सामग्री पर जाएँ

पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/१०

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

( एक ) अपनी बात बात १०-१२ वर्ष पुरानी है डा. नामवर सिंह के निर्देश पर भरत के नाट्य शास्त्र पर कार्य करने के लिये एक परियोजना बनाई गई थी और उसके लिये यूज़ी.सी. ने अनुदान देना भी स्वीकार कर लिया था। किन्तु बाद में अधिक आयु के व्यक्ति को इतनी बड़ी योजना प्रारम्ण करना उचित नहीं समझा गया और वह स्वीकृति वापस ले ली गई। अनुदान की स्वीकृति की सूचना मिल जाने पर प्रारम्भिक तैयारी के रूप में वर्णानुक्रम से कुछ सामग्री सङ्कलित कर ली गई । किन्तु योजना के अस्वीकृत हो जाने पर उस कार्य को आगे नहीं बढ़ाया जा सका। वह सारी सामग्री उपेक्षित पड़ी रही। पिछले वर्ष कुछ मित्रों के परामर्श से उस अधूरे कार्य को पुनः हाथ में लिया गया और निश्चय किया गया कि उसे कोश-ग्रन्थ के रूप में सम्पादित कर प्रकाशित कराने का प्रयत्न किया जाय। समस्त कार्य को एक साथ पूरा करने में अधिक विलम्ब और फलतः उसके बीच में ही रुक जाने की सम्भावना थी। अतः निश्चय किया गया कि सम्पूर्ण कार्य को तीन खण्डों में प्रकाशित किया जाय- (१) संस्कृत नाटक परक, (२) नाट्य शास्त्रीय पारिभाषिक शब्दावली और (३) नाट्यशास्त्रोपयोगी उपरंजक कलाएँ। इसी योजना के आधीन साहित्य मर्मज्ञों की सेवा में प्रथम खण्ड प्रस्तुत करते हुये संकलनकर्ता (लेखक) प्रसन्नता का अनुभव कर रहा है। दूसरे खण्ड की भी तत्कालीन संकलित लगभग २० प्रतिशत सामग्री विद्यमान है। यदि परमपिता ने अवसर और सुयोग प्रदान किया तो लेखक दूसरे खण्ड को लेकर भी साहित्यज्ञ-समाज के सम्मुख उपस्थित होने का प्रयत्न करेगा ऐसी आशंसा है। संस्कृत साहित्य का प्रभावी विस्तार हजारों वर्षों की सीमावधि में फैला हुआ है जिसके संरक्षण की प्राचीन काल में कोई व्यवस्था नहीं रही। हजारों की संख्या में प्राचीन पुस्तकों की हस्तलिखित पाण्डुलिपियाँ राजघरानों के पुस्तकालयों में भरी पड़ी हैं। उन्हें व्यवस्था देना श्रमसाध्य कार्य है। पाश्चात्य विद्वानों और उनके पदचिन्हों पर चलने वाले कतिपय भारतीय अनुसन्धाताओं ने इस दिशा में कुछ कार्य किया है। किन्तु फिर भी अनेकशः निश्चयात्मकता का अभाव बना हुआहै। कवियों और कलाकारों का व्यक्तित्व, उनका समय, उनकी कृतियों का विस्तार आदि सभी कुछ अतीत के गर्भ में विलीन हो गया है। कहीं केवल पुस्तकों का नाम शेष रह गया है; कहीं पुस्तकें तो मिलती हैं किन्तु उनके लेखक का पता नहीं। कहीं अधूरी पुस्तकें मिलती हैं। जो साहित्य उपलब्ध भी हैं उनके अधिकांश लेखकों का समय निश्चित नहीं है। सभी कुछ अनुसन्धान सापेक्ष है। अनेकशः वास्तविकता के निकट पहुंचने के लिये कल्पना और सम्भावना का सहारा लेना