाग्निशब्दार्थप्रतिपादनं वर्त्तते, स एव मन्त्रोऽग्निर्देवतो गृह्यते। एवमेव वातः सूर्यश्चन्द्रमा वसवो रुद्रा आदित्या मरुतो विश्वेदेवा बृहस्पतिरिन्द्रो वरुणश्चेत्येतच्छब्दयुक्ता मन्त्रा देवताशब्देन गृह्यन्ते। तेषामपि तत्तदर्थस्य द्योतकत्वात् परमाप्तेश्वरेण कृतसंकेतत्वाच्च।

(अग्निर्देव॰) कर्मकाण्ड अर्थात् यज्ञक्रिया में मुख्य करके देवता शब्द से वेदमन्त्रों का ही ग्रहण करते हैं, क्योंकि जो गायत्र्यादि छन्द हैं, वे ही वेदमन्त्र कहाते हैं। और इन वेदमन्त्रों से ही सब विद्याओं का प्रकाश भी होता है। इसमें यह कारण है कि जिन-जिन मन्त्रों में अग्नि आदि शब्द हैं, उन-उन मन्त्रों का और उन-उन शब्दों के अर्थों का अग्नि आदि देवता नामों से ग्रहण होता है। मन्त्रों का देवता नाम इसीलिये है कि उन्हींसे सब अर्थों का यथावत् प्रकाश होता है।


मन्त्र और मन्त्रार्थ देवता
[सम्पाद्यताम्]

अत्राह यास्काचार्यो निरुक्ते—

‘कर्मसम्पत्तिर्मन्त्रो वेदे’॥ (निरु॰१.२)

अस्यार्थः—(कर्मसं०) कर्मणामग्निहोत्राद्यश्वमेधान्तानां शिल्पविद्यासाधनानां च संपत्तिः संपन्नता संयोगो भवति येन स मन्त्रो वेदे देवताशब्देन गृह्यते। तथा च कर्मणां संपत्तिर्मोक्षो भवति येन परमेश्वरप्राप्तिश्च सोऽपि मन्त्रो मन्त्रार्थश्चाङ्गीकार्यः।

(कर्म सं०) वेदमन्त्रों करके अग्निहोत्र से लेके अश्वमेधपर्यन्त सब यज्ञों की शिल्पविद्या और उनके साधनों की सम्पत्ति अर्थात् प्राप्ति होती है, और कर्मकाण्ड को लेके मोक्षपर्यन्त सुख मिलता है, इसी हेतु से उनका नाम देवता है।


अथातो दैवतम्। तद्यानि नामानि प्राधान्यस्तुतीनां देवतानां तद्दैवतमित्याचक्षते। सैषा देवतोपपरीक्षा। (निरु॰७.१)

(अथातो॰) अथेत्यनन्तरं दैवतं किमुच्यते, यत्प्राधान्येन स्तुतिर्यासां देवतानां क्रियते तद्दैवतमिति विज्ञायते। यानि नामानि मन्त्रोक्तानि येषामर्थानां मन्त्रेषु विद्यन्ते तानि सर्वाणि देवतालिङ्गानि भवन्ति।

(अथातो॰) दैवत उनको कहते हैं कि जिनके गुणों का कथन किया जाय, अर्थात् जो-जो संज्ञा जिन-जिन मन्त्रों में जिस-जिस अर्थ की होती है, उन-उन मन्त्रों का नाम वही देवता है।

तद्यथा—

अ॒ग्निं दू॒तं पु॒रो द॑धे हव्य॒वाह॒मुप॑ ब्रुवे। दे॒वाँ२ऽ आ सा॑दयादि॒ह॥ (यजु॰२२.१७)

अत्राग्निशब्दो लिङ्गमस्ति। अतः किं विज्ञेयं, यत्र यत्र देवताच्यते तत्र तत्र तल्लिङ्गो मन्त्रो ग्राह्य इति। यस्य द्रव्यस्य नामान्वितं यच्छन्दोऽस्ति तदेव दैवतमिति बोध्यम्। सा एषा देवतोपपरीक्षाऽतीता आगामिनी चास्ति।

जैसे— ‘अग्निं दूतं०’ इस मन्त्र में ‘अग्नि’ शब्द चिह्न है, यहाँ इसी मन्त्र को अग्नि देवता जानना चाहिये। ऐसे ही जहाँ-जहाँ मन्त्रों में जिस-जिस शब्द का लेख है, वहाँ-वहाँ उस-उस मन्त्र को ही देवता समझना होता है। इसी प्रकार सर्वत्र समझ लेना चाहिये। सो देवता शब्द से जिस-जिस गुण से जो-जो अर्थ लिये जाते हैं, सो-सो निरुक्त और ब्राह्मणादि ग्रन्थों में अच्छी प्रकार लिखा है।


देवता और ऋषि
[सम्पाद्यताम्]

अत्रोच्यते—

[इस विषय में निरुक्त में कहा गया है—]

यत्काम ऋषिर्यस्यां देवतायामार्थपत्यमिच्छन् स्तुतिं प्रयुङ्क्ते तद्दैवतः स मन्त्रो भवति। तास्त्रिविधा ऋचः। परोक्षकृताः प्रत्यक्षकृता आध्यात्मिक्यश्च॥ (निरु॰७.१)

ऋषिरीश्वरः सर्वदृग्, यत्कामो यं कामयमान इममर्थमुपदिशेयमिति स यत्कामः, यस्यां देवतायामार्थपत्यमर्थस्य स्वामित्वमुपदेष्टुमिच्छन् सन् स्तुतिं प्रयुङ्क्ते, तदर्थगुणकीर्त्तनं प्रयुक्तवानस्ति, स एव मन्त्रस्तद्देवतो भवति। किञ्च यदेवार्थप्रतीतिकरणदैवतं प्रकाश्यं येन भवति, स मन्त्रो देवताशब्दवाच्योऽस्तीति विज्ञायते। देवताभिधा ऋचो याभिर्विद्वांसः सर्वाः सत्यविद्याः स्तुवन्ति, प्रकाशयन्ति, ऋच स्तुताविति धात्वर्थयोगात्।

इसमें यह कारण है कि [ऋषि अर्थात्] ईश्वर ने जिस-जिस अर्थ को जिस-जिस नाम से वेदों में उपदेश किया है, उस-उस नाम वाले मन्त्रों से उन्हीं अर्थों [देवता] को जानना होता है। [इसके अतिरिक्त जिस अर्थ की प्रतीति कराने के लिये जिस मन्त्र से देवता प्रकाशित करना होता है, वह मन्त्र देवता शब्द से वाच्य है, ऐसा जाना जाता है। देवतावाचक ऋचाएँ वे हैं, जिनसे विद्वान् सब सत्यविद्याओं को प्रकाशित करते हैं। यहाँ ‘ऋच स्तुतौ’ इस धातु से ऋचा शब्द व्युत्पन्न है।]

ताः श्रुतयस्त्रिविधास्त्रिप्रकारकाः सन्ति— परोक्षकृताः प्रत्यक्षकृता आध्यात्मिक्यश्चेति। यासां देवतानामृचां परोक्षकृतोऽर्थोऽस्ति ताः परोक्षकृताः। यासां प्रत्यक्षमर्थो दृश्यते ताः प्रत्यक्षकृता ऋचो देवताः। आध्यात्मिक्यश्चाध्यात्मं जीवात्मानं तदन्तर्यामिणं परमेश्वरं च प्रतिपादितुमर्हा या ऋचो मन्त्रास्ता आध्यात्मिक्यश्चेति। एता एव कर्मकाण्डे देवताशब्दार्थाः सन्तीति विज्ञेयम्।

सो वे मन्त्र तीन प्रकार के हैं। उनमें से कई एक परोक्ष अर्थात् अप्रत्यक्ष अर्थ के, कई एक प्रत्यक्ष अर्थात् प्रसिद्ध अर्थ के, और कई एक आध्यात्मिक अर्थात् जीव, परमेश्वर और सब पदार्थों के कार्य-कारण के प्रतिपादन करने वाले हैं। इससे क्या आया कि त्रिकालस्थ जितने पदार्थ और विद्या हैं, उनके विधान करने वाले मन्त्र ही हैं। इसी कारण से [कर्मकाण्ड में] इनका नाम देवता है, [ऐसा जानना चाहिये]।


अनिर्दिष्ट देवता वाले मन्त्रों में देवता का निर्णय यज्ञ या यज्ञाङ्ग से
[सम्पाद्यताम्]

तद्येऽनादिष्टदेवतामन्त्रास्तेषु देवतोपपरीक्षा। यद्देवतः स यज्ञो वा यज्ञाङ्गं वा तद्देवता भवन्ति। (निरु॰७.४)

(तद्येऽनादि॰) तत्तस्माद्ये खल्वनादिष्टदेवता मन्त्रा, अर्थान्न विशेषतो देवतादर्शनं नामार्थो वा येषु दृश्यते, तेषु देवतोपपरीक्षा कास्तीत्यत्रोच्यते यत्र विशेषो न दृश्यते तत्रैवं यज्ञो देवता, यज्ञाङ्गं वेत्येतद्देवताख्यमिति विज्ञायते।

जिन-जिन मन्त्रों में सामान्य अर्थात् जहाँ-जहाँ किसी विशेष अर्थ का नाम प्रसिद्ध नहीं दीख पड़ता, वहाँ-वहाँ यज्ञ आदि को देवता जानना होता है। (अग्निमीळे॰) इस मन्त्र के भाष्य में जो तीन प्रकार का यज्ञ लिखा है, अर्थात् एक तो अग्निहोत्र से लेके अश्वमेधपर्यन्त, दूसरा प्रकृति से लेके पृथिवी पर्यन्त जगत् का रचनरूप तथा शिल्पविद्या, और तीसरा सत्सङ्ग आदि से जो विज्ञान और योगरूप यज्ञ हैं, ये ही उन मन्त्रों के देवता जानना चाहिये।  तथा जिनसे यह यज्ञ सिद्ध होता है, वे भी उन यज्ञों के देवता हैं।


यज्ञभिन्न स्थान में देवता का निर्णय
[सम्पाद्यताम्]

अथान्यत्र यज्ञात् प्राजापत्या इति याज्ञिकाः, नाराशंसा इति नैरुक्ताः, अपि वा सा कामदेवता स्यात्, प्रायो देवता वा, अस्ति ह्याचारो बहुलं लोके—देवदेवत्यम्, अतिथिदेवत्यं, पितृदेवत्यं, याज्ञदैवतो मन्त्र इति॥ (निरु॰७.४)

ये खलु यज्ञादन्यत्र प्रयुज्यन्ते ते वै प्राजापत्याः परमेश्वरदेवताका मन्त्रा भवन्तीत्येवं याज्ञिका मन्यन्ते। अत्रैव विकल्पोऽस्ति— नाराशंसा मनुष्यविषया इति नैरुक्ता ब्रुवन्ति। तथा या कामना सा कामदेवता भवतीति सकामा लौकिका जना जानन्ति। एवं देवताविकल्पस्य प्रायेण लोके बहुलमाचारोऽस्ति। क्वचिद्देवदेवत्यं कर्म, मातृदेवत्यं कर्म, विद्वद्देवत्यमतिथिदेवत्यं, पितृदेवत्यं चैतेऽपि पूज्याः सत्कर्त्तव्याः सन्त्यतस्तेषामुपकारकर्तृत्वमात्रमेव देवतात्वमस्तीति विज्ञायते। मन्त्रास्तु खलु यज्ञसिद्धये मुख्यहेतुत्वाद्याज्ञदैवता एव सन्तीति निश्चीयते।

और जो इनसे भिन्न मन्त्र हैं, उनका प्राजापत्य अर्थात् परमेश्वर ही देवता है [ऐसा याज्ञिक मानते हैं]। तथा [इस विषय में प्रथम विकल्प है—] जो मन्त्र मनुष्यों का प्रतिपादन करते हैं, उनके मनुष्य देवता हैं [ऐसा नैरुक्त मानते हैं। तथा जो मन्त्र कामनाओं का प्रतिपादन करते हैं, उनका कामदेवता होता है, ऐसा लौकिक जन जानते हैं। इस प्रकार लोक में] इनमें बहुत प्रकार के विकल्प हैं कि कहीं पूर्वोक्त देवता कहाते हैं, कहीं यज्ञादि कर्म, कहीं माता, कहीं पिता, कहीं विद्वान्, कहीं अतिथि और कहीं आचार्य देव कहाते हैं, [ये सभी पूज्य हैं, सत्करणीय हैं, इसलिये उपकारक होने से इनका देवतात्व जाना जाता है।] परन्तु इसमें इतना भेद है कि यज्ञ में मन्त्र और परमेश्वर को ही देव मानते हैं।


यज्ञ में मन्त्र और परमेश्वर ही देव
[सम्पाद्यताम्]

अत्र परिगणनम्। गायत्र्यादिच्छन्दोन्विता, ईश्वराज्ञा, यज्ञः, यज्ञाङ्गं प्रजापतिः परमेश्वरः, नराः, कामः, विद्वान्, अतिथिः, माता, पिता, आचार्यश्चेति कर्मकाण्डादीन् प्रत्येता देवताः सन्ति। परन्तु मन्त्रेश्वरावेव याज्ञदैवते भवत इति निश्चयः।

[यहाँ परिगणन है—] जो-जो गायत्र्यादि छन्दों से युक्त वेदों के मन्त्र, उन्हीं में ईश्वर की आज्ञा, यज्ञ और उनके अङ्ग अर्थात् साधन, प्रजापति जो परमेश्वर, नर जो मनुष्य, काम, विद्वान्, अतिथि, माता, पिता और आचार्य ये अपने-अपने दिव्यगुणों से ही देव कहाते हैं। परन्तु इसमें इतना भेद है कि यज्ञ में मन्त्र और परमेश्वर को ही देव मानते हैं।


देवता का स्वरूप

[सम्पाद्यताम्]

अन्यच्च—

देवो दानाद्वा, दीपनाद्वा, द्योतनाद्वा, द्युस्थानो भवतीति वा॥ (निरु॰७.१५)

मन्त्रा मननाच्छन्दांसि छादनात्॥  (निरु॰७.१२)

