ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका (दयानन्दसरस्वतीविरचिता)/३. वेदानां नित्यत्वविचारः

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दयानन्दसरस्वती
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सम्पादकः — डॉ॰ ज्ञानप्रकाश शास्त्री, वैबसंस्करण-सम्पादकः — डॉ॰ नरेश कुमार धीमान्


वेदानां नित्यत्वविचारः[सम्पाद्यताम्]


ईश्वर से उत्पन्न होने से वेद नित्य[सम्पाद्यताम्]

ईश्वरस्य सकाशाद् वेदानामुत्पत्तौ सत्यां स्वतो नित्यत्वमेव भवति, तस्य सर्वसामर्थ्यस्य नित्यत्वात्।

अब वेदों के नित्य होने का विचार किया जाता है। सो वेद ईश्वर से उत्पन्न हुए हैं, इससे वे स्वतः नित्यस्वरूप ही हैं, क्योंकि ईश्वर का सब सामर्थ्य नित्य ही है।


वेद के शब्दार्थ सम्बन्ध नित्य[सम्पाद्यताम्]

अत्र केचिदाहुः—न वेदानां शब्दमयत्वान्नित्यत्वं सम्भवति। शब्दोऽनित्यः कार्यत्वात्। घटवत्। यथा घटः कृतोऽस्ति तथा शब्दोऽपि। तस्माच्छब्दानित्यत्वे वेदानामप्यनित्यत्वं स्वीकार्यम्।

प्रश्न—इस विषय में कितने पुरुष ऐसी शङ्का करते हैं कि वेदों में शब्द, छन्द, पद और वाक्यों के योग होने से नित्य नहीं हो सकते। जैसे विना बनाने के घड़ा नहीं बनता, इसी प्रकार से वेदों को भी किसी ने बनाया होगा। क्योंकि बनाने के पहिले नहीं थे और प्रलय के अन्त में भी न रहेंगे, इससे वेदों को नित्य मानना ठीक नहीं है।

मैवं मन्यताम्। शब्दो द्विविधो नित्यकार्यभेदात्। ये परमात्मज्ञानस्थाः शब्दार्थसम्बन्धाः सन्ति ते नित्या भवितुमर्हन्ति। येऽस्मदादीनां वर्त्तन्ते ते तु कार्याश्च। कुतः? यस्य ज्ञानक्रिये नित्ये स्वभावसिद्धे अनादी स्तः, तस्य सर्वं सामर्थ्यमपि नित्यमेव भवितुमर्हति। तद्विद्यामयत्वाद् वेदानामनित्यत्वं नैव घटते।

उत्तर—ऐसा आपको कहना उचित नहीं, क्योंकि शब्द दो प्रकार का होता है—एक नित्य और दूसरा कार्य। इनमें जो शब्द, अर्थ और सम्बन्ध परमेश्वर के ज्ञान में हैं वे सब नित्य ही होते हैं, और जो हम लोगों की कल्पना से उत्पन्न होते हैं, वे कार्य होते हैं, क्योंकि जिसका ज्ञान और क्रिया स्वभाव से सिद्ध और अनादि हैं, उसका सब सामर्थ्य भी नित्य ही होता है। इससे वेद भी उसकी विद्यास्वरूप होने से नित्य ही हैं, क्योंकि ईश्वर की विद्या अनित्य कभी नहीं हो सकती।


प्रत्येक कल्प में वेद यथावत्[सम्पाद्यताम्]

किं च भोः! सर्वस्यास्य जगतो विभागं प्राप्तस्य कारणरूपस्थितौ सर्वस्थूलकार्याभावे पठनपाठनपुस्तकानामभावात् कथं वेदानां नित्यत्वं स्वीक्रियते?

प्रश्न—जब सब जगत् के परमाणु अलग-अलग होके कारणरूप हो जाते हैं तब जो कार्यरूप सब स्थूल जगत् है, उसका अभाव हो जाता है, उस समय वेदों के पुस्तकों का भी अभाव हो जाता है, फिर वेदों को नित्य क्यों मानते हो?

अत्रोच्यते—इदं तु पुस्तकपत्रमसीपदार्थादिषु घटते, तथास्मत्क्रियापक्षे च, नेतरस्मिन्। अतः कारणादीश्वरविद्यामयत्वेन वेदानां नित्यत्वं वयं मन्यामहे।

उत्तर—यह बात पुस्तक, पत्र, मसी और अक्षरों की बनावट आदि पक्ष में घटती है तथा हम लोगों के क्रियापक्ष में भी बन सकती है, वेदपक्ष में नहीं घटती, क्योंकि वेद तो शब्द, अर्थ और सम्बन्धस्वरूप ही है; मसी, कागज, पत्र, पुस्तक और अक्षरों की बनावटरूप नहीं है। यह जो मसीलेखनादि क्रिया है, सो मनुष्यों की बनाई है। इससे यह अनित्य है। और ईश्वर के ज्ञान में सदा बने रहने से वेदों को हम लोग नित्य मानते हैं।

किं च, न पठनपाठनपुस्तकानित्यत्वे वेदानित्यत्वं जायते। तेषामीश्वरज्ञानेन सह सदैव विद्यमानत्वात्।

इससे क्या सिद्ध हुआ कि पढ़ना-पढ़ाना और पुस्तक के अनित्य होने से वेद अनित्य नहीं हो सकते, क्योंकि वे बीजाङ्कुरन्याय से ईश्वर के ज्ञान में नित्य वर्तमान रहते हैं। सृष्टि के आदि में ईश्वर से वेदों की प्रसिद्धि होती है, प्रलय जगत् के नहीं रहने से उनकी अप्रसिद्धि होती है, इस कारण से वेद नित्यस्वरूप बने रहते हैं।

यथास्मिन् कल्पे वेदेषु शब्दाक्षरार्थसम्बन्धाः सन्ति तथैव पूर्वमासन्नग्रे भविष्यन्ति च। कुतः, ईश्वरविद्याया नित्यत्वादव्यभिचाराच्च। अत एवेदमुक्तमृग्वेदे— ‘सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्’ [ऋ॰१०.१९०.३] इति। अस्यायमर्थः—सूर्यचन्द्रग्रहणमुपलक्षणार्थं, यथा पूर्वकल्पे सूर्यचन्द्रादिरचनं तस्य ज्ञानमध्ये ह्यासीत् तथैव तेनास्मिन् कल्पेऽपि रचनं कृतमस्तीति विज्ञायते। कुतः? ईश्वरज्ञानस्य वृद्धिक्षयविपर्ययाभावात्। एवं वेदेष्वपि स्वीकार्यम्, वेदानां तेनैव स्वविद्यातः सृष्टत्वात्।

जैसे कल्प की सृष्टि में शब्द, अक्षर, अर्थ और सम्बन्ध वेदों में हैं, इसी प्रकार से पूर्वकल्प में थे और आगे भी होंगे, क्योंकि जो ईश्वर की विद्या है, सो नित्य एक ही रस बनी रहती है। उनके अक्षर का भी विपरीतभाव नहीं होता। सो ऋग्वेद से लेके चारों वेदों की संहिता अब जिस प्रकार की है कि इनमें शब्द, अर्थ, सम्बन्ध, पद और अक्षरों का जिस क्रम से वर्तमान है, इसी प्रकार का क्रम सब दिन बना रहता है, क्योंकि ईश्वर का ज्ञान नित्य है, उसकी वृद्धि, क्षय और विपरीतता कभी नहीं होती। इस कारण से वेदों को नित्यस्वरूप ही मानना चाहिये।


