४३० ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते द्वितीय लम्ब पूर्वात स्पष्टभुज के तुल्य है । दोनों का वर्गयोग मूल एक गोलीय रवि और चन्द्र का बिम्बान्तर सूत्र कर्ण होता है। भुज, कोटि और कथं ये जिस धरातल में हैं वह धरातल क्षितिज घरातल के ऊपर सभप्रोत धरातल की तरह लम्बरूप नहीं है इसलिये दर्शक के सामने यह क्षेत्र आदर्श (दर्पण) की तरह नहीं होता है इसलिये सिद्धान्तशिरोमणि में भास्कराचार्य ने इस क्षेत्र का खण्डन किया है । रवि चार चन्द्र की अन्तरार्धज्या द्विगुणित कर्णं होता है। भुज और कर्ण का वर्गान्तर मूल कोटि होती है, यह भृङ्गोन्नति के उत्तराधिकार में आचार्य ने ‘‘व्यकॅन्द्र्धभुजज्या द्विगुणा" इत्यादि संस्कृतोपपति में लिखित श्लोक से प्रकारान्तर दिखलाया है। इसी कारण से भास्कराचार्य ने ‘तत् क्षेत्रं ब्रह्मगुप्तेन रवीन्द्वोरन्तरार्धज्यां द्विगुणां कर्ण प्रकल्प्य ..... न हि द्रष्टुदृष्टिसंमुखमादशीवत्” संस्कृतोपपत्ति में लिखित भाष्य कहा है, सिद्धान्तशेखर में श्रीपति ने भी 'समान्यककुभोस्तयोरित्यादिसंस्कृतोपपत्ति में लिखित लोकों से आचार्यो त के अनुरूप हो सब कुछ कहा है । ब्रह्मगुप्त-श्रीपति-सूर्यसिद्धान्तकार भास्कराचार्यं प्रति आचार्यों का भुङ्गोम्नति साघन ठीक नहीं है । सिद्धान्ततत्वविवेक में इसके सम्बन्ध में कमलाकर ने बहुत कहा हैं। शृङ्गोन्नति का विचार सिताङ्गुल के अधीन हैं। लेकिन सिताङ्गुलानयन कमलाकरोक्त भी ठीक नहीं है इसलिये कमलाकरोत भृङ्गोन्नति साधन भी ठीक नहीं है, वास्तवानयन के लिये म.स" पण्डित श्री सुधाकर द्विवेदि निमित ‘वास्तवचन्द्रशृङ्गोन्नतसाधनम्' नामक पुस्तक देखनी चाहिये इति ।।७-८-६॥ अथ विशेषमाह एवं तावद्यावत् पदयोराद्यन्तयोः शशिनि चार्कात् । रविरर्धचक्रयुक्तः कल्प्यो द्वित्रिपदयोरर्कः ॥१०॥ सु. भा–एवमर्कात् प्रथमचतुर्थपदयोः शशिनि चन्द्रे सति क्रिया कार्या । अर्थादेवं मासान्तपादे वा प्रयमे भुज कोटिकर्णादिकं भवति । द्वित्रिपदयो रविरर्ध चक्रयुक्तः षड् राशिसहितः स चार्कः कल्पः। त् सषड्भमर्क रविं प्रकल्प्य भुज- कोटिकर्णादिकम नेयम् । एवं भुजकोटिकणैः कृष्णश्रृंगोन्नतिपद्यत इत्यर्थात एवावगम्यते ।n१०॥ वि. भा.-एवमक (रवितः) यावदाद्यन्तयोः पदयोः (प्रथमचतुर्थपदयोः) शशिनि (चन्द्र) सति तावदेव भुजकोटिकर्णादिकं भवति, द्वितीयतृतीयपदयो रविरर्धचक्रयुक्तः (षड्राशिसहितः) अर्कः कल्प्योऽर्थात् सषड्भं रविमर्की प्रकल्प्य भुजकोटिकर्णादिकमानेयम् । एवमानीतैभुजकोटिकणैः कृष्णशृङ्गोन्नतिरुत्पद्यत इत्युपपत्या सिध्यतीति ॥१०॥ दूषयूोष पदयोः सषड्गुहं भास्करं दिनकरं प्रकल्पयेदिति सिदान्तशेखरे
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