अस्यार्थः—(देवो दानात्) यत्स्वस्वत्वनिवृत्तिपूर्वकं परस्वत्वोत्पादनं तद्दानं भवति, (दीपनात्) दीपनं प्रकाशनम्, द्योतनमुपदेशादिकं च। अत्र दानशब्देनेश्वरो विद्वांसो मनुष्याश्च देवतासंज्ञाः सन्ति। दीपनात् सूर्यादयो द्योतनान्मातृपित्राचार्यातिथयश्च। तथा द्यौः किरणा आदित्यरश्मयः प्राणसूर्यादयो वा स्थानं स्थित्यर्थं यस्य स द्युस्थानः। प्रकाशकानामपि प्रकाशकत्वात् परमेश्वर एवात्र देवोऽस्तीति विज्ञेयम्।

(देवो दानात्) दान देने से देव नाम पड़ता है, और दान कहते हैं अपनी चीज दूसरे के अर्थ दे देना। दीपन कहते हैं प्रकाश करने को, द्योतन कहते हैं सत्योपदेश को, इनमें से दान का दाता मुख्य एक ईश्वर ही है कि जिसने जगत् को सब पदार्थ दे रक्खे हैं। तथा विद्वान् मनुष्य भी विद्यादि पदार्थों के देनेवाले होने से देव कहाते हैं। (दीपन) अर्थात् सब मूर्त्तिमान् द्रव्यों का प्रकाश करने से सूर्यादि लोकों का नाम भी देव है। तथा माता, पिता, आचार्य और अतिथि भी पालनविद्या और सत्योपदेशादि के करने से देव कहाते हैं। वैसे ही सूर्यादि लोकों का भी जो प्रकाश करनेवाला है, सो ही ईश्वर सब मनुष्यों को उपासना करने के योग्य इष्टदेव है, अन्य कोई नहीं।

अत्र प्रमाणम्—

इसमें कठोपनिषद् का भी प्रमाण है कि—

न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः।

तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति॥ (कठ॰५.१५)

तत्र नैव परमेश्वरे सूर्यादयो भान्ति प्रकाशं कुर्वन्ति। किन्तु तमेव भान्तं प्रकाशयन्तमनु पश्चात्ते हि प्रकाशयन्ति। नैव खल्वेतेषु कश्चित्स्वातन्त्र्येण प्रकाशोऽस्तीति। अतो मुख्यो देव एकः परमेश्वर एवोपास्योऽस्तीति मन्यध्वम्।

‘सूर्य, चन्द्रमा, तारे, बिजुली और अग्नि ये सब परमेश्वर में प्रकाश नहीं कर सकते, किन्तु इन सबका प्रकाश करनेवाला एक वही है। क्योंकि परमेश्वर के प्रकाश से ही सूर्य आदि सब जगत् प्रकाशित हो रहा है।’ इसमें यह जानना चाहिये कि ईश्वर से भिन्न कोई पदार्थ स्वतन्त्र प्रकाश करनेवाला नहीं है, इससे एक परमेश्वर ही मुख्य देव है।


इन्द्रियाँ भी देव

[सम्पाद्यताम्]

नैन॑द्दे॒वा आ॑प्नुव॒न्पूर्व॒मर्श॑त्॥ (यजु॰४०.४)

अत्र देवशब्देन मनःषष्ठानि श्रोत्रादीनीन्द्रियाणि गृह्यन्ते। तेषां शब्दस्पर्शरूपरसगन्धानां सत्यासत्ययोश्चार्थानां द्योतकत्वात्तान्यपि देवाः। यो देवः सा देवता, ‘देवात्तल्’ [अष्टा॰५.४.२७] इत्यनेन सूत्रेण स्वार्थे ‘तल्’ विधानात्। स्तुतिर्हि गुणदोषकीर्तनं भवति। यस्य पदार्थस्य मध्ये यादृशा गुणा वा दोषाः सन्ति तादृशानामेवोपदेशः स्तुतिर्विज्ञायते। तद्यथा, अयमसिः प्रहृतः सन्नतीवच्छेदनं करोति, तीक्ष्णधारः स्वच्छो धनुर्वन्नाम्यमानोऽपि न त्रुट्यतीत्यादि गुणकथनमतो विपरीतोऽसिर्नैव तत् कर्त्तुं समर्थो भवतीत्यसेः स्तुतिर्विज्ञेया।

(नैनद्देवा॰) इस वचन में देव शब्द से इन्द्रियों का ग्रहण होता है। जो कि श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जीभ, नाक और मन, ये छः देव कहाते हैं। क्योंकि शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, सत्य और असत्य इत्यादि अर्थों का इनसे प्रकाश होता है। और देव शब्द से स्वार्थ में ‘तल्’ प्रत्यय करने से देवता शब्द सिद्ध होता है। जो-जो गुण जिस-जिस पदार्थ में ईश्वर ने रचे हैं, उन-उन गुणों का लेख, उपदेश, श्रवण और विज्ञान करना तथा मनुष्य सृष्टि के गुण-दोषों का भी लेख आदि करना इसको ‘स्तुति’ कहते हैं। क्योंकि जितना-जितना जिस-जिस में गुण है, उतना-उतना उसमें देवपन है। इससे वे किसी के इष्टदेव नहीं हो सकते। जैसे किसी ने किसी से कहा कि तलवार काट करने में बहुत अच्छी और निर्मल है, इसकी धार बहुत तेज है, और यह धनुष् के समान नमाने से भी नहीं टूटती, इत्यादि तलवार के गुणकथन को स्तुति कहते हैं।


कर्म, उपासना और ज्ञानकाण्ड में मुख्य देवता परमात्मा

[सम्पाद्यताम्]

तद्वदन्यत्रापि विज्ञेयम्। परन्त्वयं नियमः कर्मकाण्डं प्रत्यस्ति। उपासनाज्ञानकाण्डयोः कर्मकाण्डस्य निष्कामभागेऽपि च परमेश्वर एवेष्टदेवोऽस्ति। कस्मात्? तत्र तस्यैव प्राप्तिः प्रार्थ्यते। यश्च तस्य सकामो भागोऽस्ति तत्रेष्टविषयभोगप्राप्तये परमेश्वरः प्रार्थ्यते। अतः कारणाद्भेदो भवति। परन्तु नैवेश्वरार्थत्यागः क्वापि भवतीति वेदाभिप्रायोऽस्ति।

इसी प्रकार सर्वत्र जान लेना। इस नियम के साथ कि केवल परमेश्वर ही कर्म, उपासना और ज्ञानकाण्ड में सबका इष्टदेव स्तुति, प्रार्थना, पूजा और उपासना करने के योग्य हैं। क्योंकि गुण वे कहाते हैं, जिनसे कर्मकाण्डादि में उपकार लेना होता है। परन्तु सर्वत्र कर्मकाण्ड में भी इष्टभोग प्राप्ति के लिये परमेश्वर का त्याग नहीं होता, क्योंकि कार्य कारण सम्बन्ध ईश्वर ही सर्वत्र स्तुति, प्रार्थना, उपासना से पूजा करने के योग्य होता है।

अत्र प्रमाणम्—

‘महाभाग्याद्देवताया एक आत्मा बहुधा स्तूयते। एकस्यात्मनोऽन्ये देवाः प्रत्यङ्गानि भवन्ति। (निरु॰७.४)

(महाभाग्याद्देव॰) सर्वासां व्यवहारोपयोगिदेवतानां मध्य आत्मन एव मुख्यं देवतात्वमस्ति। कुतः? आत्मनो माहाभाग्यादर्थात् सर्वशक्तिमत्त्वादिविशेषणवत्त्वात्। न तस्याग्रेऽन्यस्य कस्यापि देवतात्वं गण्यं भवितुमर्हति। कुतः? सर्वेषु वेदेष्वेकस्याद्वितीयस्यासहायस्य सर्वत्र व्याप्तस्यात्मन एव बहुधा बहुप्रकारैरुपासना विहितास्ति। अस्मादन्ये ये देवा उक्ता वक्ष्यन्ते च, ते सर्व एकस्यात्मनः परमेश्वरस्य प्रत्यङ्गान्येव भवन्ति। अङ्गमङ्गं प्रत्यञ्चन्तीति निरुक्त्या तस्यैव सामर्थ्यस्यैकैकस्मिन् देशे प्रकाशिताः सन्ति।

इसमें निरुक्त का भी प्रमाण है कि व्यवहार के देवताओं की उपासना कभी नहीं करनीं चाहिये, किन्तु एक परमेश्वर ही की करनी उचित है। इसका निश्चय वेदों में अनेक प्रकार से किया है कि एक अद्वितीय परमेश्वर के ही प्रकाश, धारण, उत्पादन करने से वे सब व्यवहार के देव प्रकाशित हो रहे हैं।

कर्मजन्मान आत्मजन्मान आत्मैवैषां रथो भवत्यात्माश्वा आत्मायुधमात्मेषव आत्मा सर्वं देवस्य देवस्य॥ (निरु॰७.४)

ते च (कर्मज॰) यतः कर्मणा जायन्ते तस्मात् कर्मजन्मानो यत आत्मन ईश्वरस्य सामर्थ्याज्जातास्तस्मादात्मजन्मानश्च सन्ति। अथैतेषां देवानामात्मा परमेश्वर एव रथो रमणाधिकरणम्। स एवाश्वा गमनहेतवः। स आयुधं विजयावहम्, इषवो बाणा दुःखनाशकाः स एवास्ति। तथा चात्मैव देवस्य देवस्य सर्वस्वमस्ति। अर्थात् सर्वेषां देवानां स एवोत्पादको धाताऽधिष्ठता मङ्गलकारी वर्त्तते। नातः परं किञ्चिदुत्तमं वस्तु विद्यत इति बोध्यम्।

इनका जन्म और कर्म ईश्वर के सामर्थ्य से होता है। और इनका रथ अर्थात् जो रमण का स्थान, अश्व अर्थात् शीघ्र सुख प्राप्ति का कारण, आयुध अर्थात् सब शत्रुओं के नाश करने का हेतु और इषु अर्थात् जो बाण के समान सब दुष्टगुणों का छेदन करनेवाला शस्त्र है, सो एक परमेश्वर ही है। क्योंकि परमेश्वर ने जिस-जिसमें जितना-जितना दिव्यगुण रक्खा है, उतना-उतना ही द्रव्यों में देवपन है, अधिक नहीं। इससे क्या सिद्ध हुआ कि केवल परमेश्वर ही उन सबका उत्पादन, धारण और मुक्ति का देनेवाला है।


चालीस देवताओं (तैतीस और सात) का स्वरूप

[सम्पाद्यताम्]

अथान्यदपि प्रमाणम्—

ये त्रिं॒शति॒ त्रय॑स्प॒रो दे॒वासो॑ ब॒र्हिरास॑दन्। वि॒दन्नह॑ द्वि॒तास॑नन्॥१॥ (ऋ॰८.२८.१)

[तीस और उससे अधिक अर्थात् तैतीस देव मेरे अन्तःकरण में विराजमान हों। वे सत् और असत् दोनों प्रकार का ज्ञान प्राप्त करें।]

त्रय॑स्त्रिꣳशतास्तुवत भू॒तान्य॑शाम्यन् प्र॒जाप॑तिः परमे॒ष्ठ्यधि॑पतिरासीत्॥२॥

(यजु॰१४.३१)

[महर्षि ने यजुर्वेद-भाष्य में मन्त्र की उक्त पंक्ति का निम्नप्रकार व्याख्यान किया है—‘यस्य प्रभावाद् भूतान्यशाम्यन् यः प्रजापतिः परमेष्ठ्यधिपतिरासीत्तं त्रयस्त्रिंशतास्तुवत।’ जिसके प्रभाव से प्रकृति के परिणाम महत्तत्त्व के उपद्रव शान्त हों जो प्रजा का रक्षक परमेश्वर के समान आकाश में व्यापक होके स्थित परमेश्वर अधिष्ठाता है, उसकी महाभूतों के तैंतीस गुणों से प्रशंसा करो।]

यस्य॒ त्रय॑स्त्रिंश॒द् देवा नि॒धिं रक्ष॑न्ति सर्व॒दा।

नि॒धिं तम॒द्य को वेद॒ यं दे॑वा अभि॒रक्ष॑थ॥३॥ (अथर्व॰१०.७.२३)

[जिस परमेश्वर की निधि की तैंतीस देवता सदा रक्षा करते हैं और जिसकी हे देवताओ! तुम रक्षा करते हो, आज उस निधि को कौन जानता है?]