व्याकरण के अनुसार शब्दनित्य होने से वेदनित्य[सम्पाद्यताम्]

अत्र वेदानां नित्यत्वे व्याकरणशास्त्रादीनां साक्ष्यर्थं प्रमाणानि लिख्यन्ते। तत्राह महाभाष्यकारः पतञ्जलमुनिः—‘नित्याः शब्दा नित्येषु शब्देषु कूटस्थैरविचालिभिर्वर्णैर्भवितव्यमनपायोपजनविकारिभिरिति।’

यह जो वेदों के नित्य होने का विषय है, इसमें व्याकरणादि शास्त्रों का प्रमाण साक्षी के लिये लिखते हैं। इसमें से जो व्याकरणशास्त्र है, सो संस्कृत और भाषाओं के सब शब्दविद्या का मुख्य मूल प्रमाण है। उसके बनानेवाले महामुनि पाणिनि और पतञ्जलि हैं। उनका ऐसा मत है कि—‘सब शब्द नित्य हैं, क्योंकि इन शब्दों में जितने अक्षरादि अवयव हैं, वे सब कूटस्थ अर्थात् विनाशरहित हैं, और वे पूर्वापर विचलते भी नहीं, उनका अभाव वा आगम कभी नहीं होता।’

इदं वचनं प्रथमाह्निकमारभ्य बहुषु स्थलेषु व्याकरणमहाभाष्येऽस्ति। तथा— ‘श्रोत्रोपलब्धिर्बुद्धिनिर्ग्राह्यः प्रयोगेणाभिज्वलित आकाशदेशः शब्दः।’

[यह वचन प्रथम आह्निक से आरम्भ होकर महाभाष्य में अनेक स्थलों पर आया है।] तथा ‘कान से सुनके जिनका ग्रहण होता है, बुद्धि से जाने जाते हैं, जो वाक् इन्द्रिय से उच्चारण करने से प्रकाशित होते हैं, और जिनका निवास का स्थान आकाश है, उनको शब्द कहते हैं।’

इदम् ‘अइउण्’ सूत्रभाष्ये चोक्तमिति। अस्यायमर्थः—वैदिका लौकिकाश्च सर्वे शब्दा नित्याः सन्ति। कुतः? शब्दानां मध्ये कूटस्था विनाशरहिता अचला अनपाया अनुपजना अविकारिणो वर्णाः सन्त्यतः। अपायो लोपो निवृत्तिरग्रहणम्, उपजन आगमः, विकार आदेशः, एते न विद्यन्ते येषु शब्देषु तस्मान्नित्याः शब्दाः।

[यह ‘अइउण्’ सूत्र के भाष्य पर कहा है। इसका अर्थ है—] इससे वैदिक अर्थात् जो वेद के शब्द और वेदों से जो शब्द लोक में आये हैं वे लौकिक कहाते हैं, वे भी नित्य ही होते हैं। क्योंकि उन शब्दों के मध्य में सब वर्ण अविनाशी और अचल हैं तथा इनमें लोप आगम और विकार नहीं बन सकते, इस कारण से पूर्वोक्त शब्द नित्य हैं।


व्याकरण के लोप, आगम, विकारादि से नित्यत्व का विघात नहीं[सम्पाद्यताम्]

ननु गणपाठाष्टाध्यायीमहाभाष्येष्वपायादयो विधीयन्ते पुनरेतत्कथं सङ्गच्छते? इत्येवं ब्रूते महाभाष्यकारः—

प्रश्न—गणपाठ, अष्टाध्यायी और महाभाष्य से अक्षरों के लोप, आगम और विकार आदि कहे हैं, फिर शब्दों का नित्यत्व कैसे हो सकता है?

इस प्रश्न का उत्तर महाभाष्यकार पतञ्जलि मुनि देते हैं कि—

सर्वे सर्वपदादेशा दाक्षीपुत्रस्य पाणिनेः।

एकदेशविकारे हि नित्यत्वं नोपपद्यते॥ (महा॰भा॰१.१.५)

‘दाधा घ्वदाप्’ (अष्टा॰१.१.१९) इत्यस्य सूत्रस्योपरि महाभाष्यवचनम्। अस्यायमर्थः—सर्वे संघाताः सर्वेषां पदानां स्थान आदेशा भवन्ति। अर्थाच्छब्दसंघातान्तराणां स्थानेष्वन्ये शब्दसंघाताः प्रयुज्यन्ते। तद्यथा—‘वेदपार, गम्, , सुँ, भू, शप्, तिप्, इत्येतस्य वाक्यसमुदायस्य स्थाने ‘वेदपारगोऽभवत्’ इतीदं समुदायान्तरं प्रयुज्यते। अस्मिन् प्रयुक्तसमुदाये ‘गम् ड सुँ शप् तिप्’ इत्येतेषाम् ‘अम् ड् उँ श प् इ प्’ इत्येतेऽपयन्तीति केषाञ्चिद् बुद्धिर्भवति, सा भ्रममूलैवास्ति। कुतः? शब्दानाम् ‘एकदेशविकारे च’ इत्युपलक्षणात्। नैव शब्दस्यैकदेशापाय एकदेशोपजन एकदेशविकारे सति दाक्षीपुत्रस्य पाणिनेराचार्यस्य मते शब्दानां नित्यत्वमुपपन्नं भवत्यतः। तथैवाडागमे भू इत्यस्य स्थाने भो इति विकारे चैवं सङ्गतिः कार्येति।

शब्दों के समुदायों के स्थानों में अन्य शब्दों के समुदायों का प्रयोगमात्र होता है। जैसे ‘वेदपार, गम्, , सुँ, भू, शप्, तिप्, इस पदसमुदाय के स्थान में ‘वेदपारगोऽभवत्’ इस समुदायान्तर का प्रयोग किया जाता है। इसमें किसी पुरुष की ऐसी बुद्धि होती है कि ‘अम् ड् उँ-श प् इ प्’ इनकी निवृत्ति हो जाती है, सो उसकी बुद्धि में भ्रममात्र है, क्योंकि शब्दों के समुदाय के स्थानों में दूसरे शब्दों के समुदायों के प्रयोग किये जाते हैं। सो यह मत दाक्षी के पुत्र पाणिनि मुनि जी का है, जिनने अष्टाध्यायी आदि व्याकरण के ग्रन्थ किये हैं; सो मत इस प्रकार से है कि शब्द नित्य ही होते हैं, क्योंकि—


आकाश का गुण होने से शब्दनित्य[सम्पाद्यताम्]

(श्रोत्रोपलब्धिरिति) श्रोत्रेन्द्रियेण ज्ञानं यस्य, बुद्ध्या नितरां ग्रहीतुं योग्य, उच्चारणेनाभिप्रकाशितो यो यस्याकाशो देशोऽधिकरणं वर्त्तते, स शब्दो भवतीति बोध्यम्। अनेन शब्दलक्षणेनापि शब्दो नित्य एवास्तीत्यवगम्यते। कथम्? उच्चारणश्रवणादिप्रयत्नक्रियायाः क्षणप्रध्वंसित्वात्। ‘एकैकवर्णवर्तिनी वाक्’ इति महाभाष्यप्रामाण्यात्। प्रतिवर्णं वाक्क्रिया विपरिणमते, अतस्तस्या एवानित्यत्वं गम्यते, न च शब्दस्येति।

जो उच्चारण और श्रवणादि हम लोगों की क्रिया है, उसके क्षणभङ्गुर होने से अनित्य गिनी जाती है, इससे शब्द अनित्य नहीं होते, क्योंकि यह जो हम लोगों की वाणी है, वही वर्ण-वर्ण के प्रति अन्य-अन्य होती जाती है, [इसलिये वही अनित्य सिद्ध होती है]। परन्तु शब्द तो सदा अखण्ड एकरस ही बने रहते हैं।

ननु च भोः! शब्दोऽप्युपरतागतो भवति। उच्चारित उपागच्छति, अनुच्चरितोऽनागतो भवति, वाक्क्रियावत्। पुनस्तस्य कथं नित्यत्वं भवेत्?

