३६४ तदा परमान्तरं=नम भवेत् । ततः संनम, संलपू चापोयजात्यत्रिभुजयोज्यक्षेत्र साषालादनुगचे नाव -बिहामारस्य, महामारी कामे ही नितं तदा सन्धिग्रहो भवेत् । ग्र=ग्रहः संग्र=सधिग्रग्रहान्तरंविदितमेव। प्रन अन्घिग्रहग्रहान्तरकोटि:=सकग्र, सग्र=उपकोटिचापम् । तदा कसग्र चापीय त्रिभुवेऽनुपात सन्धिग्रहग्रहान्त रकोटिज्याXपरमान्तरज्या ज्या<p=स्पष्टवल उपकोटिव्यासार्ध नज्या, अस्याश्वपं स्पष्टवलनं भवेदिति ॥१८॥ अब स्पष्टवतनानयन को कहते हैं। हि.भा.-एक दिशा का आक्षवलन और फायनवलन का योग करने से तथा भित्र दिशा का, उन दोनों का अन्तर करने से जो होता है उसकी ज्या स्पर्शकालमध्यग्रहण और मोक्षकाल में स्फुटवलनज्या होती है, इसी तरह निमीलनकाल - उन्मीलनकाल और इष्टकास में स्फुटवलन साघन करना । इस वलन से प्रन्यदिशा का मानयन करना मर्याव एक वृत्त से जितने अंश में अन्यवृत्त की पूर्वा दिया चलती है उतने अंश में अन्य दिशा चलती है इति ।१८।। ब्रह के ऊपर समप्रोतवृत्त-कदम्बप्रोतवृत्त और श्रवश्रोतवृत्त कीजिये, अह को केन्द्रमानकर भवयंच से ग्रह क्षितिज कीजिए, इसमें समश्रोतवृत्त और कदम्बश्रोतवृत्त के अन्तर्गत चाप स्पष्टवलन है, ग्रहपरिगतसमप्रोतवृत्त भर ध्रुवप्रोतवृत्त से उत्पन्न प्रहलग्नकोण आक्षवलन है। तथा ध्रुवम्रोतवृत्त भोर कदम्बश्रोतवृत्त से उत्पन्न ग्रहलग्नकोण आयनवलन है, दोनों का योषान्तर करने से समप्रोतवृत्त और कदम्बश्रोतवृत्त से उत्पन्न प्रहृलग्न कोण स्पष्टवचन होता है, सिद्धान्तलेखर में "पलवतनमनेन स्पष्टमेकीकृतं” इत्यादि से श्रीपति ने, ‘‘अपक्रम क्षेपपसोद्भवानाम्" इत्यादि से सल्लाचार्य ने, तथा “तयोः पलोत्थायनयोः समाशयो:" इत्यादि से सिद्धान्तशिरोमणि में आस्कराचार्य ने भी आचार्योक्तानुरूप ही स्पष्टवलन कहा है, केवल सल और श्रीमति ने आयनवलन भौर आक्षवलन के यौगन्तररूप स्पष्टवसन में शर संस्कार भी किया है वो हि अनुचित है, भास्कराचार्य ने खाचित स्पष्टबलन का मानैक्याध तृत में परिखमन किया है, आचार्य ने त्रिख्यावृत में स्रावित स्पष्टवलन को ज्यों का त्यों रखा है, खि के लिये स्पष्टवचन की बरूरत होती है । एकनुपात से स्पष्टवचनानबीन को दिखलाते हैं आई की विधि (=) क्षेत्र में डिविले । आन्हिवृत्त और क्षेत्र काम
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