यस्य॒ त्रय॑स्त्रिंशद् दे॒वा अङ्गे॒ गात्रा॑ विभेजि॒रे।

तान्वै त्रय॑स्त्रिंशद् दे॒वानेके॑ ब्रह्म॒विदो॑ विदुः॥४॥ (अथर्व॰१०.७.२७)

[जिसके शरीर में तैतीस देवता अवयव के समान बँटे हुए हैं, उन तैतीस देवताओं को कोई-कोई ब्रह्मज्ञानी ही जानते हैं।]

स होवाच महिमान एवैषामेते त्रयस्त्रिꣳशत्त्वेव देवा इति। कतमे ते त्रयस्त्रिꣳशदित्यष्टौ वसव एकादश रुद्रा द्वादशादित्यास्त एकत्रिꣳशदिन्द्रश्चैव प्रजापतिश्च त्रयस्त्रिꣳशाविति॥५॥ (श॰ब्रा॰१४.६.९.३)

अथैषामर्थः—वेदमन्त्राणामेवार्थो ब्राह्मणग्रन्थेषु प्रकाशित इति द्रष्टव्यम्। शाकल्यं प्रति याज्ञवल्क्योक्तिः। त्रयस्त्रिंशदेव देवाः सन्ति। अष्टौ वसवः, एकादश रुद्राः, द्वादशादित्याः, इन्द्रः, प्रजापतिश्चेति॥

अब आगे देवता विषय में तैतीस देवों का व्याख्यान लिखते हैं। जैसा ब्राह्मणग्रन्थों में वेदमन्त्रों का व्याख्यान लिखा है। (त्रयस्त्रिंशत्) अर्थात् व्यवहार के ये (३३) तैतीस देवता हैं—(८) आठ वसु, (११) ग्यारह रुद्र, (१२) बारह आदित्य, एक इन्द्र और एक प्रजापति।


वसुओं का स्वरूप
[सम्पाद्यताम्]

कतमे वसव इति? अग्निश्च पृथिवी च वायुश्चान्तरिक्षं चादित्यश्च द्यौश्च चन्द्रमाश्च नक्षत्राणि चैते वसवः। एतेषु हीदꣳ सर्वं वसु हितमेते हीदꣳ सर्वं वासयन्ते तद्यदिदꣳ सर्वं वासयन्ते तस्माद्वसव इति॥६॥ (श॰ब्रा॰१४.६.९.४)

तत्र (वसवः) अग्निः, पृथिवी, वायुः, अन्तरिक्षम्, आदित्यः, द्यौः, चन्द्रमाः, नक्षत्राणि च। एतेषामष्टानां वसुसंज्ञा कृतास्ति। आदित्यः सूर्यलोकस्तस्य प्रकाशोऽस्ति द्यौः सूर्यसन्निधौ पृथिव्यादिषु वा। अग्निलोकोऽस्त्यग्निरेव। (कुत एते वसव इति) यद्यस्मादेतेष्वष्टस्वेवेदं सर्वं सम्पूर्णं वसु वस्तुजातं हितं धृतमस्ति। किंच सर्वेषां वासाधिकरणानीम एव लोकाः सन्ति। हि यतश्चेदं वासयन्ते सर्वस्यास्य जगतो वासहेतवस्तस्मात् कारणादग्न्यादयो वसुसंज्ञकाः सन्तीति बोद्धव्यम्।

उनमें से आठ वसु ये हैं—अग्नि, पृथिवी, वायु, अन्तरिक्ष, आदित्य, द्यौः, चन्द्रमा और नक्षत्र। इनका वसु नाम इस कारण से है कि सब पदार्थ इन्हीं में बसते हैं, और ये ही सब के निवास करने के स्थान हैं। [इसके अतिरिक्त ये लोक सभी के निवास का अधिकरण हैं। क्योंकि ये इस सम्पूर्ण जगत् को बसाते हैं, वास का हेतु होने से अग्नि आदि की वसु संज्ञा होती है, यह जानना चाहिये।]


रुद्रों का स्वरूप
[सम्पाद्यताम्]

कतमे रुद्रा इति? दशेमे पुरुषे प्राणा आत्मैकादशस्ते यदास्मान् मर्त्याच्छरीरादुक्रामन्त्यथ रोदयन्ति, तद्यद्रोदयन्ति तस्मादुद्रा इति॥७॥ (श॰ब्रा॰१४.६.९.५)

(एकादश रुद्राः)—ये पुरुषेऽस्मिन् देहे प्राणः, अपानः, व्यानः, समानः, उदानः, नागः, कूर्मः, कृकलः, देवदत्तः, धनञ्जयश्च। इमे दश प्राणा, एकादशम आत्मा, सर्वे मिलित्वैकादश रुद्रा भवन्ति। कुत एते रुद्रा? इत्यत्राह—यदा यस्मिन् कालेऽस्मान् मरणधर्मकाच्छरीरादुक्रामन्तो निःसरन्तः सन्तोऽथेत्यनन्तरं मृतकसम्बन्धिनो जनांस्ते रोदयन्ति। यतो जना रुदन्ति, तस्मात् कारणादेते रुद्राः सन्तीति विज्ञेयम्।

(११) ग्यारह रुद्र ये कहाते हैं—जो शरीर में दश प्राण हैं अर्थात् प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त, धनञ्जय और ग्याहरवाँ जीवात्मा है। क्योंकि जब वे इस शरीर से निकल जाते हैं, तब मरण होने से उसके सम्बन्धी लोग रोते हैं। वे निकलते हुए उनको रुलाते हैं, इससे उनका नाम रुद्र है।


आदित्यों का स्वरूप
[सम्पाद्यताम्]

कतम आदित्या इति? द्वादश मासाः संवत्सरस्यैत आदित्याः। एते हीदꣳ सर्वमाददाना यन्ति, तद्यदिदꣳ सर्वमाददाना यन्ति तस्मादादित्या इति॥८॥ (श॰ब्रा॰१४.६.९.६)

(द्वादशादित्याः) चैत्राद्याः फाल्गुनान्ता द्वादश मासा आदित्या विज्ञेयाः। कुतः? हि यत एते सर्वं जगदाददाना अर्थादासमन्ताद् गृह्णन्तः प्रतिक्षणमुत्पन्नस्य वस्तुन आयुषः प्रलयं निकटमानयन्तो यन्ति गच्छन्ति, चक्रवद् भ्रमणेनोत्तरोत्तरं जातस्य वस्तुनोऽवयवशिथिलतां परिणामेन प्रापयन्ति। तस्मात् कारणान्मासानामादित्यसंज्ञा कृतास्ति।

इसी प्रकार आदित्य बारह महीनों को कहते हैं, क्योंकि वे सब जगत् के पदार्थों का आदान अर्थात् सबकी आयु को ग्रहण करते चले जाते हैं, [चक्र के समान भ्रमण करने से क्रमशः उत्पन्न वस्तुओं के अवयवों को परिणाम के द्वारा शिथिल अर्थात् जीर्ण करते हैं,] इसीसे इनका नाम आदित्य है।


इन्द्र और प्रजापति
[सम्पाद्यताम्]

कतम इन्द्रः, कतमः प्रजापतिरिति? स्तनयित्नुरेवेन्द्रो यज्ञः प्रजापतिरिति। कतमः स्तनयित्नुरित्यशनिरिति? कतमो यज्ञ इति? पशव इति॥९॥ (श॰ब्रा॰१४.६.९.७)

इन्द्रः परमैश्वर्ययोगात् स्तनयित्नुरशनिर्विद्युदिति। प्रजापतिर्यज्ञः पशव इति। प्रजायाः पालनहेतुत्वात् पशूनां यज्ञस्य च प्रजापतिरिति गौणिकी संज्ञा कृतास्ति। एते सर्वे मिलित्वा त्रयस्त्रिंशद्देवा भवन्ति। देवो दानादित्यादिनिरुक्त्या ह्येतेषु व्यावहारिकमेव देवत्वं योजनीयम्।

ऐसे ही इन्द्र नाम बिजुली का है, क्योंकि वह उत्तम ऐश्वर्य की विद्या का मुख्य हेतु है। और यज्ञ को प्रजापति इसलिये कहते हैं कि उससे वायु और वृष्टि जल की शुद्धि द्वारा प्रजा का पालन होता है। तथा पशुओं की यज्ञसंज्ञा होने का यह कारण है कि उनसे भी प्रजा का जीवन होता है। ये सब मिलके अपने-अपने दिव्य गुणों से तैंतीस देव कहाते हैं।


तीन देव और तीन लोक
[सम्पाद्यताम्]

त्रयो लोकास्त्रयो देवाः के त इत्यत्राह निरुक्तकारः—

धामानि त्रयाणि भवन्ति, स्थानानि नामानि जन्मानीति। (निरु॰९.२८)

त्रयो लोका एत एव। वागेवायं लोको, मनोऽन्तरिक्षलोकः, प्राणोऽसौ लोकः। (श॰ब्रा॰१४.४.३.११)

एतेऽपि त्रयो देवा ज्ञातव्याः द्वौ देवावन्नं प्राणश्चेति। अध्यर्धो ब्रह्माण्डस्थः सूत्रात्माख्यः सर्वजगतो वृद्धिकरत्वाद्वायुर्देवः।

और तीन देव—स्थान, नाम और जन्म को कहते हैं। दो देव—अन्न और प्राण को कहते हैं। अध्यर्धदेव अर्थात् जिससे सबका धारण और वृद्धि होती है, जो सूत्रात्मा वायु सब जगत् में भर रहा है, उसको अध्यर्धदेव कहते हैं।


चालीस देवों में केवल ईश्वर उपासनीय
[सम्पाद्यताम्]

किमेते सर्व एवोपास्याः सन्तीत्यत्राह—

प्रश्न—क्या ये चालीस देव भी सब मनुष्यों को उपासना के योग्य हैं?

नैव, किन्तु (स ब्रह्म॰) यत्सर्वजगत्कर्त्तृ सर्वशक्तिमत्सर्वस्येष्टं सर्वोपास्यं सर्वव्यापकं सर्वाधारं सर्वकारणमनादिसच्चिदानन्दस्वरूपमजं न्यायकारीत्यादिविशेषणयुक्तं ब्रह्मास्ति। स एवैको देवश्चतुस्त्रिंशो वेदोक्तसिद्धान्तप्रकाशितः परमेश्वरो देवः सर्वमनुष्यैरुपास्योऽस्तीति मन्यध्वम्। ये वेदोक्तमार्गपरायणा आर्यास्ते सर्वदैतस्यैवोपासनं चक्रुः, कुर्वन्ति, करिष्यन्ति च। अस्माद् भिन्नस्येष्टकरणेनोपासनेन चानार्यत्वमेव मनुष्येषु सिध्यतीति निश्चयः।

उत्तर—इनमें से कोई भी उपासना के योग्य नहीं है, किन्तु व्यवहारमात्र की सिद्धि के लिये ये सब देव हैं, और सब मनुष्यों के उपासना के योग्य तो देव एक ब्रह्म ही है। इसमें यह प्रमाण है—(स ब्रह्म॰)  जो सब जगत् का कर्त्ता, सर्वशक्तिमान्, सबका इष्ट, सबकी उपासना के योग्य, सबका धारण करनेवाला, सबमें व्यापक और सबका कारण है, जिसका आदि अन्त नहीं, और जो सच्चिदानन्दस्वरूप है, जिसका जन्म कभी नहीं होता, और जो कभी अन्याय नहीं करता, इत्यादि विशेषणों से वेदादिशास्त्रों में जिसका प्रतिपादन किया है, उसीको इष्टदेव मानना चाहिये और जो कोई इससे भिन्न को इष्टदेव मानता है, उसको अनार्य अर्थात् अनाड़ी कहना चाहिये।

अत्र प्रमाणम्—

[इस विषय में प्रमाण है।] क्योंकि—

आत्मेत्येवोपासीत। स योऽन्यमात्मनः प्रियं ब्रुवाणं ब्रूयात् प्रियꣳ रोत्स्यतीतीश्वरो ह तथैव स्यादात्मानमेव प्रियमुपासीत, स य आत्मनमेव प्रियमुपास्ते न हास्य प्रियं प्रमायुकं भवति। योऽन्यां देवतामुपास्ते न स वेद यथा पशुरेव स देवानाम्॥ (श॰ब्रा॰१४.४.२.१८, १९, २२)

(आत्मेत्ये॰) इसमें आर्यों का इतिहास शतपथ-ब्राह्मण में है कि परमेश्वर जो सब का आत्मा है, सब मनुष्यों को उसीकी उपासना करनी उचित है। इसमें जो कोई कहे कि परमेश्वर को छोड़ के दूसरे में भी ईश्वर बुद्धि से प्रेमभक्ति करनी चाहिये तो उससे कहे कि तू सदा दुःखी होके रोदन करेगा, क्योंकि जो ईश्वर की उपासना करता है, वह सदा आनन्द में ही रहता है। जो दूसरे में ईश्वरबुद्धि करके उपासना करता है, वह कुछ भी नहीं जानता, इसलिये वह विद्वानों के बीच में पशु अर्थात् गधा के समान है।

अनेनार्येतिहासेन विज्ञायते न परमेश्वरं विहायान्यस्योपासका आर्या ह्यासन्निति।

इससे यह निश्चय हुआ कि आर्य लोग सब दिन से एक ईश्वर ही की उपासना करते आये हैं।


ईश्वर में देव के दश अर्थों की सङ्गति
[सम्पाद्यताम्]

अतः फलितार्थोऽयं जातः, देवशब्दे दिवुधातोर्ये दशार्थास्ते सङ्गता भवन्तीति। तद्यथा—क्रीडा, विजिगीषा, व्यवहारः, द्युतिः, स्तुतिः, मोदः, मदः, स्वप्नः, कान्तिः, गतिश्चेति। एषामुभयत्र समानार्थत्वात्। परन्त्वन्याः सर्वा देवताः परमेश्वरप्रकाश्याः सन्ति। स च स्वयंप्रकाशोऽस्ति। तत्र क्रीडनं क्रीडा, दुष्टान् विजेतुमिच्छा विजिगीषा, व्यवह्रियन्ते यस्मिन् व्यवहरणं व्यवहारः, स्वप्नो निद्रा, मदो ग्लेपनं दीनता, एते मुख्यतया लौकिकव्यवहारवृत्तयो भवन्ति। तत्सिद्धिहेतवोऽग्न्यादयो देवताः सन्ति। अत्रापि नैव सर्वथा परमेश्वरस्य त्यागो भवति, तस्य सर्वत्रानुषङ्गितया सर्वोत्पादकाधारकत्वात्। तथा द्युतिर्द्योतनं प्रकाशनं, स्तुतिर्गुणेषु गुणकथनं स्थापनं च, मोदो हर्षः प्रसन्नता, कान्तिः शोभा, गतिर्ज्ञानं, गमनं, प्राप्तिश्चेति। एते परमेश्वरे मुख्यवृत्त्या यथावत्संगच्छन्ते। अतोऽन्यत्र तत्सत्तया गौण्या वर्त्तन्ते। एवं गौणमुख्याभ्यां हेतुभ्यामुभयत्र देवतात्वं सम्यक् प्रतीयते।

इससे यह सिद्ध हुआ कि ‘दिवु’ धातु के जो दश अर्थ हैं, वे व्यवहार और परमार्थ इन दोनों अर्थ में यथावत् घटते हैं, क्योंकि इनके दोनों अर्थों की योजना वेदों में अच्छी प्रकार से की है। इनमें इतना भेद है कि पूर्वोक्त वसु आदि देवता परमेश्वर के ही प्रकाश से प्रकाशित होते हैं, और परमेश्वर देव तो अपने ही प्रकाश से सदा प्रकाशित हो रहा है। इससे वही सबका पूज्यदेव है। और दिवु धातु के दश अर्थ ये हैं कि—एक क्रीडा जो खेलना, दूसरा विजिगीषा जो शत्रुओं को जीतने की इच्छा होना, तीसरा व्यवहार जो कि दो प्रकार का है एक बाहर और दूसरा भीतर का, चौथा निद्रा और पाँचवाँ मद। ये पाँच अर्थ मुख्य करके व्यवहार में ही घटते हैं क्योंकि अग्नि आदि पदार्थ ही व्यवहारसिद्धि के हेतु हैं। परन्तु परमेश्वर का त्याग इसमें भी सर्वथा नहीं होता, क्योंकि वे देव उसीकी व्यापकता और रचना से दिव्य गुण वाले हुए हैं। तथा द्युति जो प्रकाश करना, स्तुति जो गुणों का कीर्तन करना, मोद प्रसन्नता, कान्ति शोभा, गति जो ज्ञान, गमन और प्राप्ति है, ये पांच अर्थ परमेश्वर में मुख्य करके वर्त्तते हैं। क्योंकि इनसे भिन्न अर्थों में जितने-जितने जिन-जिन में गुण हैं, उतना-उतना ही उनमें देवतापन लिया जाता है। परमेश्वर में तो सर्वशक्तिमत्त्वादि सब गुण अनन्त हैं, इससे पूज्यदेव एक वही है।


जड-चेतन देवों में से केवल ईश्वर उपास्य
[सम्पाद्यताम्]

अत्र केचिदाहुः-वेदेषु जडचेतनयोः पूजाभिधानाद्वेदाः संशयास्पदं प्राप्ताः सन्तीति गम्यते?