प्रश्न—शब्द भी उच्चारण किये के पश्चात् नष्ट हो जाता है और उच्चारण के पूर्व सुना नहीं जाता है, जैसे उच्चारण क्रिया अनित्य है, वैसे ही शब्द भी अनित्य हो सकता है। फिर शब्दों को नित्य क्यों मानते हो?

अत्रोच्यते—नाकाशवत् पूर्वस्थितस्य शब्दस्य साधनाभावादभिव्यक्तिर्भवति, किन्तु तस्य प्राणवाक्क्रिययाभिव्यक्तिश्च। तद्यथा—गौरित्यत्र यावद्वाग्गकारेऽस्ति न तावदौकारे, न यावदौकारे, न तावद्विसर्जनीये। एवं वाक्क्रियोच्चारणस्यापायोपजनौ भवतः; न च शब्दस्याखण्डैकरसस्य, तस्य सर्वत्रोपलब्धत्वात्। यत्र खलु वायुवाक्क्रिये न भवतस्तत्रोच्चारणश्रवणे न भवतः अतः शब्दस्त्वाकाशवदेव सदा नित्योऽस्तीत्यादिव्याकरणमतेन सर्वेषां शब्दानां नित्यत्वमस्ति, किमुत वैदिकानामिति।

उत्तर—शब्द तो आकाश की नाईं सर्वत्र एकरस भर रहे हैं, पर जब उच्चारणक्रिया नहीं होती, तब प्रसिद्ध सुनने में नहीं आते। जब प्राण और वाणी की क्रिया से उच्चारण किये जाते हैं, तब शब्द प्रसिद्ध होते हैं। जैसे ‘गौः’ इसके उच्चारण में जब पर्यन्त उच्चारण क्रिया गकार में रहती है, तब पर्यन्त औकार में नहीं, जब औकार में है तब गकार और विसर्जनीय में नहीं रहती। इसी प्रकार वाणी की क्रिया की उत्पत्ति और नाश होता है, शब्दों का नहीं। किन्तु आकाश में शब्द की प्राप्ति होने से शब्द तो अखण्ड एकरस सर्वत्र भर रहे हैं, परन्तु जब पर्यन्त वायु और वाक् और इन्द्रिय की क्रिया नहीं होती, तब पर्यन्त शब्दों का उच्चारण और श्रवण भी नहीं होता। इससे यह सिद्ध हुआ कि शब्द आकाश की नाईं नित्य ही है। जब व्याकरणशास्त्र के मत से सब शब्द नित्य होते हैं तो वेदों के शब्दों की कथा तो क्या ही कहनी है, क्योंकि वेदों के शब्द तो सब प्रकार से नित्य बने रहते हैं।


मीमांसा दर्शन के मत में वेदनित्यत्व[सम्पाद्यताम्]

एवं जैमिनिमुनिनापि शब्दस्य नित्यत्वं प्रतिपादितम्—‘नित्यस्तु स्याद्दर्शनस्य परार्थत्वात्॥’ (पूर्वमीमांसा १.१.१८)

अस्यायमर्थः—‘तु’ शब्देनानित्यशङ्का निवार्यते। विनाशरहितत्वाच्छब्दो नित्योऽस्ति, कस्मात् दर्शनस्य परार्थत्वात्। दर्शनस्योच्चारणस्य परस्यार्थस्य ज्ञापनार्थत्वात्, शब्दस्यानित्यत्वं नैव भवति। अन्यथाऽयं गोशब्दार्थोऽस्तीत्यभिज्ञाऽनित्येन शब्देन भवितुमयोग्योऽस्ति। नित्यत्वे सति ज्ञाप्यज्ञापकयोर्विद्यमानत्वात् सर्वमेतत् सङ्गतं स्यात्। अतश्चैकमेव गोशब्दं युगपदनेकेषु स्थलेष्वनेक उच्चारका उपलभन्ते। पुनः पुनस्तमेव चेति। एवं जैमिनिना शब्दनित्यत्वेऽनेके हेतवः प्रदर्शिताः।

इसी प्रकार जैमिनि मुनि ने भी शब्द को नित्य माना है—(नित्यस्तु॰) शब्द में जो अनित्य होने की शङ्का आती है, उसका ‘तु’ शब्द से निवारण किया है। शब्द नित्य ही हैं, अर्थात् नाशरहित हैं, क्योंकि उच्चारणक्रिया से जो शब्द का श्रवण होता है सो अर्थ के जानने ही के लिये है, इससे शब्द अनित्य नहीं हो सकता। जो शब्द का उच्चारण किया जाता है, उसकी ही प्रत्यभिज्ञा होती है कि श्रोत्रद्वारा ज्ञान के बीच में वही शब्द स्थिर रहता है, फिर उसी शब्द से अर्थ की प्रतीति होती है। जो शब्द अनित्य होता तो अर्थ का ज्ञान कौन कराता, क्योंकि वह शब्द ही नहीं रहा, फिर अर्थ को कौन जनावे। और जैसे अनेक देशों में अनेक पुरुष एक काल में ही एक गो शब्द का उच्चारण करते हैं, इसी प्रकार उसी शब्द का उच्चारण वारंवार भी होता है, इस कारण से भी शब्द नित्य है। जो शब्द अनित्य होता तो यह व्यवस्था कभी नहीं बन सकती, सो जैमिनि मुनि ने इस प्रकार के अनेक हेतुओं से पूर्वमीमांसा शास्त्र में शब्द को नित्य सिद्ध किया है।


वैशेषिक दर्शन के मत में वेदनित्यत्व[सम्पाद्यताम्]

अन्यच्च वैशेषिकसूत्रकारः कणादमुनिरप्यत्राह—

‘तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम्॥’ (वै॰सू॰१.१.३)

अस्यायमर्थः—तद्वचनात् तयोर्धर्मेश्वरयोर्वचनाद्धर्मस्यैव कर्त्तव्यतया प्रतिपादनाद् ईश्वरेणेवोक्तत्वाच्चाम्नायस्य वेदचतुष्टस्य प्रामाण्यं सर्वैर्नित्यत्वेन स्वीकार्यम्।

इसी प्रकार वैशेषिकशास्त्र में कणाद मुनि ने भी कहा है—(तद्वचना॰) वेद ईश्वरोक्त है, इनमें सत्यविद्या और पक्षपातरहित धर्म का ही प्रतिपादन है, इससे चारों वेद नित्य हैं। ऐसा ही सब मनुष्यों को मानना उचित है, क्योंकि ईश्वर नित्य है, इससे उसकी विद्या भी नित्य है।


न्यायदर्शन के मत में वेदनित्यत्व[सम्पाद्यताम्]

तथा स्वकीयन्यायशास्त्रे गोतममुनिरप्यत्राह—

‘मन्त्रायुर्वेदप्रामाण्यवच्च तत्प्रामाण्यमाप्तप्रामाण्यत्वात्॥’ (न्या॰सू॰२.१. ६७)

अस्यायमर्थः—तेषां वेदानां नित्यनामीश्वरोक्तानां प्रामाण्यं सर्वैः स्वीकार्यम्। कुतः? आप्तप्रामाण्यात्। धर्मात्मभिः कपटछलादिदोषरहितैर्दयालुभिः सत्योपदेष्टृभिर्विद्यापारगैर्महायोगिभिः सर्वैर्ब्रह्मादिभिराप्तैर्वेदानां प्रामाण्यं स्वीकृतमतः। किंवत्? मन्त्रायुर्वेदप्रामाण्यवत्। यथा सत्यपदार्थविद्याप्रकाशकानां मन्त्राणां विचाराणां सत्यत्वेन प्रामाण्यं भवति, यथा चायुर्वेदोक्तस्यैकदेशोक्तौषधसेवनेन रोगनिवृत्त्या तद्भिन्नस्यापि भागस्य तादृशस्य प्रामाण्यं भवति, तथा वेदोक्तार्थस्यैकदेशप्रत्यक्षेणेतरस्यादृष्टार्थविषयस्य वेदभागस्यापि प्रामाण्यमङ्गीकार्यम्।

वैसे ही न्यायशास्त्र में गोतम मुनि भी शब्द को नित्य कहते हैं, (मन्त्रायु॰) वेदों को नित्य ही मानना चाहिये, क्योंकि सृष्टि के आरम्भ से लेके आज पर्यन्त ब्रह्मादि जितने आप्त होते आये हैं, वे सब वेदों को नित्य ही मानते आये हैं। उन आप्तों का अवश्य ही प्रमाण करना चाहिये। क्योंकि ‘आप्त’ लोग वे ही होते हैं जो धर्मात्मा, कपट-छलादि दोषों से रहित, सब विद्याओं से युक्त, महायोगी और सब मनुष्यों के सुख होने के लिये सत्य का उपदेश करनेवाले हैं, जिनमें लेशमात्र भी पक्षपात वा मिथ्याचार नहीं होता। उन्होंने वेदों का यथावत् नित्य गुणों से प्रमाण किया है जिन्होंने आयुर्वेद को बनाया है। जैसे आयुर्वेद वैद्यकशास्त्र के एकदेश में कहे औषध और पथ्य के सेवन करने से रोग की निवृत्ति से सुख प्राप्त होता है, जैसे उसके एकदेश के कहे के सत्य होने से उसके दूसरे भाग का भी प्रमाण होता है, इसी प्रकार वेदों का भी प्रमाण करना सब मनुष्यों को उचित है। क्योंकि वेद के एकदेश में कहे अर्थ का सत्यापन विदित होने से उससे भिन्न जो वेदों के भाग हैं, जिनका अर्थ प्रत्यक्ष न हुआ हो, उनका भी नित्य प्रमाण अवश्य करना चाहिये, क्योंकि आप्त पुरुष का उपदेश मिथ्या नहीं हो सकता।

एतत्सूत्रस्योपरि भाष्यकारेण वात्स्यायनमुनिनाप्येवं प्रतिपादितम्—

‘द्रष्टृप्रवत्तृसामान्याच्चानुमानम्। य एवाप्ता वेदार्थानां द्रष्टारः प्रवक्तारश्च त एवायुर्वेदप्रभृतीनामित्यायुर्वेदप्रामाण्यवद् वेदप्रामाण्यमनुमातव्यमिति। नित्यत्वाद् वेदवाक्यानां प्रमाणत्वे तत्प्रामाण्यमाप्तप्रामाण्यादित्युक्तम्।’

अस्यायभिप्रायः—यथाप्तोपदेशस्य शब्दस्य प्रामाण्यं भवति तथा सर्वथाप्तेनेश्वरेणोक्तानां वेदानां सर्वैराप्तैः प्रामाण्यत्वेनाङ्गीकृतत्वाद् वेदाः प्रमाणमिति बोध्यम्। अत ईश्वरविद्यामयत्वाद् वेदानां नित्यत्वमेवोपपन्नं भवतीति दिक्।

(मन्त्रायु॰) इस सूत्र के भाष्य में वात्स्यायन मुनि ने वेदों का नित्य होना स्पष्ट प्रतिपादन किया है कि जो आप्त लोग हैं, वे वेदों के अर्थ को देखने दिखाने और जनानेवाले हैं। जो-जो उस-उस मन्त्र के अर्थ के द्रष्टा वक्ता होते हैं, वे ही आयुर्वेद आदि के बनाने वाले हैं। जैसे उनका कथन आयुर्वेद में सत्य है, वैसे ही वेदों के नित्य मानने का उनका जो व्यवहार है सो भी सत्य ही है, ऐसा मानना चाहिये। क्योंकि जैसे आप्तों के उपदेश का प्रमाण अवश्य होता है, वैसे ही सब आप्तों का भी जो परम आप्त सबका गुरु परमेश्वर है, उसके किये वेदों का भी नित्य होने का प्रमाण अवश्य ही करना चाहिये।


योगदर्शन के मत में वेदनित्यत्व[सम्पाद्यताम्]

अत्र विषये योगशास्त्रे पतञ्जलिमुनिरप्याह—

‘स पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्।’ (यो॰सू॰१.२६)

यः पूर्वेषां सृष्ट्यादावुत्पन्नानामग्निवाय्वादित्याङ्गिरोब्रह्मादीनां प्राचीनानामस्मदादीनाम् इदानींतनानामग्रे भविष्यतां च सर्वेषामेष ईश्वर एव गुरुरस्ति। गृणाति वेदद्वारोपदिशति सत्यानर्थान् स ‘गुरुः’। स च सर्वदा नित्योऽस्ति, तत्र कालगतेरप्रचारत्वात्। न स ईश्वरो ह्यविद्यादिक्लेशैः पापकर्मभिस्तद्वासनया च कदाचिद्युक्तो भवति। यस्मिन् निरतिशयं नित्यं स्वाभाविकं ज्ञानमस्ति तदुक्तत्वाद् वेदानामपि सत्यार्थवत्त्वनित्यत्वे वेद्य इति।

इस विषय में योगशास्त्र के कर्ता पतञ्जलि मुनि भी वेदों को नित्य मानते हैं, (स एष॰) जो कि प्राचीन अग्नि, वायु, आदित्य, अङ्गिरा और ब्रह्मादि पुरुष सृष्टि के आदि में उत्पन्न हुए थे, उनसे लेके हम लोग पर्यन्त और हम से आगे जो होने वाले हैं, इन सबका गुरु परमेश्वर ही है, क्योंकि वेद द्वारा सत्य अर्थों का उपदेश करने से परमेश्वर का नाम गुरु है। सो ईश्वर नित्य ही है, क्योंकि ईश्वर में क्षणादि काल की गति प्रचार ही नहीं है, और यह अविद्या आदि क्लेशों से और पापकर्म तथा उसकी वासनाओं के भोगों से अलग है। जिसमें अनन्त विज्ञान और सर्वदा एकरस बना रहता है, उसी के रचे वेदों का भी सत्यार्थपना और नित्यपना भी निश्चित है, ऐसा ही सब मनुष्यों को जानना चाहिये।


लघुचित्रम्

सांख्यदर्शन के मत में वेदनित्यत्व[सम्पाद्यताम्]