प्रश्न—इस विषय में कोई कोई मनुष्य ऐसा कहते हैं कि वेदों के प्रतिपादन से एक ईश्वर की पूजा सिद्ध नहीं हो सकती, क्योंकि उनमें जड़ और चेतन की पूजा लिखी है। इससे वेदों में संदेह सहित कथन मालूम पड़ता है।

अत्रोच्यते—मैवं भ्रमि। ईश्वरेण सर्वेषु पदार्थेषु स्वातन्त्र्यस्य रक्षितत्वात्। यथा चक्षुषि रूपग्रहणशक्तिस्तेन रक्षितास्ति, अतश्चक्षुष्मान् पश्यति नैवान्धश्चेति व्यवहारोऽस्ति। अत्र कश्चित् ब्रूयान्नेत्रेण सूर्यादिभिश्च विनेश्वरो रूपं कथं न दर्शयतीति, यथा तस्य व्यर्थेयं शङ्कास्ति। तथा पूजनं, पूजा सत्कारः, प्रियाचरणमनुकूलाचरणं चेत्यादयः पर्याया भवन्ति। इयं पूजा चक्षुषोऽपि सर्वैर्जनैः क्रियत एवमग्न्यादिषु यावदर्थद्योतकत्वं विद्याक्रियोपयोगित्वं चास्ति, तावद्देवतात्वमप्यस्तु, नात्र काचित् क्षतिरस्ति। कुतः? वेदेषु यत्र यत्रोपासना विधीयते तत्र तत्र देवतात्वेनेश्वरस्यैव ग्रहणात्।

उत्तर—ऐसा भ्रम मत करो, क्योंकि ईश्वर ने सब पदार्थों के बीच स्वतन्त्र गुण रक्खे हैं। जैसे उसने आँख में देखने का सामर्थ्य रक्खा है तो उससे दीखता है, यह लोक में व्यवहार है। इसमें कोई पुरुष ऐसा कहे कि ईश्वर नेत्र और सूर्य के विना रूप को क्यों नहीं दिखलाता है, जैसे यह शङ्का उसकी व्यर्थ है, वैसे ही पूजा-विषय में भी जानना। क्योंकि जो दूसरे का सत्कार, प्रियाचरण अर्थात् उसके अनुकूल काम करना है, इसीका नाम ‘पूजा’ है, सो सब मनुष्यों को करनी उचित है। इसी प्रकार अग्नि आदि पदार्थों में जितना-जितना अर्थ का प्रकाश, दिव्यगुण, क्रियासिद्धि और उपकार लेने का सम्भव है, उतना-उतना उनमें देवपन मानने से कुछ भी हानि नहीं हो सकती। क्योंकि वेदों में जहाँ-जहाँ उपासनाव्यवहार लिया जाता है, वहाँ-वहाँ एक अद्वितीय परमेश्वर का ही ग्रहण किया है।


देवता द्विविधः मूर्त और अमूर्त
[सम्पाद्यताम्]

तत्रापि मतद्वयं विग्रहवत्यविग्रहवद्देवताभेदात्। तच्चोभयं पूर्वं प्रतिपादितम्। अन्यच्च—

मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, आचार्यदेवो भव, अतिथिदेवो भव॥ (तै॰आ॰७.११; तै॰उप॰१.११.२)

त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि, त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि॥ (तै॰उ॰१.१.१)

इति सर्वमनुष्योपास्याः पञ्चदेवतास्तैत्तिरीयोपनिषद्युक्ताः। यथात्र मातापितरावाचार्योऽतिथिश्च सशरीरा देवताः सन्ति। एवं सर्वथा निःशरीरं ब्रह्मास्ति।

इस देवता विषय में दो प्रकार का भेद है—एक मूर्त्तिमान् और दूसरा अमूर्त्तिमान्। जैसे माता, पिता, आचार्य, अतिथि ये चार तो मूर्त्तिमान् देवता हैं, और पांचवाँ परब्रह्म अमूर्त्तिमान् है, अर्थात् उसकी किसी प्रकार की मूर्त्ति नहीं है। इस प्रकार से पाँच देव की पूजा में यह दो प्रकार का भेद जानना उचित है।


देवता त्रिविधः मूर्त, अमूर्त और मूर्तामूर्त
[सम्पाद्यताम्]

तथैव पूर्वोक्तासु देवतास्वग्निपृथिव्यादित्यचन्द्रमोनक्षत्राणि चेति पञ्च वसवो विग्रहवत्यः सन्ति। एवमेकादश रुद्रा द्वादशादित्या मनः षष्ठानि ज्ञानेन्द्रियाणि वायुरन्तरिक्षं द्यौर्मन्त्राश्चेति शरीररहिताः। तथा स्तनयित्नुविधियज्ञौ च सशरीराशरीरे देवते स्त इति। एवं सशरीरनिश्शरीरभेदेन देवताद्वयं भवति। तत्रैतासां व्यवहारोपयोगित्वमात्रमेव देवतात्वं गृह्यते। इत्थमेष मातृपित्राचार्यातिथीनां व्यवहारोपयोगित्वं परमार्थप्रकाशकत्वं चैतावन्मात्रं च। परमेश्वरस्तु खल्विष्टोपयोगित्वेनैवोपास्योऽस्ति। नातो वेदेषु ह्यपरा काचिद्देवता पूज्योपास्यत्वेन विहितास्तीति निश्चीयताम्।

इसी प्रकार पूर्वोक्त आठ वसुओं में से अग्नि, पृथिवी, आदित्य, चन्द्रमा और नक्षत्र ये पाँच मूर्त्तिमान् देव हैं। और ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य, मन, अन्तरिक्ष, वायु, द्यौ और मन्त्र ये मूर्त्तिरहित देव हैं। तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, बिजुली और विधियज्ञ ये सब देव मूर्त्तिमान् और अमूर्त्तिमान् भी हैं।  इससे साकार और निराकार भेद से दो प्रकार की व्यवस्था देवताओं में जाननी चाहिये। इनमें से पृथिव्यादि का देवपन केवल व्यवहार में, तथा माता, पिता, आचार्य और अतिथियों का व्यवहार में उपयोग और परमार्थ का प्रकाश करना मात्र ही देवपन है और ऐसे ही मन और इन्द्रियों का उपयोग व्यवहार और परमार्थ करने में होता है। परन्तु सब मनुष्यों को उपासना करने योग्य एक परमेश्वर ही देव है।


आर्य वेदोक्त निराकार परमेश्वर के ही उपासक

[सम्पाद्यताम्]

अत इदानींतनाः केचिदार्या यूरोपखण्डवासिनश्च भौतिकदेवतानामेव पूजनं वेदेष्वस्तीत्यूचुर्वदन्ति च, तदलीकतरमस्ति। तथा यूरोपखण्डवासिनो बहव एवं वदन्ति—पुरा ह्यार्या भौतिकदेवतानां पूजका आसन्, पुनस्ताः संपूज्य संपूज्य च बहुकालान्तरे परमात्मनं पूज्यं विदुरिति।

प्रश्न—कितने ही आजकल के आर्य और यूरोपदेशवासी अर्थात् अंगरेज आदि लोग इसमें ऐसी शंका करते हैं कि वेदों में पृथिव्यादि भूतों की पूजा कही है। वे लोग यह भी कहते हैं कि पहिले आर्य लोग भूतों की पूजा करते थे, फिर पूजते-पूजते बहुत काल पीछे उन्होंने परमेश्वर को भी पूज्य जाना था।

तदप्यसत्। तेषां सृष्ट्यारम्भमारभ्यानेकैरिन्द्रवरुणाग्न्यादिभिर्नामभिर्वेदोक्तरीत्येश्वरस्यैवोपासना- नुष्ठानाचारागमात्। अत्र प्रमाणानि—

उत्तर—यह उनका कहना मिथ्या है, क्योंकि आर्य लोग सृष्टि के आरम्भ से आज पर्यन्त इन्द्र, वरुण और अग्नि आदि नामों के द्वारा वेदोक्त प्रमाण से एक परमेश्वर की ही उपासना करते चले आये हैं। इस विषय में अनेक प्रमाण हैं, उनमें से थोड़े यहाँ भी लिखते हैं—

(अग्निमी॰) अस्य मन्त्रस्य व्याख्याने हि ‘इन्द्रं मित्रम्॰’ ऋग्मन्त्रोऽयम्। अस्योपरि ‘इममेवाग्निं महान्तमात्मानम्’ इत्यादि निरुक्तं च लिखितं तत्र (निरु॰७.१८) द्रष्टव्यम्। तथा ‘तदेवाग्निस्तदादित्य॰’ (यजु॰३२.१) इति यजुर्मन्त्रश्च

तमीशा॑नं॒ जग॑तस्त॒स्थुष॒स्पतिं॑ धियंजि॒न्वम॑वसे हूमहे व॒यम्।

पू॒षा नो॒ यथा॒ वेद॑सा॒मस॑द्वृ॒धे र॑क्षि॒ता पा॒युरद॑ब्धः स्व॒स्तये॑॥१॥ (ऋ॰१.८९.५)

[दयानन्दऋग्वेदभाष्य से उद्धृत— हे विद्वन्! (यथा) जैसे (पूषा) पुष्टि करनेवाला परमेश्वर (नः) हम लोगों के (वेदसाम्) विद्या आदि धनों की (वृधे) वृद्धि के लिये (रक्षिता) रक्षा करनेवाला (स्वस्तये) सुख के लिये (अदब्धः) अहिंसक अर्थात् जो हिंसा में प्राप्त न हुआ हो (पूषा) सब प्रकार की पुष्टि का दाता और (पायुः) सब प्रकार से पालना करनेवाला (असत्) होवे वैसे तू हो जैसे (वयम्) हम (अवसे) रक्षा के लिये (तम्) उस सृष्टि का प्रकाश करने (जगतः) जङ्गम और (तस्थुषः) स्थावरमात्र जगत् के (पतिम्) पालनेहारे (धियम्) समस्त पदार्थों का चिन्तनकर्त्ता (जिन्वम्) सुखों से तृप्त करने (ईशानम्) समस्त सृष्टि की विद्या के विधान करनेहारे ईश्वर को (हूमहे) आह्वान करते हैं, वैसे तू भी कर॥५॥]

हि॒र॒ण्य॒ग॒र्भः सम॑वर्त्त॒ताग्रे॑ भू॒तस्य॑ जा॒तः पति॒रेक॑ आसीत्।

स दा॑धार पृथि॒वीं द्यामु॒तेमां कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम॥२॥ (ऋ॰१०.१२१.१)

[जो स्वप्रकाश स्वरूप और जिसने प्रकाश करनेहारे सूर्य-चन्द्रमादि पदार्थ उत्पन्न करके धारण किये हैं, जो उत्पन्न हुए सम्पूर्ण जगत् का प्रसिद्ध स्वामी, एक ही चेतनस्वरूप था, जो सब जगत् के उत्पन्न होने से पूर्व वर्तमान था, सो इस भूमि और सूर्यादि को धारण कर रहा है। हम लोग उस सुखस्वरूप, शुद्ध परमात्मा के लिये ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास और अति प्रेम से विशेष भक्ति किया करें।]

प्र तद्वो॑चेद॒मृतं॒ नु वि॒द्वान् ग॑न्ध॒र्वो धाम॒ विभृ॑तं॒ गुहा॒ सत्।

त्रीणि॑ प॒दानि॒ निहि॑ता॒ गुहा॑स्य॒ यस्तानि॒ वेद॒ स पि॒तुः पि॒तास॑त्॥३॥ (यजु॰३२.९)

[दयानन्दयजुर्वेदभाष्य से उद्धृत—हे मनुष्यो! (यः) जो (गन्धर्वः) वेदवाणी को धारण करनेवाला (विद्वान्) पण्डित (गुहा) बुद्धि में (बिभृतम्) विशेष धारण किये (अमृतम्) नाशरहित (धाम) मुक्ति के स्थान (तत्) उस (सत्) नित्य चेतन ब्रह्म का (नु) शीघ्र (प्र, वोचेत्) गुण-कर्म-स्वभावों के सहित उपदेश करे और जो (अस्य) इस अविनाशी ब्रह्म के (गुहा) ज्ञान में (निहिता) स्थित (पदानि) जानने योग्य (त्रीणि) तीन उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय वा भूत, भविष्यत्, वर्त्तमान काल हैं, (तानि) उनको (वेद) जानता है, (सः) वह (पितुः) अपने पिता वा सर्वरक्षक ईश्वर का (पिता) ज्ञान देने वा आस्तिकत्व से रक्षक (असत्) होवे॥९॥]

स नो॒ बन्धु॑र्जनि॒ता स वि॑धा॒ता धामा॑नि वेद॒ भुव॑नानि॒ विश्वा॑।

यत्र॑ दे॒वा अ॒मृत॑मानशा॒नास्तृ॒तीये॒ धाम॑न्न॒ध्यैरयन्त॥४॥ (यजु॰३२.१०)