एवमेव स्वकीयसांख्यशास्त्रे पञ्चमाध्यये कपिलाचार्योऽप्यत्राह—

‘निजशक्त्यभिव्यक्तेः स्वतः प्रामाण्यम्॥’ (सां०सू॰५.५१)

अस्यायमर्थः—वेदानां निजशक्त्यभिव्यक्तेः पुरुषसहचारिप्रधानसामर्थ्यात् प्रकटत्वात् स्वतः प्रामाण्यनित्यत्वे स्वीकार्ये इति।

इसी प्रकार से सांख्यशास्त्र में कपिलाचार्य भी कहते हैं—(निज॰) परमेश्वर की (निज) अर्थात् स्वाभाविक जो विद्याशक्ति है, उससे प्रकट होने से वेदों का नित्यत्व और स्वतः प्रमाण सब मनुष्यों को स्वीकार करना चाहिये।


वेदान्तदर्शन के मत में वेदनित्यत्व[सम्पाद्यताम्]

अस्मिन् विषये स्वकीयवेदान्तशास्त्रे कृष्णद्वैपायनो व्यासमुनिरप्याह—

‘शास्त्रयोनित्वात्॥’ (वे॰सू॰१.१.३)

अस्यायमर्थः—‘ऋग्वेदादेः शास्त्रस्यानेकविद्यास्थानोपबृंहितस्य प्रदीपवत् सर्वार्थावद्योतिनः सर्वज्ञकल्पस्य योनिः कारणं ब्रह्म। न हीदृशस्य शास्त्रस्यर्ग्वेदादिलक्षणस्य सर्वज्ञगुणान्वितस्य सर्वज्ञादन्यतः संभवोऽस्ति। यद्यद्विस्तरार्थं शास्त्रं यस्मात् पुरुषविशेषात् संभवति, यथा व्याकरणादिपाणिन्यादे-र्ज्ञेयैकदेशार्थमपि स ततोऽप्यधिकतरविज्ञान इति प्रसिद्धं लोके किमु वक्तव्यमिति।’

इदं वचनं शङ्कराचार्येणास्य सूत्रस्योपरि स्वकीयव्याख्याने गदितम्। अतः किमागतं सर्वज्ञस्येश्वरस्य शास्त्रमपि नित्यं सर्वार्थज्ञानयुक्तं च भवितुमर्हति।’

इसी प्रकार से वेदान्तशास्त्र में वेदों के नित्य होने के विषय में व्यासजी ने भी लिखा है, (शास्त्र॰) इस सूत्र के अर्थ में शङ्कराचार्य ने भी वेदों को नित्य मानके व्याख्यान किया है कि—‘ऋग्वेदादि जो चारों वेद हैं, वे अनेक विद्याओं से युक्त हैं, सूर्य के समान सब सत्य अर्थों के प्रकाश करने वाले हैं, उनका बनानेवाला सर्वज्ञादि गुणों से युक्त परब्रह्म है, क्योंकि सर्वज्ञ ब्रह्म से भिन्न कोई जीव सर्वज्ञगुणयुक्त इन वेदों को बना सके, ऐसा सम्भव कभी नहीं हो सकता। किन्तु वेदार्थविस्तार के लिये किसी जीवविशेष पुरुष से अन्य शास्त्र बनाने का सम्भव होता है। जैसे पाणिनि आदि मुनियों ने व्याकरणादि शास्त्रों को बनाया है, उसमें विद्या के एक-एक देश का प्रकाश किया है। सो भी वेदों के आश्रय से बना सके हैं। और जो सब विद्याओं से युक्त वेद है, उसको सिवाय परमेश्वर के दूसरा कोई भी नहीं बना सकता, क्योंकि परमेश्वर से भिन्न सब विद्याओं में पूर्ण कोई भी नहीं है। किञ्च परमेश्वर के बनाये वेदों को पढ़ने, विचारने और उसीके अनुग्रह से मनुष्यों को यथाशक्ति विद्या का बोध होता है, अन्यथा नहीं।’ ऐसा शङ्कराचार्य ने भी कहा है। इससे क्या आया कि वेदों के नित्य होने में सब आर्य लोगों की साक्षी है। और यह भी कारण है कि जो ईश्वर नित्य और सर्वज्ञ है, उसके किये वेद भी नित्य और सर्वज्ञ होने के योग्य हैं। अन्य का बनाया ऐसा ग्रन्थ कभी नहीं हो सकता।


वेदान्तदर्शन में वेदनित्यत्व में अन्य प्रमाण[सम्पाद्यताम्]

अन्यच्च तस्मिन्नेवाध्याये—

‘अत एव च नित्यत्वम्॥’ (वे॰सू॰१.३.२८)

अस्यायमर्थः—अत ईश्वरोक्तत्वान्नित्यधर्मकत्वाद् वेदानां स्वतःप्रामाण्यं सर्वविद्यावत्त्वं सर्वेषु कालेष्वव्यभिचारित्वान्नित्यत्वं च सर्वैर्मनुष्यैर्मन्तव्यमिति सिद्धम्। न वेदज्ञस्य प्रामाण्यसिद्ध्यर्थमन्यत् प्रमाणं स्वीक्रियते। किन्त्वेतत् साक्षिवद्विज्ञेयम्। वेदानां स्वतःप्रमाणत्वात्, सूर्यवत्। यथा सूर्यः स्वप्रकाशः सन् संसारस्थान् महतोऽल्पाँश्च पर्वतादीन् त्रसरेण्वन्तान् पदार्थान् प्रकाशयति तथा वेदोऽपि स्वयं स्वप्रकाशः सन् सर्वा विद्याः प्रकाशयतीत्यवधेयम्।

(अत एव॰) इस सूत्र से भी यही आता है कि वेद नित्य हैं, और सब सज्जन लोगों को भी ऐसा ही मानना उचित है। तथा वेदों के प्रमाण और नित्य होने में अन्य शास्त्रों के प्रमाण को साक्षी के समान मानना चाहिये, क्योंकि वे अपने ही प्रमाण से नित्य सिद्ध हैं। जैसे सूर्य के प्रकाश में सूर्य का ही प्रमाण है, अन्य का नहीं, और जैसे सूर्य प्रकाशस्वरूप है, पर्वत से लेके त्रसरेणु पर्यन्त पदार्थों का प्रकाश करता है, वैसे वेद भी स्वयम्प्रकाश है और सब सत्यविद्याओं का प्रकाश कर रहे हैं।


नित्यता के सम्बन्ध में वेद का प्रमाण[सम्पाद्यताम्]

अत एव स्वयमीश्वरः स्वप्रकाशितस्य वेदस्य स्वस्य च सिद्धिकरं प्रमाणमाह—

स पर्य॑गाच्छु॒क्रम॑का॒यम॑व्र॒णम॑स्नाविरꣳशु॒द्धमपा॑पविद्धम्।

क॒विर्म॑नी॒षीप॑रि॒भूः स्व॑यं॒भूर्या॑थातथ्य॒तोऽर्थान् व्य᳖दधाच्छाश्व॒तीभ्यः॒ समा॑भ्यः॥ यजु॰४०.८