[दयानन्दयजुर्वेदभाष्य से उद्धृत—हे मनुष्यो! (यत्र) जिस (तृतीये) जीव और प्रकृति से विलक्षण (धामन्) आधाररूप जगदीश्वर में (अमृतम्) मोक्ष सुख को (आनशानाः) प्राप्त होते हुए (देवाः) विद्वान् लोग (अध्यैरयन्त) सर्वत्र अपनी इच्छापूर्वक विचरते हैं, जो (विश्वा) सब (भुवनानि) लोक-लोकान्तरों और (धामानि) जन्म, स्थान, नामों को (वेद) जानता है, (सः) वह परमात्मा (नः) हमारा (बन्धुः) भाई के तुल्य मान्य सहायक (जनिता) उत्पन्न करनेहारा, (सः) वही (विधाता) सब पदार्थों और कर्मफलों का विधान करनेवाला है, यह निश्चय करो॥१०॥]

प॒रीत्य॑ भू॒तानि॑ प॒रीत्य॑ लो॒कान् प॒रीत्य॒ सर्वाः॑ प्र॒दिशो॒ दिश॑श्च।

उ॒प॒स्थाय॑ प्रथम॒जामृ॒तस्या॒त्मना॒त्मान॑म॒भि सं वि॑वेश॥५॥ (यजु॰३२.११)

[दयानन्दयजुर्वेदभाष्य से उद्धृत—हे विद्वन्! आप जो (भूतानि) प्राणियों को (परीत्य) सब ओर से व्याप्त हो के (लोकान्) पृथिवी सूर्यादि लोकों को (परीत्य) सब ओर से व्याप्त हो के (च) और ऊपर नीचे (सर्वाः) सब (प्रदिशः) आग्नेयादि उपदिशा तथा (दिशः) पूर्वादि दिशाओं को (परीत्य) सब ओर से व्याप्त हो के (ऋतस्य) सत्य के (आत्मानम्) स्वरूप वा अधिष्ठान को (अभि, सम्, विवेश) सम्मुखता से सम्यक् प्रवेश करता है (प्रथमजाम्) प्रथम कल्पादि में उत्पन्न चार वेदरूप वाणी को (उपस्थाय) पढ़ वा सम्यक् सेवन करके (आत्मना) अपने शुद्धस्वरूप वा अन्तःकरण से उसको प्राप्त हूजिये॥११॥]

वेदा॒हमे॒तं पुरु॑षं म॒हान्त॑मादि॒त्यव॑र्णं॒ तम॑सः प॒रस्ता॑त्।

तमे॒व वि॑दि॒त्वाति॑ मृ॒त्युमे॑ति॒ नान्यः पन्था॑ विद्य॒तेऽय॑नाय॥६॥ (यजु॰३१.१८)

[दयानन्दयजुर्वेदभाष्य से उद्धृत—हे जिज्ञासु पुरुष! (अहम्) मैं जिस (एतम्) इस पूर्वोक्त (महान्तम्) बड़े-बड़े गुणों से युक्त (आदित्यवर्णम्) सूर्य के तुल्य प्रकाशस्वरूप (तमसः) अन्धकार वा अज्ञान से (परस्तात्) पृथक् वर्त्तमान (पुरुषम्) स्वस्वरूप से सर्वत्र पूर्ण परमात्मा को (वेद) जानता हूं (तम्, एव) उसी को (विदित्वा) जान के आप (मृत्युम्) दुःखदायी मरण को (अति, एति) उल्लङ्घन कर जाते हो, किन्तु (अन्यः) इससे भिन्न (पन्थाः) मार्ग (अयनाय) अभीष्ट स्थान मोक्ष के लिये (न, विद्यते) नही विद्यमान है॥१८॥]

तदे॑जति॒ तन्नैज॑ति॒ तद् दू॒रे तद्व॑न्ति॒के।

तद॒न्तर॑स्य॒ सर्व॑स्य॒ तदु॒ सर्व॑स्यास्य बाह्य॒तः॥७॥ (यजु॰३४.५)

[दयानन्दयजुर्वेदभाष्य से उद्धृत—हे मनुष्यो! (तत्) वह ब्रह्म (एजति) मूर्खों की दृष्टि से चलायमान होता (तत्) (न, एजति) अपने स्वरूप से न चलायमान और न चलाया जाता (तत्) वह (दूरे) अधर्मात्मा अविद्वान् अयोगियों से दूर अर्थात् क्रोड़ों वर्ष में भी नहीं प्राप्त होता (तत्) वह (उ) ही (अन्तिके) धर्मात्मा विद्वान् योगियों के समीप (तत्) वह (अस्य) इस (सर्वस्य) सब जगत् वा जीवों के (अन्तः) भीतर (उ) और (तत्) वह (अस्य, सर्वस्य) इस प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्षरूप के (बाह्यतः) बाहर भी वर्त्तमान है॥५॥]

स पर्य्य॒गाच्छु॒क्रम॑का॒यम॑व्र॒णमित्यादि च॥ (यजु॰४०.८)

[दयानन्दयजुर्वेदभाष्य से उद्धृत—हे मनुष्यो! जो ब्रह्म (शुक्रम्) शीघ्रकारी सर्वशक्तिमान् (अकायम्) स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीररहित (अव्रणम्) छिद्ररहित और नहीं छेद करने योग्य (अस्नाविरम्) नाड़ी आदि के साथ सम्बन्धरूप बन्धन से रहित (शुद्धम्) अविद्यादि दोषों से रहित होने से सदा पवित्र और (अपापविद्धम्) जो पापयुक्त, पापकारी और पाप में प्रीति करनेवाला कभी नहीं होता (परि, अगात्) सब ओर से व्याप्त जो (कविः) सर्वत्र (मनीषी) सब जीवों के मनों की वृत्तियों को जाननेवाला (परिभूः) दुष्ट पापियों का तिरस्कार करनेवाला और (स्वयम्भूः) अनादि स्वरूप जिसकी संयोग से उत्पत्ति, वियोग से विनाश, माता, पिता, गर्भवास, जन्म, वृद्धि और मरण नहीं होते, वह परमात्मा (शाश्वतीभ्यः) सनातन अनादिस्वरूप अपने-अपने स्वरूप से उत्पत्ति और विनाशरहित (समाभ्यः) प्रजाओं के लिये (याथातथ्यतः) यथार्थ भाव से (अर्थान्) वेद द्वारा सब पदार्थों को (व्यदधात्) विशेष कर बनाता है, (सः) वही परमेश्वर तुम लोगों को उपासना करने के योग्य है॥८॥]

य इ॒मा विश्वा॒ भुव॑नानि॒ जुह्व॒दृषि॒र्होता॒ न्यसी॑दत्पि॒ता नः॑।

स आ॒शिषा॒ द्रवि॑णमि॒च्छमा॑नः प्रथम॒च्छदव॑राँ॒ २ आवि॑वेश॥८॥ (यजु॰१७.१७)

[दयानन्दयजुर्वेदभाष्य से उद्धृत—हे मनुष्यो! (यः) जो (ऋषिः) ज्ञानस्वरूप (होता) सब पदार्थों को देने वा ग्रहण करनेहारा (नः) हम लोगों का (पिता) रक्षक परमेश्वर (इमा) इन (विश्वा) सब (भुवनानि) लोकों को व्याप्त होके (न्यसीदत्) निरन्तर स्थित है और जो सब लोकों का (जुह्वत्) धारणकर्त्ता है (सः) वह (आशिषा) आशीर्वाद से हमारे लिये (द्रविणम्) धन को (इच्छमानः) चाहता और (प्रथमच्छत्) विस्तृत पदार्थों को आच्छादित करता हुआ (अवरान्) पूर्ण आकाशादि को (आविवेश) अच्छे प्रकार व्याप्त हो रहा है, यह तुम जानो॥१७॥]

किꣳस्वि॑दासीदधि॒ष्ठान॑मा॒रम्भ॑णं कत॒मत् स्वि॑त् क॒थासी॑त्।

यतो॒ भूमिं॑ ज॒नय॑न् वि॒श्वक॑र्मा॒ वि द्यामौर्णो॑न्महि॒ना वि॒श्वच॑क्षाः॥९॥ (यजु॰१७.१८)

[दयानन्दयजुर्वेदभाष्य से उद्धृत—हे विद्वन् पुरुष! इस जगत् का (अधिष्ठानम्) आधार (किं, स्वित्) क्या आश्चर्यरूप (आसीत्) है, तथा (आरम्भणम्) इस कार्य-जगत् की रचना का आरम्भ कारण (कतमत्) बहुत उपादानों में क्या और वह (कथा) किस प्रकार से (स्वित्) तर्क के साथ (आसीत्) है कि (यतः) जिससे (विश्वकर्मा) सब सत्कर्मों वाला (विश्वचक्षाः) सब जगत् का द्रष्टा जगदीश्वर (भूमिम्) पृथिवी और (द्याम्) सूर्यादि लोक को (जनयन्) उत्पन्न करता हुआ (महिना) अपनी महिमा से (व्यौर्णोत्) विविध प्रकार से आच्छादित करता है॥१८॥]

वि॒श्वत॑श्चक्षुरु॒त वि॒श्वतो॑मुखो वि॒श्वतो॑बाहुरु॒त वि॒श्वत॑स्पात्।

सं बा॒हुभ्यां॒ धम॑ति॒ सं पत॑त्रैर्द्यावा॒भूमी॑ ज॒नय॑न् दे॒वऽएक॑:॥१०॥ (यजु॰१७.१९)

[दयानन्दयजुर्वेदभाष्य से उद्धृत—हे मनुष्यो! तुम लोग जो (विश्वतश्चक्षुः) सब संसार को देखने (उत) और (विश्वतोमुखः) सब ओर से सब का उपदेश करनेहारा (विश्वतोबाहुः) सब प्रकार से अनन्त बल तथा पराक्रम से युक्त (उत) और (विश्वतस्पात्) सर्वत्र व्याप्ति वाला (एकः) अद्वितीय सहायरहित (देवः) अपने आप प्रकाशस्वरूप (पतत्रैः) क्रियाशील परमाणु आदि से (द्यावाभूमी) सूर्य्य और पृथिवी लोक को (सम्, जनयन्) कार्य्यरूप प्रकट करता हुआ (बाहुभ्याम्) अनन्त बल पराक्रम से सब जगत् को (सम्, धमति) सम्यक् प्राप्त हो रहा है, उसी परमेश्वर को अपना सब ओर से रक्षक उपास्यदेव जानो॥१९॥]

इत्यादयो मन्त्रा यजुषि बहवः सन्ति, तथा सामवेदस्योत्तरार्चिके त्रिकम् ११—

अ꣣भि꣡ त्वा꣢ शूर नोनु꣣मोऽदु꣢ग्धाइव धे꣣न꣡व꣢:।

ई꣡शा꣢नम꣣स्य꣡ ज꣢ग꣢तः स्व꣣र्दृ꣢श꣣मी꣡शा꣢नमिन्द्र त꣣स्थु꣡षः॥११॥ (साम॰उत्त॰६८०)

[दयानन्दयजुर्वेदभाष्य {२७.३५} से उद्धृत—हे (शूर) निर्भय (इन्द्र) सभापते (अदुग्धा इव) बिना दूध की (धेनवः) गौओं के समान हम लोग (अस्य) इस (जगतः) चर तथा (तस्थुषः) अचर संसार के (ईशानम्) नियन्ता (स्वर्दृशम्) सुखपूर्वक देखने योग्य ईश्वर के तुल्य (ईशानम्) समर्थ (त्वा) आप को (अभि, नोनुमः) सन्मुख से सत्कार वा प्रशंसा करें॥३५॥]

न꣡ त्वावाँ꣢꣯ अ꣣न्यो꣢ दि꣣व्यो꣡ न पार्थि꣢꣯वो न जा꣣तो꣡ न जनि꣢ष्यते।

अ꣣श्वाय꣡न्तो꣢ मघवन्निन्द्र वा꣣जि꣡नो꣢ ग꣣व्यन्त꣡स्त्वा हवामहे॥१२॥ (साम॰उत्त॰६८१)

इत्यादयश्च।

[दयानन्दयजुर्वेदभाष्य {२७.३६} से उद्धृत—हे (मघवन्) पूजित उत्तम ऐश्वर्य से युक्त (इन्द्र) सब दुःखों के विनाशक परमेश्वर! (वाजिनः) वेगवाले (गव्यन्तः) उत्तम वाणी बोलते हुए (अश्वायन्तः) अपने को शीघ्रता चाहते हुए हम लोग (त्वा) आप की (हवामहे) स्तुति करते हैं, क्योंकि जिस कारण कोई (अन्यः) अन्य पदार्थ (न) न कोई (त्वावान्) आप के (दिव्यः) शुद्ध (न) न कोई (पार्थिवः) पृथिवी पर प्रसिद्ध (न) न कोई (जातः) उत्पन्न हुआ और (न) न (जनिष्यते) होगा, इससे आप ही हमारे उपास्यदेव हैं॥३६॥]

नास॑दासी॒न्नो सदा॑सीत्त॒दानीं॒ नासी॒द्रजो॒ नो व्यो॑मा प॒रो यत्।

किमाव॑रीवः॒ कुह॒कस्य॒ शर्म्म॒न्नम्भः॒ किमा॑सी॒द् गह॑नं गभी॒रम्॥१३॥ (ऋ॰१.१२९.१)

[जब यह कार्यसृष्टि उत्पन्न नहीं हुई थी, तब एक सर्वशक्तिमान् परमेश्वर और दूसरा जगत् का कारण अर्थात् जगत् बनाने की सामग्री विराजमान थी। उस समय असत् शून्य नाम आकाश अर्थात् जो नेत्रों से देखने मे नहीं आता, सो भी नहीं था, क्योंकि उस समय उसका व्यवहार नहीं था। उस समय ‘सत्’ अर्थात् सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण मिलाके जो प्रकृति बनती है, वह भी व्यवहार न होने से नहीं थी। व्यवहार न होने से उस समय परमाणु भी नहीं ये तथा विराट् अर्थात् जो सब स्थूल जगत् के निवास का स्थान है, सो भी नहीं था। जो यह वर्त्तमान जगत् है वह भी ब्रह्म को ढक नही सकता और उससे अधिक वा अथाह भी नहीं हो सकता, जैसे कोहरे का जल पृथिवी को नहीं ढक सकता। उस जल से नदी में प्रवाह भी नहीं चल सकता। अभिप्राय यह है कि सम्पूर्ण जगत् भी परमेश्वर की तुलना में कुछ भी नहीं है।]

इयं विसृ॑ष्टि॒र्यत॑ आब॒भूव॒ यदि॑ वा द॒धे यदि॑ वा॒ न।

यो अ॒स्याध्य॑क्षः पर॒मे व्यो॑म॒न्त्सो अ॒ङ्ग वेद॒ यदि॑ वा॒ न वेद॑॥१४॥ (ऋ॰१.१२९.७)

[जिस परमेश्वर के रचने से यह नाना प्रकार का जगत् उत्पन्न हुआ वही इसे धारण करता है और समय आने पर इसका संहार भी करता है। वही इसका स्वामी है। जो मनुष्य उस परमेश्वर को अपनी बुद्धि से जानता है, वही उसे प्राप्त करता है और जो उसे नहीं जानता वह दुःख में पड़ता है। जो आकाश के समान व्यापक है, उसी ईश्वर में सब जगत् निवास करता है और जब प्रलय होती है, तब भी सब जगत् कारणरूप होके ईश्वर के सामर्थ्य मे रहता है, और फिर उसी से उत्पन्न होता है।]

इत्यन्ताः सप्त मन्त्रा ऋग्वेदे॥

यत्प॑र॒मम॑व॒मं यच्च॑ मध्य॒मं प्र॒जाप॑तिः॒ ससृजे वि॒श्व॑रूपम्।

किय॑ता स्क॒म्भः प्रवि॑वेश॒ तत्र॒ यन्न प्रावि॑श॒त् किय॒त् तद्ब॑भूव॥१५॥ (अथर्व॰१०.७.८)

[प्रजाओं के पालक परमात्मा ने जो परम, सबसे उत्कृष्ट सात्त्विक या द्युलोक, सबसे निकृष्ट तामस या भूलोक और जो मध्यम या राजस अन्तरिक्षलोक विश्वरूप समस्त ब्रह्माण्ड बनाया है, उसमें वह परम आश्रय स्तम्भरूप ‘स्कम्भ’ ज्येष्ठ ब्रह्म कितने अंश से प्रविष्ट और जो भाग उसमें प्रविष्ट नहीं है, वह कितना शेष है।]

यस्मि॒न् भूमि॑र॒न्तरि॑क्षं॒ द्यौर्यस्मि॒न्नध्याहि॑ता। यत्रा॒न्निश्च॒न्द्रमाः॒ सूर्यो॒ वात॒स्तिष्ठ॒न्त्यार्पि॑ताः स्क॒म्भं तं ब्रू॑हि कत॒मः स्वि॑दे॒व सः॥१६॥ (अथर्व॰१०.७.१२)

[(यस्मिन्) जिसमें (भूमिः) भूमि (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष (यस्मिन्) जिसमें (द्यौः) द्युलोक (अध्याहिता) स्थित है, (यत्र) जिसमें (अग्निः) अग्नि, (चन्द्रमाः) चन्द्रमा, (सूर्यः) सूर्य, (वातः) वायु (आर्पिताः) समर्पित हुए (तिष्ठन्ति) स्थित हैं, (तम्) उसे तू (स्कम्भम्) स्कम्भ (ब्रूहि) कह, (सः) वह (कतमः स्विदेव) अतिशय सुखस्वरूप ही है।]

इत्यादयोऽथर्ववेदेऽपि बहवो मन्त्राः सन्ति। एतेषां मन्त्राणां मध्यात् केषाञ्चिदर्थः पूर्वः प्रकाशितः केषाञ्चिदग्रे विधास्यतेऽत्राप्रसङ्गान्नोच्यते।

[इत्यादि अथर्ववेद में भी बहुत से मन्त्र हैं। इन मन्त्रों में से कुछ का अर्थ पूर्व में प्रकाशित कर दिया है और कुछ का आगे प्रकाशित किया जायेगा, यहाँ प्रसङ्ग न होने से इनका अर्थ नहीं कहा जा रहा है।]

अणोरणीयान् महतो महीयान् आत्मास्य जन्तोर्निहितो गुहायाम्।

तमक्रतुः पश्यति वीतशोको धातुः प्रसादान्महिमानमात्मनः॥१॥ (कठ॰२.२०)

[वह ब्रह्म सूक्ष्म (जीव) से सूक्ष्म है और बड़े-से-बड़े (आकाशादि) से भी बड़ा है। वह इस प्राणी के हृदयाकाश में स्थिर है। उस ब्रह्म की महिमा को निष्काम, शोकरहित प्राणी बुद्धि के निर्मल होने से देख पाता है।]

अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं तथाऽरसं नित्यमगन्धवच्च यत्।

अनाद्यनन्तं महतः परं ध्रुवं निचाय्य तन्मृत्युमुखात् प्रमुच्यते॥२॥ (कठ॰३.१५)

[वह ब्रह्म शब्द नहीं जो कान से सुना जा सके, स्पर्श नहीं जो त्वचा से अनुभव किया जा सके, रूप नहीं जो आख से देखा जा सके, रस नहीं जो जिह्वा से चखा जा सके, गन्धवाला नहीं जो नाक से सूंघा जा सके, अविनाशी, सदा एकरस, अजन्मा, अनन्त, महतत्त्व से भी सूक्ष्म और अचल है। उसको निश्चयात्मक रीति से जानकर मनुष्य मृत्यु के मुख से छूट जाता है।]

यदेवेह तदमुत्र यदमुत्र तदन्विह।

मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति॥३॥ (कठ॰४.१०)

[जो ब्रह्म यहाँ है वही वहाँ है, जो वहाँ है वही यहाँ है अर्थात् सर्वत्र एक ही शक्ति कार्य कर रही है। जो इस बात को न समझकर नानाभाव की कल्पना करता है वह आवागमन के आवर्त्तमान चक्र में फँसा रहता है।]

एको वशी सर्वभूतान्तरात्मा एकं रूपं बहुधा यः करोति।

तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरास्तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम्॥४॥ (कठ॰५.१२)

[सम्पूर्ण जगत् को एक ही ब्रह्म वश में रखता है, वही सब भूतों का अन्तरात्मा है। वही एक रूपवाली प्रकृति को अनेक नामरूपवाली बनाता है। जो धीर पुरुष जीवात्मा में स्थित उस परमात्मा को देख लेते हैं, उन्हें शाश्वत सुख प्राप्त होता है, अन्यों को नहीं।]

नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनानामेको बहूनां यो विदधाति कामान्।

तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरास्तेषां शान्तिः शाश्वती नेतरेषाम्॥५॥ (कठ॰५.१३)

[परमात्मा नित्यों (ईश्वर-जीव-प्रकृति) में एकमात्र नित्य है और चेतनों (जीवात्मा व परमात्मा) में एकमात्र चेतन है और वह विविध कामनाओं को रचता है, जो विवेकी आत्मा में स्थित उस परमात्मा को अनुभव कर लेते हैं, उही को स्थायी शान्ति मिलती हौ अन्यों को नहीं।]

दिव्यो ह्यमूर्त्तः पुरुषः स बाह्याभ्यन्तरो ह्यजः।

अप्राणो ह्यमनाः शुभ्रो ह्यक्षरात् परतः परः॥६॥ (मुण्ड॰२.१.२)

[निश्चय ही आभायुक्त वह पुरुष (परमात्मा) अमूर्त है। वह बाहर-भीतर सर्वत्र व्यापक है। वह जन्मरहित, प्राणरहित, मन से शून्य अत्यन्त पवित्र और अक्षर (प्रकृति) से भी परे और जीवात्मा से भी परे है।]

यः सर्वज्ञः सर्वविद्यस्यैष महिमा भुवि।

दिव्ये ब्रह्मपुरे ह्येष व्योम्न्यात्मा प्रतिष्ठितः॥७॥ (मुण्ड॰१.१.९)

[जो सर्वज्ञ और सर्वत्र विद्यमान है। सम्पूर्ण विश्व में जिसकी महिमा ज्ञात है, निश्चय ही वह परमात्मा दिव्य हृदयाकाशरूपी ब्रह्मपुर में प्रतिष्ठित है।]

नान्तःप्रज्ञं न बहिःप्रज्ञं नोभयतःप्रज्ञं न प्रज्ञं नाप्रज्ञम्। अदृष्टमव्यवहार्यमग्राह्यमलक्षणमचिन्त्यमव्यपदेश्यमेकात्मप्रत्यसारं प्रपञ्चोपशमं शान्तं शिवमद्वैतं चतुर्थं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः॥८॥ (इति माण्डू॰मन्त्र-७)

[चतुर्थपाद जीवात्मा और ब्रह्म का तुरीय स्थान है। इस रूप में वह अन्तःप्रज्ञ नहीं होता, बहिःप्रज्ञ नहीं होता, उभयप्रज्ञ नहीं होता, प्रज्ञानघन नहीं होता, प्रज्ञ नहीं होता, अप्रज्ञ भी नहीं होता। जीवात्मा की शरीर में, और ब्रह्म की प्रकृति में क्रिया करते समय ही ये अवस्थाएँ होतीं हैं। वस्तुतः जीवात्मा और ब्रह्म का चतुर्थ पाद इन सब अवस्थाओं से परे है। वह अदृष्ट है, अव्यवहार्य है, अग्राह्य है। उसका लक्षण भी नहीं हो सकता। न उसका चिन्तन हो सकता है, न निर्देश। वहां संसार का सब प्रपञ्च उपशम हो जाता है। वह शान्त अवस्था है, शिव अवस्था है, अद्वैत अवस्था है। प्रपञ्च के उपशम के कारण उस अवस्था में केवल आत्मा की सत्ता ही साररूप में रह जाती है। शरीर के प्रपञ्च के पीछे जीवात्मा और संसार के प्रपञ्च के पीछे ब्रह्म ही सार वस्तु है। जीवात्मा और ब्रह्म ही आत्मतत्त्व है। उसे ही जानना चाहिए।]

सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म यो वेद निहितं गुहायाम्।

परमे व्योमन्त्सोऽश्नुते सर्वान् कामान् ब्रह्मणा सह विपश्चितेति॥९॥ (तै॰उ॰२.१.१)

[ब्रह्म ‘सत्य’ है, ‘ज्ञान’ है, ‘अनन्त’ है। वह हृदय की गुहा में छिपा हुआ है, किन्तु साथ ही परम व्योम में, अन्तरिक्षमण्डल में भी वही स्पष्ट दीख रहा है। उसे जो जान लेता है वह सर्वज्ञ ब्रह्म का साथी हो जाता है और तब उसकी कोई कामना अपूर्ण नहीं रहती, वह सब प्रकार से तृप्त हो जाता है।]

यो वै भूमा तत्सुखं नाल्पे सुखमस्ति भूमैव सुखम्। भूमा त्वेव विजिज्ञासितव्य इति। यत्र नान्यत् पश्यति नान्यच्छृणोति नान्यद्विजानाति स भूमा। अथ यत्रान्यत् पश्यत्यन्यच्छृणोत्यन्यद्विजानाति तदल्पम्। यो वै भूमा तदमृतमथ यदल्पं तन्मर्त्यꣳ स भगवः कस्मिन् प्रतिष्ठित इति स्वे महिम्नि॥१०॥  (छान्दो॰७.२४.१)

[जो ’भूमा’ अर्थात् असीम है, निरतिशय है वही सुख है, जो ’अल्प’ है, परिमित है उसमें सुख नहीं है। ’भूमा’ ही सुख है, इसलिए ’भूमा’ को ही जानना चाहिए। जिस अवस्था में आत्मा अन्य वस्तु को न देखता है, न सुनता है, न जानता है, वही ’भूमा’ है। जहाँ आत्मा अन्य वस्तु को देखता - सुनता जानता है, वही ’अल्प’ है। जो भूमा है, वह अमृत है। जो अल्प है, वह मर्त्य है, मरणधर्मा है। (नारद ने पूछा) — यह ’भूमा’ किसमें प्रतिष्ठित है? ऋषि ने उत्तर दिया —भूमा अपनी ही महिमा में प्रतिष्ठित है।]

वेदोक्तेशानादि-विशेषण-प्रतिपादितोऽणोरणीयानित्याद्युपनिषदुक्त-विशेषण-प्रतिपादितश्च यः परमेश्वरोऽस्ति, स एवाऽऽर्य्यैः सृष्टिमारभ्याद्यपर्यन्तं यथावद्विदित्वोपासितोऽस्तीति मन्यध्वम्। एवं परब्रह्मविषयप्रकाशकेषु प्रमाणेषु सत्सु यद्भट्टमोक्षमूलरैरुक्तमार्याणां पूर्वमीश्वरज्ञानं नासीत् पुनः क्रमाज्जातमिति, न तच्छिष्टग्रहणार्हमस्तीति विजानीमः।

(इन्द्रं मित्रम्॰) इसमें चारों वेद, शतपथ आदि चारों ब्राह्मण, निरुक्त और छः शास्त्र आदि के अनेक प्रमाण हैं कि जिस सद्वस्तु ब्रह्म के इन्द्र, ईशान, अग्नि आदि वेदोक्त नाम हैं और ‘अणोरणीयान्’ इत्यादि उपनिषदों के विशेषणों से जिसका प्रतिपादन किया है, उसीकी उपासना आर्य लोग सदा से करते आये हैं। इन मन्त्रों में से जिनका अर्थ भूमिका में नहीं किया है, उनका आगे वेदभाष्य में किया जायगा। और कोई-कोई आर्य लोग किंवा यूरोप आदि देशों में रहने वाले अंगरेज कहते हैं कि प्राचीन आर्य लोग अनेक देवताओं और भूतों की पूजा करते थे, यह उनका कहना व्यर्थ है, क्योंकि वेदों और उनके प्राचीन व्याख्यानों में अग्नि आदि नामों से उपासना के लिये एक परमेश्वर का ही ग्रहण किया है, जिसकी उपासना आर्य लोग करते थे। इससे पूर्वोक्त शंका किसी प्रकार से नहीं आ सकती।


छन्दोभाग की तुलना में मन्त्रभाग को अर्वाचीन मानना अयुक्तिसङ्गत

[सम्पाद्यताम्]