अस्यायमभिप्रायः—यः पूर्वोक्तः सर्वव्यापकत्वादिविशेषणयुक्तं ईश्वरोऽस्ति, (स पर्यगात्) परितः सर्वतोऽगात् प्राप्तवानस्ति, नैवैकः परमाणुरपि तद्व्याप्त्या विनास्ति, (शुक्रम्) तद् ब्रह्म सर्वजगत्कर्त्तृवीर्यवदनन्तबलवदस्ति, (अकायम्) तत्स्थूलसूक्ष्मकारणशरीरत्रयसम्बन्धरहितम्, (अव्रणम्) नैवैतस्मिँश्छिद्रं कर्त्तुं परमाणुरपि शक्नोति, अत एव छेदरहितत्वादक्षतम्, (अस्नाविरम्) तन्नाडीसम्बन्ध-रहितत्वाद् बन्धनावरणविमुक्तम्, (शुद्धम्) तदविद्यादिदोषेभ्यः सर्वदा पृथग्वर्त्तमानम्, (अपापविद्धम्) नैव तत्पापयुक्तं पापकारि च कदाचिद्भवति, (कविः) सर्वज्ञः, (मनीषी) यः सर्वेषां मनसामीषी साक्षी ज्ञातास्ति, (परिभूः) सर्वेषामुपरि विराजमानः, (स्वयंभूः) यो निमित्तोपादानसाधारणकारणत्रयरहितः, स एव सर्वेषां पिता, नह्यस्य कश्चित् जनकः स्वसामर्थ्येन सहैव सदा वर्तमानोऽस्ति, (शाश्वतीभ्यः) य एवंभूतः सच्चिदानन्दस्वरूपः परमात्मा, (सः) सर्गादौ स्वकीयाभ्यः शाश्वतीभ्यो निरन्तराभ्यः (समाभ्यः) प्रजाभ्यो (याथातथ्यतः) यथार्थस्वरूपेण वेदोपदेशेन (अर्थान् व्यदधात्) विधत्तवानर्थाद् यदा यदा सृष्टिं करोति तदा तदा प्रजाभ्यो हितायादिसृष्टौ सर्वविद्यासमन्वितं वेदशास्त्रं स एव भगवानुपदिशति। अत एव नैव वेदानामनित्यत्वं केनापि मन्तव्यम्, तस्य विद्यायाः सर्वदैकरसवर्त्तमानत्वात्।

ऐसे ही परमेश्वर ने अपने और अपने किये वेदों के नित्य और स्वतः प्रमाण होने का उपदेश किया है सो आगे लिखते हैं—(स पर्यगात्) यह मन्त्र ईश्वर और उसके किये वेदों का प्रकाश करता है, कि जो परमेश्वर सर्वव्यापक आदि विशेषणयुक्त है सो सब जगत् में परिपूर्ण हो रहा है, उसकी व्याप्ति से एक परमाणु भी रहित नहीं है। सो ब्रह्म (शुक्रम्) सब जगत् का करने वाला और अनन्तविद्यादि बल से युक्त है, (अकायम्) जो स्थूल, सूक्ष्म और कारण इन तीनों के संयोग से रहित है, अर्थात् वह कभी जन्म नहीं लेता, (अव्रणम्) जिसमें एक परमाणु भी छिद्र नहीं कर सकता, इसीसे वह सर्वथा छेदरहित है, (अस्नाविरम्) वह नाड़ियों के बन्धन से अलग है, जैसा वायु और रुधिर नाड़ियों में बंधा रहता है, ऐसा बन्धन परमेश्वर में नहीं होता, (शुद्धम्) जो अविद्या अज्ञानादि क्लेश और सब दोषों से पृथक् है, (अपापविद्धम्) सो ईश्वर पापयुक्त वा पाप करने वाला कभी नहीं होता, क्योंकि वह स्वभाव से ही धर्मात्मा है, (कविः) जो सब का जानने वाला है, (मनीषी) जो सबका अन्तर्यामी है, और भूत, भविष्यत् तथा वर्त्तमान इन तीनों कालों के व्यवहारों को यथावत् जानता है, (परिभूः) जो सबके ऊपर विराजमान हो रहा है, (स्वयंभूः) जो कभी उत्पन्न नहीं होता और उसका कारण भी कोई नहीं है, किन्तु वही सबका कारण, अनादि और अनन्त है, इससे वही सबका माता-पिता है, और अपने ही सत्य सामर्थ्य से सदा वर्त्तमान है, उसके सब सुखों के लिये, (अर्थान् व्यदधात्) सत्य अर्थों का उपदेश किया है। इसी प्रकार जब तक परमेश्वर सृष्टि को रचता है, तब तक प्रजा के हित के लिये सृष्टि के आदि में सब विद्याओं से युक्त वेदों का भी उपदेश करता है, और जब सृष्टि का प्रलय होता है तब तब वेद उसके ज्ञान में सदा बने रहते हैं, इससे उनको सदैव नित्य मानना चाहिये।


युक्ति से भी वेद की नित्यता सिद्ध[सम्पाद्यताम्]

यथा शास्त्रप्रमाणेन वेदा नित्याः सन्तीति निश्चयोऽस्ति, तथा युक्त्यापि। तद्यथा— ‘नासत आत्मलाभो न सत् आत्महानम् योग्योऽस्ति स भविष्यति’ इति न्यायेन वेदानां नित्यत्वं स्वीकार्यम्। कुतः? यस्य मूलं नास्ति नैव तस्य शाखादयः संभवितुमर्हन्ति, वन्ध्यापुत्रविवाहदर्शनवत्। पुत्रो भवेच्चेत्तदा वन्ध्यात्वं न सिद्ध्येत्, स नास्ति चेत्पुनस्तस्य विवाहदर्शने कथं भवतः। एवमेवात्रापि विचारणीयम्। यदीश्वरे विद्यानन्ता न भवेत् कथमुपदिशेत्? स नोपदिशेच्चेन्नैव कस्यापि मनुष्यस्य विद्यासम्बन्धो दर्शनं च स्याताम्, निर्मूलस्य प्ररोहाभावात्। न ह्यस्मिन् जगति निर्मूलमुत्पन्नं किञ्चिद् दृश्यते।

जैसे शास्त्रों के प्रमाणों से वेद नित्य है, वैसे ही युक्ति से भी उनका नित्यपन सिद्ध होता है, क्योंकि ‘असत् से सत् का होना अर्थात् अभाव से भाव को होना कभी नहीं हो सकता, तथा सत् का अभाव भी नहीं हो सकता। जो सत् है उसीसे आगे प्रवृत्ति भी हो सकती है, और जो वस्तु ही नहीं है उससे दूसरी वस्तु किसी प्रकार से नहीं हो सकती।’ इस न्याय से भी वेदों को नित्य ही मानना ठीक है। क्योंकि जिसका मूल नहीं होता है, उसकी डाली, पत्र, पुष्प और फल आदि भी कभी नहीं हो सकते। जैसे कोई कहे कि वन्ध्या के पुत्र का विवाह मैंने देखा, यह उसकी बात असम्भव है, क्योंकि जो उसके पुत्र होता तो वह वन्ध्या ही क्यों होती और जब पुत्र ही नहीं है तो उसका विवाह और दर्शन कैसे हो सकते हैं? वैसे ही जब ईश्वर में अनन्तविद्या हैं, तभी मनुष्यों को विद्या का उपदेश भी किया है। और जो ईश्वर में अनन्तविद्या न होती तो वह उपदेश कैसे कर सकता, और वह जगत् को भी कैसे रच सकता? जो मनुष्यों को ईश्वर अपनी विद्या का उपदेश न करता तो किसी मनुष्य को विद्या, जो यथार्थ ज्ञान है, सो कभी नहीं होता, क्योंकि इस जगत् में निर्मूल का होना वा बढ़ना सर्वथा असम्भव है। इससे यह भी जानना चाहिये कि परमेश्वर से वेदविद्या मूल को प्राप्त होके मनुष्यों में विद्यारूप वृक्ष विस्तृत हुआ है।

यस्य सर्वेषां मनुष्याणां साक्षादनुभवोऽस्ति सोऽत्र प्रकाश्यते—यस्य प्रत्यक्षोऽनुभवस्तस्यैव संस्कारो, यस्य संस्कारस्तस्यैव स्मरणं ज्ञानं, तेनैव प्रवृत्तिनिवृत्ती भवतो, नान्यथेति। तद्यथा—येन संस्कृतभाषा पठ्यते तस्याऽस्या एव संस्कारो भवति, नाऽन्यस्याः। येन देशभाषाऽधीयते तस्या एव संस्कारो भवति, नातोऽन्यथा। एवं सृष्ट्यादावीश्वरोपदेशाऽध्यापनाभ्यां विना नैव कस्यापि विद्याया अनुभवः स्यात्, पुनः कथं संस्कारस्तेन विना कुतः स्मरणम्? न च स्मरणेन विना विद्याया लेशोऽपि कस्यचिद्भवितुमर्हति।

इसमें और भी युक्ति है कि जिसका सब मनुष्यों को अनुभव और प्रत्यक्ष ज्ञान होता है, उसी का दृष्टान्त देते हैं—देखो कि जिसका साक्षात् अनुभव होता है उसीका ज्ञान में संस्कार होता है, संस्कार से स्मरण, स्मरण से इष्ट में प्रवृत्ति और अनिष्ट से निवृत्ति होती है, अन्यथा नहीं। जो संस्कृत भाषा को पढ़ता है, उसके मन में उसी का संस्कार होता है, अन्य भाषा का नहीं, और जो किसी देशभाषा को पढ़ता है, उसको देशभाषा का संस्कार होता है, अन्य का नहीं। इसी प्रकार जो वेदों का उपदेश ईश्वर न करता तो किसी मनुष्य को विद्या का संस्कार नहीं होता, जब विद्या का संस्कार नहीं होता तो इसका स्मरण भी नहीं होता, स्मरण से बिना किसी मनुष्य को विद्या का लेश भी नहीं हो सकता। इस युक्ति से जाना जाता है कि ईश्वर उपदेश से वेदों को सुन पढ़ और विचार के ही मनुष्यों को विद्या का संस्कार आज पर्यन्त होता चला आया है, अन्यथा कभी नहीं हो सकता।


विद्या और ज्ञान का मूलस्रोत ईश्वर[सम्पाद्यताम्]

किं च भोः! मनुष्याणां स्वाभाविकी या प्रवृत्तिर्भवति, तत्र सुखदुःखानुभवश्च, तयोत्तरोत्तरकाले, क्रमानुक्रमाद् विद्यावृद्धिर्भविष्यत्येव, पुनः किमर्थमीश्वराद् वेदोत्पत्तेः स्वीकार इति?

प्रश्न—मनुष्यों का स्वभाव से जो चेष्टा है, उसमें सुख और दुःख का अनुभव भी होता है, उससे उत्तर—उत्तर काल में क्रमानुसार से विद्या की वृद्धि भी अवश्य होगी, तब वेदों को भी मनुष्य लोग रच लेंगे, फिर ईश्वर ने वेद रचे, ऐसा क्यों मानना?

एवं प्राप्ते ब्रूमः—एतद् वेदोत्पत्तिप्रकरणे परिहृतम्, तत्रैष निर्णयः—यथा नेदानीमन्येभ्यः पठनेन विना कश्चिदपि विद्वान् भवति तस्य ज्ञानोन्नतिश्च, तथा नैवेश्वरोपदेशागमनेन विना कस्यापि विद्याज्ञानोन्नतिर्भवेत्, अशिक्षितबालकवनस्थवत्। यथोपदेशमन्तरा न बालकानां वनस्थानां च विद्यामनुष्यभाषाविज्ञाने अपि भवतः, पुनर्विद्योत्पत्तेस्तु का कथा? तस्मादीश्वरादेव या वेदविद्याऽऽगता, सा नित्यैवास्ति, तस्य सत्यगुणवत्त्वात्।

उत्तर—इसका समाधान वेदोत्पत्ति के प्रकरण में कर दिया। वहाँ यही निर्णय किया है कि जैसे इस समय में अन्य विद्वानों से पढ़े विना कोई भी विद्यावान् नहीं होता और इसी के विना किसी पुरुष में ज्ञान की वृद्धि भी देखने में नहीं आती, वैसे सृष्टि के आरम्भ में ईश्वरोपदेश की प्राप्ति के विना किसी मनुष्य की विद्या और ज्ञान की बढ़ती कभी नहीं हो सकती। इसमें अशिक्षित बालक और वनवासियों का दृष्टान्त दिया था, कि जैसे उस बालक और वन में रहने वाले मनुष्य को यथावत् विद्या का ज्ञान नहीं होता, तथा अच्छी प्रकार उपदेश के विना उनको लोकव्यवहार का भी ज्ञान नहीं होता, फिर विद्या की प्राप्ति तो अत्यन्त कठिन है। इससे क्या जानना चाहिये कि परमेश्वर के उपदेश वेदविद्या आने के पश्चात् ही मनुष्यों को विद्या और ज्ञान की उन्नति करनी भी सहज हुई है, क्योंकि उसके सभी गुण सत्य हैं। इससे उसकी विद्या जो वेद है वह भी नित्य ही है।


नित्य परमेश्वर से उत्पन्न वेद भी नित्य[सम्पाद्यताम्]

यन्नित्यं वस्तु वर्त्तते तस्य नामगुणकर्माण्यपि नित्यानि भवन्ति, तदाधारस्य नित्यत्वात्। नैवाधिष्ठानमन्तरा नामगुणकर्मादयो गुणाः स्थितिं लभन्ते, तेषां पराश्रितत्वात्। यन्नित्यं नास्ति न तस्यैतान्यपि नित्यानि भवन्ति। नित्यं चोत्पत्तिविनाशभ्यामितिरद्भवितुमर्हति। उत्पत्तिर्हि पृथग्भूतानां द्रव्याणां या संयोगविशेषाद् भवति। तेषामुत्पन्नानां कार्यद्रव्याणां सति वियोगे विनाशश्च संघाताभावात्। अदर्शनं च विनाशः। ईश्वरस्यैकरसत्वान्नैव तस्य संयोगवियोगाभ्यां संस्पर्शोऽपि भवति।

जो नित्य वस्तु है उसके नाम, गुण और कर्म भी नित्य ही होते हैं, क्योंकि उनका आधार नित्य है। और विना आधार से नाम, गुण और कर्मादि स्थिर नहीं हो सकते, क्योंकि वे द्रव्यों के आश्रय सदा रहते हैं। जो अनित्य वस्तु है, उसके नाम, गुण और कर्म भी अनित्य ही होते हैं। सो नित्य किसको कहना? जो उत्पत्ति और विनाश से पृथक् है। तथा उत्पत्ति क्या कहाती है? कि जो अनेक द्रव्यों के संयोग वियोग से स्थूल पदार्थ का उत्पन्न होना। और जब वे पृथक्-पृथक् होके उन द्रव्यों के वियोग से जो कारण में उनकी परमाणुरूप अवस्था होती है, उसको विनाश कहते हैं। और जो द्रव्य संयोग से स्थूल होते हैं, वे चक्षु आदि इन्द्रियों से देखने में आते हैं। फिर उन स्थूल द्रव्यों के परमाणुओं का जब विनाश हो जाता है, तब सूक्ष्म के होने से वे द्रव्य देख नहीं पड़ते, इसका नाम नाश है। क्योंकि अदर्शन को ही ‘नाश’ कहते हैं। जो द्रव्य संयोग और वियोग से उत्पन्न और नष्ट होता है, उसीको कार्य और अनित्य कहते हैं और जो संयोग और वियोग से अलग है, उसकी न कभी उत्पत्ति और न कभी नाश होता है। ईश्वर में संयोग-वियोग नहीं होता, क्योंकि वह सदा अखण्ड एकरस ही बना रहता है। इसीसे उसको ‘नित्य’ कहते हैं।