किंच ‘हिरण्यगर्भः समवर्त्तताग्रे भूतस्य जातः पति॰’ एतन्मन्त्रव्याख्यानावसरेऽयं मन्त्रोऽर्वाचीनोऽस्ति छन्दस इति शारमण्यदेशोत्पन्नैर्भट्टमोक्षमूलरैः स्वकीयसंस्कृतसाहित्याख्ये ग्रन्थ एतद्विषये यदुक्तं, तन्न सङ्गच्छते। यच्च वेदानां द्वौ भागावेकश्छन्दो द्वितीयो मन्त्रश्च। तत्र यत्सामान्यार्थाभिधानं परबुद्धिप्रेरणाजन्यं स्वकल्पनया रचनाभावं यथाह्यज्ञानिनो मुखाद् अकस्मान्निस्सरेदीदृशं यद्रचनं तच्छन्द इति विज्ञेयम्। तस्योत्पत्तिसमय एकत्रिंशच्छतानि वर्षाण्यधिकानि व्यतीतानि। तथैकोनत्रिंशच्छतानि वर्षाणि मन्त्रोत्पत्तौ चेत्यनुमानं तेषामस्ति। तत्र तैरुक्तानि प्रमाणानि—‘अग्निः पूर्वेभिर्ऋषिभिरीड्यो नूतनैरुत’ इत्यादीनि ज्ञातव्यानि।

इसी विषय में डाक्टर मोक्षमूलर साहेब ने अपने बनाये संस्कृत साहित्य ग्रन्थ में ऐसा लिखा है कि आर्य लोगों को क्रम से अर्थात् बहुत काल के पीछे ईश्वर का ज्ञान हुआ था, और वेदों के प्राचीन होने में एक भी प्रमाण नहीं मिलता, किन्तु उनके नवीन होने में तो अनेक प्रमाण पाये जाते हैं। इसमें एक तो ‘हिरण्यगर्भ’ शब्द का प्रमाण दिया है कि छन्दोभाग से मन्त्रभाग दो सौ वर्ष पीछे बना है, और दूसरा यह है कि वेदों में दो भाग हैं, एक तो छन्द और दूसरा मन्त्र। उनमें छन्दोभाग ऐसा है जो सामान्य अर्थ के साथ सम्बन्ध रखता है, और दूसरे की प्रेरणा से प्रकाशित हुआ मालूम पड़ता है, कि जिसकी उत्पत्ति बनाने वाले की प्रेरणा से नहीं हो सकती, और उसमें कथन इस प्रकार का है, जैसे अज्ञानी के मुख से अकस्मात् वचन निकलता हो। उसकी उत्पत्ति में (३१००) इकत्तीस सौ वर्ष व्यतीत हुए हैं और मन्त्रभाग की उत्पत्ति में (२९००) उनतीस सौ वर्ष हुए हैं। उसमें (अग्निः पूर्वेभिः०) इस मन्त्र का भी प्रमाण दिया है।


हिरण्यगर्भ का आशय
[सम्पाद्यताम्]

तदिदमप्यन्यथास्ति। कुतः? हिरण्यगर्भशब्दस्यार्थज्ञानाभावात्।

अत्र प्रमाणानि—

‘ज्योतिर्वै हिरण्यं ज्योतिरेषोमृतꣳ हिरण्यम्॥’ (श॰ब्रा॰६.७.१.२)

केशी केशा रश्मयस्तैस्तद्वान् भवति। काशनाद्वा प्रकाशनाद्वा। केशीदं ज्योतिरुच्यते॥ (निरु॰१२.२५)

यशो वै हिरण्यम्॥ (ऐ॰ब्रा॰७.३.६)

ज्योतिरेवायं पुरुष इत्यात्मज्योतिः॥ (श॰ब्रा॰१४.७.१.६)

ज्योतिरिन्द्राग्नी॥ (श॰ब्रा॰१०.४.१.६)

एषामर्थः—ज्योतिर्विज्ञानं गर्भः स्वरूपं यस्य स हिरण्यगर्भः। एवं च ज्योतिर्हिरण्यं प्रकाशो ज्योतिरमृतं मोक्षो ज्योतिरादित्यादयः केशाः प्रकाशका लोकाश्च, यशः सत्कीर्तिर्धन्यवादश्च, ज्योतिरात्मा जीवश्च, ज्योतिरिन्द्रः सूर्योऽग्निश्चैतत्सर्वं हिरण्याख्यं गर्भे सामर्थ्ये यस्य स हिरण्यगर्भः परमेश्वरः।

सो उनका यह कहना ठीक नहीं हो सकता, क्योंकि उन्होंने (हिरण्यगर्भः०) और (अग्निः पूर्वेभिः०) इन दोनों मन्त्रों का अर्थ यथावत् नहीं जाना है। तथा मालूम होता है कि उनको ‘हिरण्यगर्भ’ शब्द नवीन जान पड़ा होगा, इस विचार से कि हिरण्य नाम सोने का, वह सृष्टि से बहुत पीछे उत्पन्न हुआ है अर्थात् मनुष्यों की उन्नति, राजा और प्रजा के प्रबन्ध होने के उपरान्त पृथिवी में से निकाला गया है। सो यह बात भी उनकी ठीक नहीं हो सकती, क्योंकि इस शब्द का अर्थ यह है कि— ज्योति कहते हैं विज्ञान को, सो जिसके गर्भ अर्थात् स्वरूप में है, ज्योति अमृत अर्थात् मोक्ष है सामर्थ्य में जिसके और ज्योति जो प्रकाशस्वरूप सूर्यादि लोक जिसके गर्भ में हैं, तथा ज्योति जो जीवात्मा जिसके गर्भ अर्थात् सामर्थ्य में है तथा यशः सत्कीर्ति जो धन्यवाद जिसके स्वरूप में है, इसी प्रकार ज्योति=इन्द्र अर्थात् सूर्य, वायु और अग्नि ये सब जिसके सामर्थ्य में हैं, ऐसा जो एक परमेश्वर है उसी को हिरण्यगर्भ कहते हैं।

अतो हिरण्यगर्भशब्दप्रयोगाद् वेदानामुत्तमत्वं सनातनत्वं तु निश्चीयते न नवीनत्वं च। अस्मात् कारणाद् यत्तैरुक्तं हिरण्यगर्भशब्दप्रयोगान्मन्त्रभागस्य नवीनत्वं तु द्योतितं भवति, किन्त्वस्य प्राचीनत्वे किमपि प्रमाणं नोपलभामह इति तद् भ्रममूलमेव विज्ञेयम्। यच्चोक्तं मन्त्रभागनवीनत्वे ‘अग्निः पूर्वेभि’ रित्यादिकारणम्, तदपि तादृशमेव। कुतः? ईश्वरस्य त्रिकालदर्शित्वात्। ईश्वरो हि त्रीन् कालान् जानाति। भूतभविष्यद्वर्त्तमानकालस्थैर्मन्त्रद्रष्टृभिर्मनुष्यैर्मन्त्रैः प्राणैस्तर्कैश्चर्षिभिरहमेवेड्यो बभूव भवामि भविष्यामि चेति विदित्वेदमुक्तमित्यदोषः। अन्यच्च ये वेदादिशास्त्राण्यधीत्य विद्वांसो भूत्वाऽध्यापयन्ति ते प्राचीनाः ये चाधीयते ते नवीनाः। तैर्ऋषिभिरग्निः परमेश्वर एवेड्यऽस्त्यतश्च।

इस हिरण्यगर्भ शब्द के प्रयोग से वेदों का उत्तमपन और सनातनपन तो यथावत् सिद्ध होता है, परन्तु इससे उनका नवीनपन सिद्ध कभी नहीं हो सकता। इससे डाक्टर मोक्षमूलर साहेब का कहना जो वेदों के नवीन होने के विषय में है, सो सत्य नहीं है। और जो उन्होंने (अग्निः पूर्वेभिः०) इसका प्रमाण वेदों के नवीन होने में दिया है, सो भी अन्यथा है, क्योंकि इस मन्त्र के वेदों के कर्त्ता, त्रिकालदर्शी ईश्वर ने भूत, भविष्यत्, वर्त्तमान तीनों कालों के व्यवहारों को यथावत् जान के कहा है कि वेदों को पढ़ के जो विद्वान् हो चुके हैं वा जो पढ़ाते हैं, वे प्राचीन और नवीन ऋषि लोग मेरी स्तुति करें। तथा ऋषि नाम मन्त्रदृष्टा मनुष्य, मन्त्र, प्राण और तर्क का भी है, इससे ही मेरी स्तुति करनी योग्य है। इसी अपेक्षा से ईश्वर ने इस मन्त्र का प्रयोग किया है। इससे वेदों का सनातनपन और उत्तमपन तो सिद्ध होता है, किन्तु उन हेतुओं से वेदों का नवीन होना किसी प्रकार से सिद्ध नहीं हो सकता। इसी हेतु से डाक्टर मोक्षमूलर साहेब का कहना ठीक नहीं।


वेदार्थ की योग्यता

[सम्पाद्यताम्]

अत्र निरुक्तेऽपि प्रमाणम्—

‘तत्प्रकृतीतरद्वर्त्तनसामान्यादित्ययं मन्त्रार्थचिन्ताभ्यूहोऽभ्यूढोऽपि श्रुतितोऽपि तर्कतो न तु पृथक्त्वेन मन्त्रा निर्वक्तव्याः, प्रकरणश एव तु निर्वक्तव्या न ह्येषु प्रत्यक्षमस्त्यनृषेरतपसो वा। पारोवर्यवित्सु तु खलु वेदितृषु भूयोविद्यः प्रशस्यो भवतीत्युक्तं पुरस्तात्। मनुष्या वा ऋषिषूक्रामत्सु देवानब्रुवन् को न ऋषिर्भविष्यतीति। तेभ्य एतं तर्कमृषिं प्रायच्छन् मन्त्रार्थचिन्ताभ्यूहमभ्यूढं तस्माद् यदेव किं चानूचानोऽभ्यूहत्यार्षं तद्भवति॥’ (निरु॰१३.१२)

अस्यार्थः—(तत्प्रकृती॰) तस्य मन्त्रसमूहस्य पदशब्दाक्षरसमुदायानामितरत् परस्परं विशेष्यविशेषणतया सामान्यवृत्तौ वर्त्तमानानां मन्त्राणामर्थज्ञानचिन्ता भवति। कोऽयं खल्वस्य मन्त्रस्यार्थो भविष्यतीत्यभ्यूहो बुद्धावाभिमुख्येनोहो विशेषज्ञानार्थस्तर्को मनुष्येण कर्त्तव्यः। नैते श्रुतितः श्रवणमात्रेणैव तर्कमात्रेण च पृथक् पृथक् मन्त्रार्था निर्वक्तव्याः। किन्तु प्रकरणानुकूलतया पूर्वापरसम्बन्धेनैव नितरां वक्तव्याः। किंच नैवैतेषु मन्त्रेष्वनृषेरतपसोऽशुद्धान्तःकरणस्याविदुषः प्रत्यक्षं ज्ञानं भवति। न यावद्वा पारोवर्यवित्सु कृतप्रत्यक्षमन्त्रार्थेषु मनुष्येषु भूयोविद्यो बहुविद्यान्वितः प्रशस्योऽत्युत्तमो विद्वान् भवति, न तावदभ्यूढः सुतर्केण वेदार्थमपि वक्तुमर्हतीत्युक्तं सिद्धमस्ति।

[मन्त्रों के पद, शब्द और अक्षरसमुदायों से भिन्न परस्पर विशेष्य-विशेषण के द्वारा सामान्यवृत्ति में स्थित मन्त्रों के अर्थज्ञान की चिन्ता मनुष्यों को हुई। इस मन्त्र का क्या अर्थ होगा? ऐसा विचार बुद्धि में आने पर कहा कि मन्त्रार्थ ज्ञान के लिये मनुष्य को तर्क का आश्रय लेना चाहिये। इन मन्त्रों का अर्थ न तो श्रुति अर्थात् श्रवणमात्र से और न केवल तर्कमात्र से पृथक्-पृथक् किया जाना चाहिये। किन्तु प्रकरण की अनुकूलता और पूर्वापर सम्बन्ध का अवलोकन करते हुए मन्त्रार्थ किया जाना उचित है। इसके अतिरिक्त जो न तो ऋषि हैं और न तपस्वी हैं, साथ ही जिनका अन्तःकरण भी पवित्र नहीं है, ऐसे अविद्वान् को मन्त्रार्थ का प्रत्यक्ष नहीं होता। जब तक मन्त्रार्थ का प्रत्यक्ष करने वाले मनुष्यों में अनेकविध विद्याओं में पारङ्गत उत्तम विद्वान् नहीं होता, तब तक सुतर्क के द्वारा भी वेदार्थ को नहीं कहा जा सकता है, यह कथन सिद्ध है।]

अत्रेतिहासमाह—पुरस्तात्कदाचिन्मनुष्या ऋषिषु मन्त्रार्थद्रष्टृषूक्रामत्स्वतीतेषु सत्सु देवान् विदुषोऽब्रुवन्नपृच्छन् कोऽस्माकं मध्ये ऋषिर्भविष्यतीति। तेभ्यः सत्यासत्यविज्ञानेन वेदार्थबोधार्थं चैतं तर्कमृषिं ते प्रायच्छन् दत्तवन्तोऽयमेव युष्मासु ऋषिर्भविष्यतीत्युत्तरमुक्तवन्तः। कथंभूतं तं तर्कम्? मन्त्रार्थचिन्ताभ्यूहमभ्यूढम्, मन्त्रार्थविज्ञानकारकम्। अतः किं सिद्धम्? यः कश्चिदनूचानो विद्यापारगः पुरुषोऽभ्यूहति, वेदार्थमभ्यूहते प्रकाशयते, तदेवार्षमृषिप्रोक्तं वेदव्याख्यानं भवतीति मन्तव्यम्। किंच यदल्पविद्येनाल्पबुद्धिना, पक्षपातिना मनुष्येण चाभ्यूह्यते तदनार्षमनृतं भवति। नैतत्केनाप्यादर्तव्यमिति। कुतः? तस्यानर्थयुक्तत्वात्। तदादरेण मनुष्याणामप्यनर्थापत्तेश्चेति।