नित्य का लक्षण[सम्पाद्यताम्]

अत्र कणादमुनिकृतं सूत्रं प्रमाणमस्ति—सदकारणवन्नित्यम्॥ (वैशेषिके ४.१.१) अस्यायमर्थः—तत्कार्य्यं कारणादुत्पाद्य विद्यमानं भवति, तदनित्यमुच्यते, तस्य प्रागुत्पत्तेरभावात्। यत्तु कस्यापि कार्य्यं नैव भवति किन्तु सदैव कारणरूपमेव तिष्ठति, तन्नित्यं कथ्यते।

(इसमें कणादमुनि के सूत्र का भी प्रमाण है—(सदकार॰) जो किसी का कार्य है कि कारण से उत्पन्न होके विद्यमान होता है, उसको अनित्य कहते हैं। जैसे मट्टी से घड़ा होके वह नष्ट भी हो जाता है। इसी प्रकार परमेश्वर के सामर्थ्य कारण से सब जगत् उत्पन्न होके विद्यमान होता है, फिर प्रलय में स्थूलाकार नहीं रहता, किन्तु वह कारणरूप तो सदा ही बना रहता है। इससे क्या आया कि जो विद्यमान हो और जिसका कारण कोई भी न हो अर्थात् स्वयं कारणरूप ही हो, उसको ‘नित्य’ कहते हैं।


ईश्वर सूक्ष्म होने से सबका आत्मा[सम्पाद्यताम्]

यद्यत्संयोगजन्यं तत्तत्कर्त्रपेक्षं भवति। कर्त्तापि संयोगजन्यश्चेत्तर्हि तस्याप्यन्योऽन्यः कर्त्तास्तीत्यागच्छेत्। एवं पुनः पुनः प्रसङ्गादनवस्थापत्तिः। यच्च संयोगेन प्रादुर्भूतं नैव तस्य प्रकृतिपरमाण्वादीनां संयोगकरणे सामर्थ्यं भवितुमर्हति, तस्मात्तेषां सूक्ष्मत्वात्। यद्यस्मात् सूक्ष्मं तत्तस्यात्मा भवति, सूक्ष्मस्य प्रवेशार्हत्वात्, अयोऽग्निवत्। यथा सूक्ष्मत्वादग्निः कठिनं स्थूलमयः प्रविश्य तस्यावयवानां पृथग्भावं करोति, तथा जलमपि पृथिव्याः सूक्ष्मत्वात् तत्कणान् प्रविश्य सुयुक्तमेकं पिण्डं करोति, छिनत्ति च। तथा परमेश्वरः संयोगवियोगाभ्यां पृथग्भूतो विभुरस्त्यतो नियमेन रचनं विनाशं च कर्त्तुमर्हति, न चान्यथा। यथा संयोगवियोगान्तर्गतत्वान्नास्मदादीनां प्रकृतिपरमाण्वादीनां संयोगवियोगकरणे सामर्थ्यमस्ति। तथेश्वरोऽपि भवेत्।

क्योंकि जो संयोग से उत्पन्न होता है, सो-सो बनानेवाले की अपेक्षा अवश्य रखता है, जैसे कर्म, नियम और कार्य ये सब कर्त्ता, नियन्ता और कारण को ही सदा जनाते हैं। और जो कोई ऐसा कहे कि कर्त्ता को भी किसी ने बनाया होगा तो उससे पूछना चाहिये कि उस कर्त्ता के कर्त्ता को किसने बनाया है? इसी प्रकार अनवस्था प्रसङ्ग अर्थात् मर्यादा रहित होता है। जिसकी मर्यादा नहीं है, वह व्यवस्था के योग्य नहीं ठहर सकता। और जो संयोग से उत्पन्न होता है, वह प्रकृति और परमाणु आदि के संयोग करने में समर्थ ही नहीं हो सकता। इससे क्या आया कि जो जिससे सूक्ष्म होता है, वही उसका आत्मा होता है, अर्थात् स्थूल में सूक्ष्म व्यापक होता है। जैसे लोहे में अग्नि प्रविष्ट होके उसके सब अवयवों में व्याप्त होता है, और जैसे जल पृथिवी में प्रविष्ट होके उसके कणों के संयोग से पिण्डा करने में हेतु होता है तथा उसका छेदन भी करता है, वैसे ही परमेश्वर सब संयोग और वियोग से पृथक् सब में व्यापक, प्रकृति और परमाणु आदि से भी अत्यन्त सूक्ष्म और चेतन है, इसी कारण से प्रकृति और परमाणु द्रव्यों के संयोग करके जगत् को रच सकता है। जो ईश्वर उनसे स्थूल होता तो उसका ग्रहण और रचन कभी नहीं कर सकता, क्योंकि जो स्थूल पदार्थ होते हैं, वे सूक्ष्म पदार्थों के नियम करने में समर्थ नहीं होते। जैसे हम लोग प्रकृति और परमाणु आदि के संयोग और वियोग करने में समर्थ नहीं हैं, क्योंकि जो संयोग वियोग के भीतर है, वह उसके संयोग-वियोग करने में समर्थ नहीं हो सकता।


संयोग-वियोग करने वाला परमेश्वर आदिकारण[सम्पाद्यताम्]

अन्यच्च—यतः संयोगवियोगारम्भो भवति तस्मात् पृथग्भूतोऽस्ति, तस्य संयोगवियोगारब्धस्यादि-कारणत्वात्। आदिकारणस्याभावात् संयोगवियोगारम्भस्यानुत्पत्तेश्च। एवं भूतस्य सदा निर्विकारस्वरूपस्याजस्यानादेर्नित्यस्य सत्यसामर्थ्यस्येश्वरस्य सकाशाद् वेदानां प्रादुर्भावात् तस्य ज्ञाने सदैव वर्त्तमानत्वात् सत्यार्थवत्त्वं नित्यत्वं चैतेषामस्तीति सिद्धम्।

तथा जिस वस्तु से संयोग-वियोग का आरम्भ होता है, वह वस्तु संयोग और वियोग से अलग होता है, क्योंकि वह संयोग और वियोग के आरम्भ के नियमों का कर्त्ता और आदिकारण होता है, तथा आदिकारण के अभाव से संयोग और वियोग का होना ही असम्भव है। इससे क्या जानना चाहिये कि जो सदा निर्विकारस्वरूप, अज, अनादि, नित्य, सत्यसामर्थ्य से युक्त और अनन्तविद्या वाला ईश्वर है, उसकी विद्या से वेदों के प्रकट होने और उसके ज्ञान में वेदों के सदैव वर्त्तमान रहने से वेदों को सत्यार्थयुक्त और नित्य सब मनुष्यों को मानना योग्य है। यह संक्षेप से वेदों के नित्य होने का विचार किया है।

॥इति वेदानां नित्यत्वविचारः॥