[प्राचीनकाल में मन्त्रार्थद्रष्टा ऋषियों के उच्छिन्न हो जाने पर मनुष्यों ने देवताओं से पूछा कि अब कौन हमारे मध्य ऋषि होगा? उन्होंने सत्यासत्यविज्ञान के द्वारा वेदार्थ बोध के लिये तर्क रूपी ऋषि को प्रदान किया और कहा कि यही तुममें से ऋषि होगा, ऐसा उत्तर दिया। वह तर्क किस प्रकार का है? जो मन्त्रार्थ की तर्कणा शक्ति से युक्त हो। इससे क्या सिद्ध हुआ कि जो कोई वेदविद्या पारङ्गत पुरुष वेदार्थ का प्रकाशन करता है, वही वेदव्याख्यान ऋषिप्रोक्त होता है, ऐसा मानना चाहिये। इसके अतिरिक्त अल्पविद्यावान् और अल्पबुद्धि वाला पक्षपाती मनुष्य वेदार्थ का उपबृंहण करता है, वह वेदार्थ अनार्ष होता है। उसका किसीको भी सम्मान नहीं करना चाहिये। क्योंकि वह अनर्थकारी है। उसका आदर करने से मनुष्यों को भी अनर्थ की प्राप्ति होगी।]

इसमें विचारना चाहिये कि वेदों के अर्थ को यथावत् बिना विचारे उनके अर्थ में किसी मनुष्य को हठ से साहस करना उचित नहीं, क्योंकि जो वेद सब विद्याओं से युक्त हैं, अर्थात् उनमें जितने मन्त्र और पद हैं, वे सब सम्पूर्ण सत्यविद्याओं के प्रकाश करने वाले हैं। और ईश्वर ने वेदों का व्याख्यान भी वेदों से ही कर रक्खा है, क्योंकि उनके शब्द धात्वर्थ के साथ योग रखते हैं। इसमें निरुक्त का भी प्रमाण है, जैसा कि यास्कमुनि ने कहा है (तत्प्रकृतीत॰) इत्यादि। वेदों के व्याख्यान करने के विषय में ऐसा समझना कि जब तक सत्य प्रमाण, सुतर्क, वेदों के शब्दों का पूर्वापर प्रकरणों, व्याकरण आदि वेदाङ्गों, शतपथ आदि ब्राह्मणों, पूर्वमीमांसा आदि शास्त्रों और शाखान्तरों का यथावत् बोध न हो, और परमेश्वर का अनुग्रह, उत्तम विद्वानों की शिक्षा, उनके सङ्ग से पक्षपात छोड़ के आत्मा की शुद्धि न हो, तथा महर्षि लोगों के किये व्याख्यानों को न देखे, तब तक वेदों के अर्थ का यथावत् प्रकाश मनुष्य के हृदय में नहीं होता। इसलिये सब आर्य विद्वानों का सिद्धान्त है कि प्रत्यक्षादि प्रमाणों से युक्त जो तर्क है, वही मनुष्यों के लिये ऋषि है।

अतः पूर्वेभिः प्राक्तनैः प्रथमोत्पन्नैस्तर्कैर्ऋषिभिस्तथा नूतनैर्वर्त्तमानस्थैश्चोतापि भविष्यद्भिश्च त्रिकालस्थैरग्निः परमेश्वर एवेड्योऽस्ति। नैवास्माद्भिन्नः कश्चित्पदार्थः कस्यापि मनुष्यस्येड्यः स्तोतव्य उपास्योऽस्तीति निश्चयः। एवम् ‘अग्निः पूर्वेभिर्ऋषिभिरीड्यो नूतनैरुत’ इत्यस्य मन्त्रस्यार्थसङ्गतेर्नैव वेदेष्वर्वाचीनाख्यः कश्चिद् दोषो भवितुमर्हतीति।

इससे यह सिद्ध होता है कि जो सायणाचार्य और महीधरादि अल्पबुद्धि लोगों के झूठे व्याख्यानों को देख के आजकल के आर्यावर्त्त और यूरोपदेश के निवासी लोग जो वेदों के ऊपर अपनी-अपनी देशभाषाओं में व्याख्यान करते हैं, वे ठीक-ठीक नहीं है, और उन अनर्थयुक्त व्याख्यानों के मानने से मनुष्यों को अत्यन्त दुःख प्राप्त होता है। इससे बुद्धिमानों को उन व्याख्यानों का प्रमाण करना योग्य नहीं। ‘तर्क’ का नाम ऋषि होने से सब आर्य लोगों का सिद्धान्त है कि सब कालों में अग्नि जो परमेश्वर है, वही उपासना करने योग्य है।


प्राचीन और नवीन से आशय
[सम्पाद्यताम्]

अन्यत्र—

‘प्राणा वा ऋषयो दैव्यासः॥’ (ऐ॰ब्रा॰२.४.३)

पूर्वेभिः पूर्वकालावस्थास्थैः कारणस्थैः प्राणैः कार्यद्रव्यस्थैर्नूतनैश्चर्षिभिः सहैव समाधियोगेन सर्वैर्विद्वद्भिरग्निः परमेश्वर एवेड्योऽस्त्यनेन श्रेयो भवतीति मन्तव्यम्।

जगत् के कारण प्रकृति में जो प्राण हैं, उनको प्राचीन और उसके कार्य में जो प्राण हैं, उनको नवीन कहते हैं, इसलिये सब विद्वानों को उन्हीं ऋषियों के साथ योगाभ्यास से अग्निनामक परमेश्वर की ही स्तुति, प्रार्थना और उपासना करनी योग्य है। इतने से ही समझना चाहिये कि भट्ट मोक्षमूलर साहेब आदि ने इस मन्त्र का अर्थ ठीक-ठीक नहीं जाना है।


श्रुति : छन्दस्-मन्त्र-श्रुति-निगम सभी शब्द पर्यायवाची

[सम्पाद्यताम्]

यच्चोक्तं छन्दोमन्त्रयोर्भेदोऽस्तीति, तदप्यसङ्गतम्। कुतः? छन्दोवेदनिगममन्त्रश्रुतीनां पर्यायवाचकत्वात्। तत्र छन्दोऽनेकार्थवाचकमस्ति। वैदिकानां गायत्र्यादिविवृत्तानां लौकिकनामार्यादीनां च वाचकम्। क्वचित्स्वातन्त्र्यस्यापि। अत्राहुर्यास्काचार्य्याः—

 [‘जो यह कहा है कि छन्दस् और मन्त्र में भेद है, वह भी असंगत है। क्योंकि छन्दस्, वेद, निगम, मन्त्र, श्रुति ये सब शब्द पर्यायवाची हैं। इनमें छन्दस् शब्द अनेकार्थवाचक है। यह वैदिक गायत्र्यादि वृत्तों (छन्दों) का लौकिक आर्य्यादि छन्दों का वाचक है और कहीं स्वतन्त्र अर्थ का वाचक है। इस विषय में आचार्य यास्क कहते हैं कि—]

‘मन्त्रा मननाच्छन्दांसि छादनात्स्तोमः स्तवनाद्यजुर्यजतेः साम संमितमृचा॥’ (निरु॰७.१२)

अविद्यादिदुःखानां निवारणात् सुखैराच्छानाच्छन्दो वेदः। तथा ‘चन्देरादेश्च छः’ इत्यौणादिकं सूत्रम् (४.२१९)। ‘चदि आह्लादने दीप्तौ च’ इत्यस्माद्धातोरसुन् प्रत्यये परे चकारस्य छकारादेशे च कृते ‘छन्दस्’ इति शब्दो भवति। वेदाध्ययनेन सर्वविद्याप्राप्तेर्मनुष्य आह्लादी भवति, सर्वार्थज्ञाता चातश्छन्दो वेदः।

[अविद्यादि दुःखों का निवारण करने और सुखों के आच्छादन से छन्दस् वेद कहाते हैं। ‘चन्द्’ धातु से औणादिक ‘असुन्’ प्रत्यय ‘चकार’ के स्थान पर ‘छकार’ करने पर ‘छन्दस्’ शब्द सिद्ध होता है। वेदों के अध्ययन से समस्त विद्याओं की प्राप्ति होती है, उससे मनुष्य को प्रसन्नता मिलती है। इसलिये सम्पूर्ण अर्थों का जानने वाला ‘छ्न्दस्’ वेद है।]

छन्दाꣳसि वै देवा वयोनाधाश्छन्दोभिर्हीदꣳ सर्वं वयुनं नद्धम्॥ (श॰ब्रा॰८.२.२.८)

एता वै देवताश्छन्दाꣳसि॥ (श॰ब्रा॰८.३.३.६)

अस्यायमभिप्रायः—‘मत्रि गुप्तभाषणे’ अस्माद् ‘हलश्च’ इति सूत्रेण ‘घञ्’ प्रत्यये कृते मन्त्रशब्दस्य सिद्धिर्जायते। गुप्तानां पदार्थानां भाषणं यस्मिन् वर्त्तते स ‘मन्त्रो’ वेदः। तदवयवानामनेकार्थानामपि मन्त्रसंज्ञा भवति, तेषां तदर्थवत्त्वात्। तथा ‘मन ज्ञाने’ अस्माद्धातोः ‘सर्वधातुभ्यः ष्ट्रन्’ इत्युणादिसूत्रेण ‘ष्ट्रन्’ प्रत्यये कृते मन्त्रशब्दो व्युत्पद्यते। मन्यन्ते ज्ञायन्ते सर्वैर्मनुष्यैः सत्याः पदार्था येन यस्मिन् वा स ‘मन्त्रो’ वेदः। तदवयवा ‘अग्निमीळे पुरोहितम्’ इत्यादयो मन्त्राः गृह्यन्ते। यानि गायत्र्यादीनिच्छन्दांसि तदन्विता मन्त्राः सर्वार्थद्योतकत्वाद् देवताशब्देन गृह्यन्ते। अतश्च छन्दांस्येव देवाः। वयोनाधाः सर्वक्रियाविद्यानिबन्धनास्तैश्छन्दोभिरेव वेदैर्वेदमन्त्रैश्चेदं सर्वं विश्वं वयुनं कर्मादि चेश्वरेण नद्धं बद्धं कृतमिति विज्ञेयम्। येन छन्दसा छन्दोभिर्वा सर्वा विद्याः संवृताः आवृताः सम्यक् स्वीकृता भवन्ति, तस्माच्छन्दांसि वेदा, मननान्मन्त्राश्चेति पर्यायौ।

[‘मत्रि गुप्तभाषणे’ धातु से ‘हलश्च’ सूत्र से ‘घञ्’ प्रत्यय करने पर ‘मन्त्र’ शब्द सिद्ध होता है। गुप्त पदार्थों का भाषण जिसमें होता है, वह ‘मन्त्र’ वेद है। उसके अनेकार्थक अवयवों की भी मन्त्रसंज्ञा होती है, क्योंकि उस अर्थ से युक्त हैं। तथा ‘मन ज्ञाने’ धातु से ‘सर्वधातुभ्यः ष्ट्रन्’ सूत्र से ‘ष्ट्रन्’ प्रत्यय करने पर मन्त्र शब्द व्युत्पन्न होता है। सब मनुष्यों के द्वारा सब सत्य पदार्थ जिससे या जिसमें जाने जाते हैं, वह ‘मन्त्र’ वेद है। उस वेद के अवयवभूत ‘अग्निमीळे पुरोहितम्’ इत्यादि मन्त्र कहे जाते हैं। जो गायत्री आदि छन्दों से युक्त मन्त्र सर्वार्थ द्योतक होने के कारण देवता शब्द से अभिहित होते हैं, इसलिये छन्दस् ही वयोनाध देवता हैं। क्योंकि समस्त क्रियाओं और विद्याओं के प्रतिपादक होने से सम्पूर्ण विश्व को कर्मादि से ईश्वर ने बाँध रक्खा है। जिस कारण छन्दों से समस्त विद्या सम्यक् रूप से आच्छादित है, इसलिये वेद को ‘छन्दस्’ तथा मननीय होने के कारण मन्त्र कहा जाता है, अतः ये दोनों पर्यायवाची हैं।]

एवं ‘श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेय’ इति मनुस्मृतौ ‘इत्यपि निगमो भवती’ति निरुक्ते। श्रुतिर्वेदो मन्त्रश्च, निगमो वेदो मन्त्रश्चेति पर्यायौ स्तः। श्रूयन्ते वा सकला विद्या यया सा श्रुतिर्वेदो मन्त्राश्च श्रुतयः। तथा निगच्छन्ति नितरां जानन्ति प्राप्नुवन्ति वा सर्वा यस्मिन् स निगमो वेदो मन्त्रश्चेति।

जैसे ‘छन्द’ और ‘मन्त्र’ ये दोनों शब्द एकार्थवाची अर्थात् संहिता भाग के नाम हैं, वैसे ही ‘निगम’ और ‘श्रुति’ भी वेदों के नाम हैं। भेद होने का कारण केवल अर्थ ही है। वेदों का नाम ‘छन्द’ इसलिये रक्खा है कि वे स्वतन्त्र प्रमाण और सत्यविद्याओं से परिपूर्ण हैं। तथा उनका ‘मन्त्र’ नाम इसलिये है कि उनसे सत्यविद्याओं का ज्ञान होता है। और ‘श्रुति’ इसलिये कहते हैं कि उनके पढ़ने, अभ्यास करने और सुनने से सब सत्यविद्याओं को मनुष्य लोग जान सकते हैं। ऐसे ही जिस करके सब पदार्थों का यथार्थ ज्ञान हो उसको ‘निगम’ कहते हैं। इससे यह चारों शब्द पर्याय अर्थात् एक अर्थ के वाची हैं; ऐसा ही जानना चाहिये।

तथा व्याकरणेऽपि—

मन्त्रे घसह्वरणशवृदहाद्वृचकृगमिजनिभ्यो लेः॥’ (अष्टा॰२.४.८०)

छन्दसि लुङ्लङ्लिटः॥ (अष्टा॰३.४.६)

वा षपूर्वस्य निगमे॥ (अष्टा॰६.४.९)

अत्रापि च्छन्दोमन्त्रनिगमाः पर्यायवाचिनः सन्ति। एवं छन्दआदीनां पर्यायसिद्धेर्यो भेदं ब्रूते तद्वचनमप्रमाणमेवास्तीति विज्ञायते।

वैसे ही अष्टाध्यायी व्याकरण में भी छन्द, मन्त्र और निगम ये तीनों नाम वेदों ही के हैं। इसलिये जो लोग इनमें भेद मानते हैं, उनका वचन प्रमाण करने के योग्य नहीं।

॥इति वेदविषयविचारः॥